समाज गांवों से पलायन करते गरीब डर और विस्थापन में जीने को हैं मजबूर

गांवों से पलायन करते गरीब डर और विस्थापन में जीने को हैं मजबूर

विस्थापन, यह बहुत लोगों के लिए महज़ एक शब्द हो सकता है। इस शब्द का मतलब है अपनी जगह को छोड़कर किसी दूसरी जगह जाने के लिए मजबूर होना। इस पूरी दुनिया में विस्थापितों की एक अलग ही दुनिया है। कुछ लोग एक देश से दूसरे देश में विस्थापित है तो कुछ अपने ही देश में विस्थापित हैं।

विस्थापन, यह बहुत लोगों के लिए महज एक शब्द हो सकता है। इस शब्द का मतलब है अपनी जगह को छोड़कर किसी दूसरी जगह जाने के लिए मजबूर होना। इस पूरी दुनिया में विस्थापितों की एक अलग ही दुनिया है। कुछ लोग एक देश से दूसरे देश में विस्थापित हैं, तो कुछ अपने ही देश में विस्थापित हैं। कारण भले ही अलग-अलग हो लेकिन पलायन कर चुके और विस्थापित परिवारों का दर्द एक जैसा नज़र आता है। घर छूटना और एक स्थायी पते का इंतजार इनके मन में हमेशा बना रहता है। हमारे देश में वंचित और गरीब लोग सबसे ज्यादा विस्थापित हैं। पुश्तैनी काम का बंद होना, रोज़गार की तलाश में अपने गांव और छोटे शहरों से पलायन कर चुके ये लोग बड़े शहरों में आते हैं और फिर अवैध झुग्गियों को हटाने के सरकारी फरमान के बाद फिर से विस्थापित हो जाते हैं।

असंगठित क्षेत्र में काम करते लोगों का विस्थापन

हम आपको बीते साल नवंबर 2022 में भोपाल शहर में हुई एक घटना की बात बता रहे हैं। नवंबर से पहले यहां एक बड़ी बस्ती हुआ करती थी। यह बस्ती ठीक उसी केमिकल फैक्ट्री के सामने थी जहां आज से 38 साल पहले ज़हरीली गैस का रिसाव होने के कारण एक रात में करीब 3000 लोगों की मौत हो गई थी। इसके बाद मौतों का सिलसिला जारी रहा था। बीते 38 सालों में मध्य प्रदेश के अलग-अलग ज़िलों से, छोटे बड़े गाँव से लोग भोपाल में बसते चले गए। इस बस्ती में ज़्यादातर रहनेवाले लोग मज़दूर परिवार रह रहे थे। बस्ती के अधिकतर मर्द सड़क पर डामर डालने और फैलाने का काम करते, औरतें उसी सड़क की साफ-सफाई का।

पुश्तैनी काम का बंद होना, रोज़गार की तलाश में अपने गांव और छोट शहरों से पलायन कर चुके ये लोग बड़े शहरों में आते हैं और फिर अवैध झुग्गियों को हटाने के सरकारी फरमान के बाद फिर से विस्थापित हो जाते हैं।

हालांकि पहले भी जब ये परिवार यहां आए, उस वक़्त भी ये लोग अपनी पुरानी जगह से रोज़गार की तलाश में पलायन कर यहां आए थे। कुछ परिवार यहां ऐसे भी रह रहे थे जो पुराने शहर काज़ी कैम्प, पुतली घर एरिया में 30 साल के दरमियान जब परिवार बढ़े और रहने को घर में जगह तंग हो गई घर खरीदने की गुंजाइश न होने की वजह से भी यहां आकर बस गए। इनमें ज़्यादातर मीरासी यानि शाहनाई वादक और बघ्घी चलाने वाले समुदाय के लोग हैं। ये रेल पटरियों के दोंनो किनारों के फ़ासले से अपनी झुग्गियां बनाकर रह रहे थे। इस जगह को निशातपुरा, अन्नुनगर, करोंद मंडी के पास जैसे अलग-अलग नामों से जानते हैं।

मजदूरी करने के लिए मजबूर लोग

शहनाई और बघ्घी में बारातें दोनों का ही दौर आगे नहीं बढ़ सका तो मीरासी परिवारों की नई पीढ़ी में भी इस काम को सीखने की ख़्वाहिश बाक़ी नहीं रही। वहीं अब इन परिवारों की औरतें बर्तन धोने और आदमी कंडेक्टरी, पुताई करने और मज़दूरी के अन्य कामों से जुड़ गए। जिस कमाई से वे बस रोज़ के खाने-पीने की गुजर बसर कर पा रहे थे। ऐसे में पटरियों के किनारे पर बनी झुग्गियां ही इनका सरमाया था। अब जब रेलवे के विभाग के लोगों को लगता है कि रहवासियों को पटरी के किनारों की जगह छोड़ देनी चाहिए सो वे बार-बार लोगों को चेतावनी देते है।

विस्थापित रह रहे लोगों का डर

सरकार चिट्ठी के ज़रिये कहते है कि ये ज़मीन सरकारी है खाली कर दो। कई बार जब लोगों को ऐसी सरकारी चिट्ठियाँ मिलती हैं तो वे बहुत डर जाते हैं। लोग जानते थे कि रेलवे की ज़मीन पर बनी झुग्गियां तो उन्हें हटानी ही होंगी। वे बार-बार सरकारी दफ्तरों में या फिर कभी रेलवे के दफ्तरों में जा जाकर प्रार्थना करते कि उन्हें उजाड़ा न जाए। या फिर वे हमेशा इसी उम्मीद में रहते कि जब हमें यहां से उजाड़ा जाएगा तो जरूर सरकार हमारी मदद करेगी और कहीं न कहीं हमें वापस झुग्गी बनाने की ज़मीन देगी, या फिर कोई मुआवज़ा मिलेगा जिससे हम अपना आशियाना खरीद सकें। लेकिन फिर 12 नवम्बर का वो दिन आ गया जब लोगों ने बच्चों ने अपने सबसे अजीज़ सामानों को पहले अपनी गोद में भर लिया। खैरुन्निशा अम्मा कह रही थीं उनके लिए चाय के कुल्हड़ और फ़ुकनी, टीन की पेटी और सिगड़ी सभी कुछ अजीज़ था।

रुकसाना अपने तीन बेटों के परिवार के साथ अस्थायी जगह के खुले मैदान में पन्नियों का टेंट बांधकर रह रहीं हैं। वे कहती हैं, “मैं रात भर घूम कर देखती हूं, जो ज़्यादा सिकुड़ कर सोया होता है वहां अपने ओढ़ने के कपड़े ओढ़ा आती हूं।” उनका कहना हैं कि भले ही पहले पहले भी झुग्गी की दीवारें बिल्कुल पक्की नहीं थीं लेकिन उसके अंदर हवा नहीं घुसती थी।

विस्थापन में गरीबी और संघर्ष का जीवन

उजड़े परिवारों के बच्चों में से एक मुस्कान अपने अब्बा के साथ अपने भाई की झुग्गी में रहने आ गई है। बड़े भाई-भाभी की झुग्गी टूटने के बाद वो भी बच्चों समेत यहां आ गए हैं। अब इस छोटी झुग्गी में कुल 16 लोग रहते हैं। मुस्कान को अपनी पुरानी झुग्गी में अब सबसे ज़्यादा जो चीज़ याद है वो है उसके सोने की जगह, जहां वह पैर लम्बे करके सो सकती थी। यहां परिवार के ज्यादा लोगों के बीच ऐसा मुमकिन नहीं हो पाता है। लेकिन मुस्कान अपने चेहरे पर मुस्कान लिए हुए कहती है कि अल्लाह का शुक़्र है भाई ने इस झुग्गी में हम सबको रख लिया नहीं तो हम कहां जाते।

चंद परिवारों को एक स्थानीय विधायक ने मदद की और कुछ लोगों को उनके घर के पास खाली जगह पर अस्थायी झुग्गी बनाकर रहने की मोहलत मिल गई। अब वे परिवार टैंकर से पानी लेकर पीते हैं और मोबाइल टॉयलेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्हीं में से एक फ़िरोज़ा कहती हैं, “कहां रहेंगे, कहां जाएंगे कुछ पता नहीं है। हमें बस उम्मीद है कि सरकार हमें कहीं न कहीं बसा देगी। मुआवज़ा तो ज़रूर देगी।” रुकसाना अपने तीन बेटों के परिवार के साथ अस्थायी जगह के खुले मैदान में पन्नियों का टेंट बांधकर रह रहीं हैं।

मौसम की मार सहते विस्थापित परिवार

वे कहती हैं, “मैं रात भर घूम कर देखती हूँ, जो ज़्यादा सिकुड़ कर सोया होता है वहां अपने ओढ़ने के कपड़े ओढ़ा आती हूँ।” उनका कहना है कि भले ही पहले पहले भी झुग्गी की दीवारें बिल्कुल पक्की नहीं थी लेकिन उसके अंदर हवा नहीं घुसती थी। मौजूदा बिस्तर में गुज़र हो जाती थी। लेकिन इस मैदान में वही बिस्तर ओढ़कर सर्दी नहीं रूकती। रुकसाना कहती हैं, “सर्द रात जब शबाब पर होती है तो यहां सबकी नींद खुल जाती हैं। सब अपनी अपनी रज़ाई कंबल एक-दूसरे को देने को कहते हैं। बच्चे छोटे हैं। उनका ही पहले ख्याल रखते हैं। हम तो जाग के भी गुज़ारा कर लेंगे।”

19 वर्षीय बुशरा एक नई दुल्हन है जिसकी कुछ ही दिन हुई है। बुशरा कहती हैं, “अम्मी ने बहुत तंगी में भी एक-एक रुपये बचाकर मेरे लिए शादी के वक़्त कुछ समान दिया था। शादी में नए कपड़े दिलाए थे। आज वो समान, कपड़े रखने की जगह नहीं है। मेरे लिए ये समान बहुत क़ीमती है लेकिन कहां लेकर जाए समझ में नहीं आता।” सरकारी जमीन, झुग्गियां और गरीबी के बीच घर का सामान, बच्चों के स्कूल, शौचालय की लाइन, पीने का पानी, रुकसाना की कांच के बर्तनों से सजी अलमारी, बुशरा की ससुराल, शहाना की दुकान, अज़ीम भाई का छोटा सा कारोबार सब तहस-नहस हो गया है। पटरियों के किनारे की जगह आबाद और और वहां से उजड़े लोगों का जीवन वीरान है।

उजड़े परिवारों के बच्चों में से एक मुस्कान अपने अब्बा के साथ अपने भाई की झुग्गी में रहने आ गई है। बड़े भाई-भाभी की झुग्गी टूटने के बाद वो भी बच्चों समेत यहां आ गए हैं। अब इस छोटी झुग्गी में कुल 16 लोग रहते हैं। मुस्कान को अपनी पुरानी झुग्गी में अब सबसे ज़्यादा जो चीज़ याद है वो है उसके सोने की जगह जहां वह पैर लम्बे करके सो सकती थी। यहां परिवार के ज्यादा लोगों के बीच ऐसा मुमकिन नहीं हो पाता है।

कहीं भी नहीं है सुरक्षा

रेलवे की जगह खाली हो गई है। शायद कई लोगों को लगे कि रेलवे की ज़मीन से दूर होकर लोग जहां भी रहेंगे, सुरक्षित रहेंगे। लेकिन वे कहां रहेंगे इस असुरक्षा का खौफ़ विस्थापित बच्चों, बुज़ुर्गों, महिलाओं सभी के ज़ेहन में लगातार बना हुआ है। नाज़िया, आईशा, इमरान, दिलशाद और इनकी तरह न जाने कितने बच्चे यहीं पैदा हुए और बड़े हुए। वे नहीं जानते कि आगे वे कहां जाएंगे, उनका पता क्या होगा। घर से जुड़ी कितनी यादें साथ रहेंगी और आगे वे किस मकान को ‘घर’ कह पाएंगे। जैनब कहती हैं, “अपने नज़रों के सामने अपने घर को टूटते देखना शायद वह कभी नहीं भूल पाएंगे।” घर की याद को लेकर नफीसा कहती हैं, “मैं जबसे यहां ब्याह कर आई थी तबसे लकड़ी के फर्रों पर मिट्टी लगाती रही कि दीवारों से लकड़ी के फर्रे बंद हो जाएं।”

घर की ज़रूरत किसी इंसान की पहली ज़रूरतों में से एक है। लेकिन इतनी विकसित और आधुनिक होती दुनिया में आज भी महज एक झुग्गी और पुनर्वास के लिए तरसते हुए करोड़ों लोग इस दुनिया और देश में मौजूद हैं। हमारे भोपाल शहर में भी मौजूद हैं और इसी तरह देश के हर छोटे-बड़े शहरों में लोग है जो पहले गांव या छोटे शहर में रोजगार के नाम पर विस्थापित होते है और उसके बाद सरकारी जमीन पर अवैध झुग्गी के टूटने के बाद विस्थापित होते हैं।


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