लोगों के लिए शहर वह जगह होती है जिसके केंद्र में वे जीवन में तमाम तरह के अवसर पाने और खोजने की कल्पना करते हैं। हर इंसान के ज़हन में, उसका शहर बसता है। हमने हमेशा एक शहर में अच्छी शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य सुविधा, आदि उपलब्ध होने के सामान्य विचार को ही आत्मसात किया है। शहरों को इस रूप में परिभाषित करने का यह सामान्यीकरण लगभग पूरी दुनिया में एक जैसा ही है। शहरों की यह परिभाषा एक ‘छद्म विचार’ की तरह दिखाई देती है। यह विचार हमारे शहरों में मौजूद असमानता और शोषण को पहचानने में असमर्थता को दर्शाता है।
वास्तव में इन शहरों की चकाचौंध सबके लिए एक सी नहीं है। इनके निर्माण तटस्थ रूप से नहीं हुए हैं। इसकी पूरी निर्माण प्रक्रिया पुरुष-केंद्रित और पितृसत्ता की संस्कृति पर आधारित है। शहरों के निर्माण में पितृसत्तामक प्रवृति ने शोषण की व्यवस्था पर आधारित लैंगिक हाइरार्की को शहरों के विकास को सुनिश्चित करने वाले सामाजिक और आर्थिक पहलुओं में भी शामिल किया है। शहर में निवास करने वाली हाशिये पर बनी महिलाएं और शहरों की ओर पलायन करने वाली ग्रामीण महिलाओं की तमाम समस्याएं इसी लैंगिक हायरार्की की वजह से आज भी बरक़रार हैं जिनका उपचार एक पुरुष प्रधान शहर करने में लगभग असफल है।
दो साल पीछे जाकर इसे समझना और अधिक बेहतर होगा। जब कोरोना महामारी हाशिये समुदायों के लिए 21वीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती साबित हुई थी। बच्चों को छाती से चिपकाकर कई दिनों तक पैदल चलकर राज्यों की सीमाओं को पार करने वाली महिलाओं की तस्वीरें हूबहू याद में बनी हुई हैं। ये तस्वीरें आज भी परेशान करती हैं। इस त्रासदी ने लैंगिक असमानताओं और गरीब महिलाओं की परिस्थितियों को तो उजागर किया था। साथ ही स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति में शहरी क्षेत्र के भीतर मुहैया करवाई जाने वाली सार्वजनिक सेवाओं की असमान व्यवस्था को भी उजागर किया जिन तक अधिकांश महिलाओं की पहुंच पुरुषों की तुलना में बेहद कम है। यह पुरुषों के बसाए गए शहरों का ही नतीजा है।
शहरी योजना और विकास एक जांच का विषय है जिसे नारीवादी नज़रिये से समझा जाना बेहतर है। यह नज़रिया वैश्विक स्तर पर नया नहीं है लेकिन यह लैंगिक समस्याओं से जुड़ी कार्रवाई के लिए आज प्रासंगिक होता जा रहा है। हम जब शहरों के निर्माण और विकास की लंबे समय की प्रक्रियाओं को नारीवादी नज़रिये से समझने के रास्ते निकल पड़ते हैं तो पहला सवाल ही दिमाग में यह उमड़ने लगता है की इन शहरों में महिलाओं की जगह कहां है? फिर अगला सवाल सोच को और विस्तृत करते हुए यह उठता है आखिर इन शहरों के डिज़ाइन लैंगिक नज़रिये से कितनी समावेशी हैं? आइए जानें, इन प्रश्नों के केंद्र में शहरों के विकास की व्यवस्थाओं को महिलाओं के नज़रिये से, जिन प्रश्नों को उभारने में नारीवादी नज़रिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
शहरों को बसाने की पितृसत्तामक मनोवृत्ति
कई संदर्भों में पितृसत्ता अपनी स्थिति बदलती रहती है लेकिन उसके केंद्र में रहता हमेशा पुरुष ही है। शहरों का निर्माण और बदलते समय से साथ उन्हें आकार देने में अकेली भूमिका पुरुषों की रही है। अक्सर सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं का शौचालय की सुविधा, तलाश करने की मशकत उनके घरों में बने रहने की चार दीवारी के भीतर की पुरानी संस्कृति को बयां करती है जो कि पितृसत्तात्मक सोच की देन है। वहीं, पुरुषों की सुख सुविधाओं और ज़रूरतों की पूर्ति आसानी से हो जाती है क्योंकि शहरों को रचने वाले सर्वेसर्वा वे खुद होते हैं।
महिलाओं के लिए शहरों में बेफ़िक्र होकर चलना-फिरना आसान और सामान्य जैसा कुछ भी नहीं है। इसके विपरीत, शहरों में पुरुषों का रात में बाहर घूमने निकलना उनके शहरी और लैंगिक विशेषाधिकार को दर्शाता है। लड़कियां और महिलाओं के लिए कोई गली-कूचा सुरक्षित नहीं है। कितनी ही लड़कियां हैं जो सार्वजनिक परिवहन में यात्रा करते हुए या तो कभी बाज़ार में घूमते हुए यौन उत्पीड़न का सामना करती हैं।
शहरी परिवेश को समझने में समावेशी नज़रिये की भूमिका
सामाजिक-आर्थिक स्थिति, जेंडर, उम्र, जाति, यौनिकता, विकलांगता और अन्य पहचान अक्सर शहरों की पक्षपाती संरचना का और बेहतर विश्लेषण करने में महत्वपूर्ण हो जाते हैं। ये श्रेणियां वे हैं जो किसी की संसाधनों और अवसरों तक पहुंच को प्रभावित करती हैं। शहरी संरचनाएं और ये श्रेणियां आपस में इतने करीब से जुड़े हैं कि महिलाओं को तमाम बुनियादी सेवाओं तक पहुंच स्थापित करने में विशेष कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। एक शोध के मुताबिक, वर्ग, जाति और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि ने महिलाओं द्वारा किए जा रहे सार्वजनिक स्थानों के उपयोग को प्रभावित किया है। एक अन्य आर्किटेक्चर शोध में नारीवादी नज़रिये के अनुसार, सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के अनुभव काफी सीमा तक उनके जेंडर पर निर्भर होते हैं।
शहरों के भीतर हाशिये पर टिके स्थानों में महिलाओं की दुर्दशा
शहरों के निर्माण और उनमें बदलाव लाने की कल्पना जब भी की जाती है तो इस कल्पना से सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े और वंचित हमेशा बाहर होते हैं। जिनकी कुछ आबादी शहरों के बीचों-बीच या तो इनके कोने में बसती है। ये शहरों में स्थित वे इलाके हैं जो शुरू से ही सबकी नज़र में होते हैं पर किसी ख़ास अवसरों पर छिपा दिए जाते हैं। जिसका एक अर्थ निकलता है की हाशिये पर बने ये स्थान किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं हैं। अभी हाल ही में, दिल्ली में हुए G20 के अंतराष्ट्रीय सम्मलेन के दौरान, राजधानी में स्थित बस्तियों को बड़े-बड़े पर्दों से पूरी तरह से ढक दिया गया और फ्लाईओवर पर मांगकर खाने वालों को रैनबसेरा जैसे अल्पकालिक आश्रय में भेज दिया गया।
जेंडर, समावेशी नज़रिया और शहरी विकास
शहरों की समावेशी रूपरेखा हरेक व्यक्ति के लिए तमाम प्रकार की सामाजिक और आर्थिक पूर्वाग्रहों से मुक्त परिवेश में समान व्यवहार और समान अवसरों के विचार पर आधारित है। शहर के विकास में लिंग समावेशन के विचार को बढ़ावा देना आज और अधिक इसलिए ज़रूरी हो गया है क्योंकि यह तीन सतत विकास लक्ष्यों(एसडीजी) से संबंधित है। जिसमें पहला एसडीजी-5 जो कि लैंगिक समानता को प्राप्त करने से जुड़ा है। दूसरा, एसडीजी-11 जो शहरों और मानव बस्तियों को समावेशी, सुरक्षित, लचीला और टिकाऊ बनाने पर बल देता है और तीसरा, एसडीजी-16 जो सतत विकास के लिए शांतिपूर्ण और समावेशी समाज पर बल देता है।
शहरी क्षेत्रों में समावेशन के लक्ष्य एक लंबा रास्ता तय करने के समान है। इस संबंध में तमाम रिपोर्ट सामने हैं कि महिलाएं आज भी अपने घर के भीतर और बाहर दोनों ही जगह असमान व्यवहार झेल रही हैं। अधिक गंभीर शहरी चुनौतियों का सामना करने वाली इनमें मध्यम और निम्न वर्ग की महिलाएं हैं। जिसके बीच यौन उत्पीड़न की समस्याएं और यौन व प्रजनन से जुड़ी स्वास्थ्य सेवाओं तक कम पहुंच निरंतर बनी हुई है।
शहरी व्यापारिक और वाणिज्यिक गतिविधियों की तस्वीर
इस तथ्य में कोई संदेह नहीं है की शहरी व्यापारिक और वाणिज्यिक गतिविधियों का संचालन पुरुषों के नियंत्रण में हुआ है। शहरों को बनाए रखने में आर्थिक कारक बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। लेकिन इस आर्थिक प्रणाली में पुरुषों के एकाधिकार ने लैंगिक असमानता को और भी बदतर बनाया है जो काफी हद तक आज भी बनी हुई है। व्यापार का प्रबंधन करने से लेकर इसका विस्तार देने तक के लिए जो संबंध स्थापित किए जाते हैं वो पुरुषों का अन्य पुरुषों के साथ और पुरुषों के बीच ही किए जाते हैं।
क्या हम कल्पना कर सकते हैं जब एक महिला आर्थिक व्यवस्था में रुचि दिखाती है तो उसे किस तरह के पुरुष प्रधान परिदृश्य से होकर गुज़रती होगी। इसके लिए देश की राजधानी के बड़े-बड़े लोकप्रिय बाज़ारों का रुख़ कर सकते हैं। दिल्ली के चाँदनी चौक, जामा मस्जिद और सदर बाज़ार में वस्तुओं की ख़रीद-फ़रोख़्त करते हुए हमेशा केवल पुरुष ही दिखाई देंगे। शहरों की पुरुष केंद्रित आर्थिक व्यवस्था ने, न केवल घर संभाल रही महिलाओं को आर्थिक गतिविधियों से दूर रखा बल्कि घर के पुरुषों पर निर्भरता कायम कर पाई-पाई पर पूरे घर को चलाने पर मजबूर किया है।
असल में, इन शहरों का विश्लेषण महिलाओं के नज़रिये करना बिलकुल ऐसा है जैसे इतिहास में महिलाओं के अस्तित्व की पहचान को खोजने जैसा। एक ईंट-पत्थर जिनसे इन शहरों का निर्माण हुआ है, ने महिलाओं के अस्तित्व को हमेशा से कुचला ही है क्योंकि इनका निर्माण पुरुषों के द्वारा और पुरुषों की सार्वजानिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए हुआ। इनके बसाये शहरों में, प्रवेश करना खासकर के मध्यम और निम्र वर्ग के महिलाओं के संघर्षों और अनुभवों को और अधिक जटिल बना देता है। अंतराष्ट्रीय रिपोर्टों के मुताबिक, ‘2050 तक दुनिया की 70% से अधिक आबादी शहरों में निवास करेंगी।’
इसलिए आवश्यकता है सरकारी तंत्र को इन शहरों को समानता के वास्तविक पटल पर लाने और भयमुक्त बनाने पर काम करने की। साथ ही, अपने शहरों की तमाम प्रकार की समस्याओं और भावी शहरों के निर्माण और विकास प्रक्रियाओं में समावेशन के सिद्धांत पर आधारित पहल के साथ काम करने की। ताकि आदर्श शहरों में आदर्श आबादी निवास कर सके। दिल्ली की बसों में महिलाओं के लिए मुफ़्त यात्रा की पहल इस दिशा में एक सराहनीय कदम माना जा सकता है जो कि शहरों में खासकर के मध्यम और निम्न वर्गीय महिलाओं के सुरक्षित तरीके से यात्रा करने के लिए लक्षित है।