दुनिया के हर कोने में लोग अलग-अलग तरीके से जीवन जीते हैं। इतने धर्म, जबानें, परंपराएं और लाइफ स्टाइल होने के चलते सभी सिर्फ एक चीज चाहते हैं वह है- प्रेम। यूरोप के उस पार लोग कैसे रहते हैं, जवान लड़कियां ऐसी होती हैं, पश्चिमी लोगों में संस्कार नहीं होते, काले ऐसे होते हैं, गोरे ऐसे होते हैं और इसी तरह की न जाने कितनी धारणाओं को तोड़ते हुए अनुराधा बेनीवाल पीठ पर बैगपैक लादे रूस, नार्वे और लुथविया जैसे देशों की सड़कों पर घूमती हैं। वह लोगों का मन टटोलती है जिसमें कहीं उदासी, कहीं खुशी तो कहीं दरियादिली हाथ लगती है। वह देर रात अनजान देश की सड़कों पर अकेली बेखौफ घूमती है।
दो चीजें उन्हें बहुत जल्दी समझ आती हैं पहली यह कि ये दिल्ली की सड़कें नहीं हैं जो लड़कियों के लिए रात में ‘कंफर्टेबल’ नहीं। अगर देश के महानगर की सड़कों पर लड़कियां सुरक्षित नहीं है तो शर्मिंदा लड़कियों को नहीं महानगर को होना चाहिए। दूसरी यह कि पश्चिमी लोग अच्छी जीवनशैली के साथ-साथ संस्कारों के साथ जीते हैं। प्रेम, विश्वास, इंसानियत और मेहमान धर्म ज्यों का त्यों कायम है।
यायावरी-आवारगी की दूसरी कड़ी में आई किताब ‘लोग जो मुझमें रह गए’ में लेखिका ऐसी कई मान्यताओं को तोड़ती है जो हमने दूर बसे लोगों से बिना मिले और उन्हें बिना जाने ही बना ली हैं। वह दुनियाभर के देशों में भटकती हैं लेकिन उनकी लेखनी हमें रास्ता दिखाती चलती है। ऐसा लगता है हम उनके पीछे-पीछे उन देशों की गलियों, बाजारों, चौक-चौराहों पर घूम रहे हैं। अनुराधा मूल रूप से हरियाणा में रोहतक से हैं। वह दुनिया के जिस भी नक्शे पर जाती हैं उनका गांव, गालियां, लोग, बातें, दुख, सुख सब साथ चलता है।
इस किताब को पढ़ना लेखिका की यात्रा में शामिल हो जाना है, जो आजाद पंछी की तरह दुनियाभर के तौर तरीकों, लर्निंग अनलर्निंग को भांप रही है। सिर्फ नक्शे पर देखकर और किताबों में पढ़कर किसी देश के बारे में बहुत कम जाना जा सकता है। इसके लिए वहां के लोगों के साथ रहना पड़ेगा, उनके साथ चाय पीनी पड़ेगी, देश के इतिहास, भूगोल, सही गलत पर बात करनी होगी। लेखिका ठीक ऐसा ही करती हैं।
पोलैंड की सड़कों पर घूमते हुए वह लिखती हैं, “छोटा सा शहर है क्राको, चाहो तो एक दिन में पैदल घूम लो। सब कुछ है यहां, इतिहास भी, कल्चर भी, आर्किटेक्चर भी, बाजार भी, नदी भी, मॉल भी, शांति भी, चहल-पहल भी और औरतों को रात-बेरात बेफिक्री से घूमने की आजादी भी। कितनी छोटी सी बात है लेकिन कितनी ज़रूरी। सब कुछ हो आपके शहर में लेकिन उसे देख सकने की इजाजत न हो, रात की अंधेरी गलियों में डर भरा हो, अपने ही शहर की अपने ही बसों में फब्तियां हो, भीड़ में चिकोटियां हो, अकेले में कुछ अनहोनी हो सकने का भय हो, इंसान पर इंसान को संदेह हो तो उस होने का मतलब क्या है!”
लेखिका ने नार्वे में एक गे कपल और फिनलैंड में एक लेस्बियन कपल से मिली और उनके अनुभव जाने। वहां लोग बेझिझक पसंद-नापसंद साझा कर सेक्सुअल ओरिएंटेशन जाहिर करते हैं और साथ रह सकते हैं, शादी कर सकते हैं। हालांकि स्पेन जैसे देश में धार्मिक लोग इसे कानूनन लागू होने के बाद भी अपनाने को तैयार नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे हम भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों की पहचान को एक जेंडर मानने को तैयार नहीं हैं। समाज इन्हें लाल बत्ती पर खड़े होकर पैसे मांगते, हाईवे के नीचे जिस्म बेचते, बसों ट्रेनों में तालियां बजाते हुए देखकर सहज है लेकिन अपने जैसा बराबर का दर्जा देने, नौकरियों में समानता देने और पास में बैठाने में परहेज करता है। कानून बराबर की मान्यताएं दें तो समाज, धर्म और लोग इसमें अपनी मान्यताओं को बीच में ला देते हैं। यह अपने को ऊपर रखने के साथ दूसरे को नीचा दिखाने से ज्यादा कुछ नहीं।
किताब में आगे लेखिका लिखती हैं, “इस दुनिया में दर्जनों तरह की सेक्स ओरिएंटेशंस हैं, सैकड़ों तरह की पसंद हैं, प्रेफरेंसेज हैं। उनके बारे में बात होनी चाहिए ताकि मान्य से अलग कोई चीज हमें डराए नहीं। जो स्वीकृत है, उससे अलग को हम दुत्कारें नहीं। सेक्स के बारे में बात होनी चाहिए बेडरूम्स के बारे में नहीं”
नार्वे ऐसा देश है जहां का कानून लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीयर, इंटरसेक्स (एलजीबीटीक्यूआई) सबको समान तरह के मान्यता देता है। यहां सभी तरह की सेक्स ओरिएंटेशन के लोग साथ रह सकते हैं, शादी कर सकते हैं, बच्चे गोद ले सकते हैं। जो भी हक एक हेट्रोसेक्सुअल कपल को मिलते हैं एलजीबीटीक्यूआई के हक भी सेम हैं। नॉर्वे का नाम उन चुनिंदा शुरुआत के देशों में लिया जाता है जिसने मैरिज इक्विलिटी यानी सेम सेक्स मैरिज़ के रिश्तों को मान्यताएं है। सेम सेक्स जोड़ों के साथ कोई भेदभाव न हो इसके लिए 1981 में एक कानून भी पास किया गया।
ऐसे ही फिनलैंड में होमोसेक्सुअलिटी को कानूनी दर्जा 1971 में ही मिल गया था लेकिन आपस में शादी करने, बच्चा गोद लेने और एक दूसरे का सरनेम ले सकने का कानून 1 मार्च 2014 को पास हुआ। बेनीवाल का यात्रा वृतांत पढ़ा जाना चाहिए ताकि हमें सनद रहे कि दुनिया घूमने से नई चीजें ही नहीं पता चलती, पुरानी मान्यताएं भी टूटती हैं। ताकि हमें यह आभास हो कि दुनिया इतनी छोटी नहीं है, यहां हर किसी का अपनी पसंद है, जिसका सम्मान होना चाहिए।