अमेरिकी लेखिका और नारीवादी नागरिक अधिकार कार्यकर्ता ऑड्रे लॉर्डे ने दूसरी बार कैंसर से पीड़ित होने के बाद, अपनी 1988 की किताब, ‘ए बर्स्ट ऑफ लाइट’ में कहा था कि खुद की देखभाल करना आत्म-भोग नहीं है। यह आत्म-संरक्षण है और यह राजनीतिक युद्ध के जैसा है। आम धारणा के उलट, सेल्फ केयर का विचार अमेरिका में 1950 के दशक से चला आ रहा है। लॉर्डे का सेल्फ केयर को इस तरह परिभाषित करना, हमें सेल्फ केयर को मुख्यधारा में दिखाए जाने वाले रूप से अलग हटकर इसकी कट्टरपंथी जड़ों और महत्व को समझाता है। आज भले उपभोक्तावाद और कंपनियों के प्रतिस्पर्धा के बीच आम जनता के लिए इसे समझना आसान न हो। लेकिन नारीवादी अर्थ में सेल्फ केयर या आत्म-देखभाल महिलाओं की मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक भलाई की रक्षा, संरक्षण और अधिकार के बारे में है, जहां समाज महिलाओं और हाशिये पर रहे समुदायों के काम को उचित सम्मान, पारिश्रमिक या पहचान नहीं देती है।
क्या है सेल्फ केयर का मतलब
कई बार सेल्फ केयर किसी महंगी जगह पर जाना नहीं, सिर्फ खुद को समय देना या किसी निश्चित जगह से बाहर निकलना भी हो सकता है। महिलाओं और हाशिये पर रह रहे समुदायों के लिए बहुत साधारण दिखने वाला यह काम साहसी और मुश्किल भरा काम हो सकता है। सेल्फ केयर अमूमन यह स्वीकार करने से शुरू होती है कि हमारी अपनी निजी ज़रूरतें हैं। हमें इन ज़रूरतों को उतना ही महत्वपूर्ण समझना होगा जितना कि कोई भी अन्य काम। समाज के सबसे आखिरी पायदान पर खड़ी महिलाओं और अन्य समुदायों को यह समझना होगा कि सेल्फ केयर से जुड़ी ज़रूरतें पूरी होने लायक हैं और इसकी मांग करना गलत नहीं। सेल्फ केयर या आत्म-देखभाल कभी-कभी खराब परिस्थिति से निकलने या उससे दूर रहने की कोशिश, भावनात्मक और मानसिक उतार-चढ़ाव को स्वीकार करना और खुदको संभालने के लिए आवश्यक समय और स्थान खोजना हो सकता है। सेल्फ केयर का मतलब सिर्फ भौतिक चीजें खरीदना नहीं है। यह अपना और दूसरों का ख्याल रखने से हो सकता है। जो करने में आपका मन लगता है, वह करना और उसके लिए समय निकालना हो सकता है। यह खाना बनाने से लेकर अपने पार्टनर या प्रियजन के साथ समय बिताना, अकेले बैठने से लेकर हंसना तक हो सकता है।
सेल्फ केयर क्यों सामाजिक और राजनीतिक है
एक ऐसे समाज में जहां महिलाओं और हाशिये पर रह रहे समुदायों के साथ भेदभाव भी उनके जाति, वर्ग, यौनिकता, शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति के आधार पर होती है, वहाँ इन समूहों के लिए आत्म-देखभाल विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जिन्हें लिंग, जाति, वर्ग, यौनिकता आदि के आधार पर भेदभाव करने वाले सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक प्रणालियों में काम करना पड़ता है। हालांकि कई बार खुद के बारे में सोचना या समय निकालना तब तक पूरी तरह संभव नहीं, जब तक कि हमारे आस-पास समुदाय हमारी मदद न करे। हमारे घरों में काम करने वाली घरेलू कामगार अक्सर हमें बताती है कि वह सुबह काम पर जाने से पहले घर के काम निपटाती है। फिर घर पहुँचकर भी उन्हें खास आराम नहीं मिलता। ऐसे में सेल्फ केयर की बात नामुमकिन हो सकती है। कई बार इन शोषण करने वाले प्रणालियों को नष्ट करने के लिए हमें खुद को सामान्य जीवन और खुशी महसूस करने की इजाज़त देने की आवश्यकता होती है। इस तरह हम अनावश्यक दुख और संघर्ष से न सिर्फ बच सकते हैं बल्कि उनके प्रति सचेत होंगे। हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए, बुनियादी जरूरत भी एक जीवन रेखा हो सकती है, जिस तक उनकी पहुँच न हो।
सेल्फ केयर और समाज से खुद की लड़ाई
खुद की देखभाल करना 1960 के दशक में लोकप्रिय हुआ और नागरिक अधिकार आंदोलनों के भीतर एक शक्तिशाली विचार बन गया। खासकर तब जब यह ब्लैक पैंथर पार्टी के हाशिए पर रहने वाले समुदायों की स्वतंत्रता और मुक्ति के लिए लंबी लड़ाई में खुद को बनाए रखने के लिए; एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया था। यह उनके भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक जरूरी कदम था। हालांकि भारत में भी सेल्फ केयर की जड़ें मौजूद थी, पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में सेल्फ केयर मूलतः विशेषाधिकार प्राप्त लोगों तक सीमित रहा है जिसे आज भी एक अत्याधुनिक और वेस्टर्न संस्कृति माना जाता है। साथ ही, यह हर व्यक्ति के लिए समान नहीं है। एक ऐसे समाज में जहां महिलाएं और हाशिये पर रहने वाले समुदाय अपने समकक्षों की तुलना में आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं, समाज में अधिकार नहीं और घरेलू कामों में ज्यादा समय बिताते हो, वहाँ उनके सेल्फ केयर की बात बेतुकी और गैर ज़रूरी लगने लगती है।
पुरुषों के घर पहुँचने से पहले ही महिलाएं अपने-अपने बच्चे, चूल्हे और खुदको समेट कर घरों में दुबक जाती थीं। खुद के लिए समय निकालने के नाम पर जब महिलाओं को झांसा मिलता है, तब यह संभव नहीं कि ये महिलाएं खुद के सेल्फ केयर के लिए समय निकाले। शहरी महिलाओं के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक अंतर के कारण भले यह थोड़ा आसान हो, गांवों की महिलाओं का अपने समय पर आज भी खास अधिकार नहीं है।
सेल्फ केयर और महिलाओं का संबंध
वैज्ञानिक पुस्तकें और पत्रिकाएँ प्रकाशित करने वाली वेबसाईट स्प्रिंगरलिंक में भारत और नेपाल के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के बीच सेल्फ-केयर पर एक शोध प्रकाशित किया गया। इस शोध के मुताबिक सेल्फ केयर में उम्र, लिंग, जाति, सरकारी या विशेष परियोजना सेवाओं तक पहुंच, बीमारी के प्रकार और बीमारी की अवधि और गंभीरता के आधार पर अंतर दिखाई पड़ती है। यह स्पष्ट है कि सेल्फ केयर का मतलब भोग करना नहीं बल्कि एक आवश्यकता है। सेल्फ केयर का मतलब जीवित रहने के साधन के रूप में समय, स्थान और खुद को दोबारा पाना है। यह सीमाएँ निर्धारित करने, ना कहने, उन चीज़ों को महत्व देने के बारे में है जो हमारे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य में सुधार करती हैं और उन चीज़ों को करने के लिए अलग समय देने के बारे में है। यह खुद को जीवन के सभी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रखने और सत्ता को अपने हाथों में वापस देने के बारे में है। लेकिन, जहां औरतों और पुरुषों के मामले में सामाजिक संरचना और अवधारनाओं में बुनियादी अंतर हो, और रूढ़िवादी सोच दिखाई पड़ती हो, वहाँ पुरुषों को अपना समय निकालने की भले आज़ादी हो, महिलाओं से आज भी यह उम्मीद नहीं होती।
सेल्फ केयर के लिए समय की मांग
वैश्विक स्तर पर महिलाएँ 76 फीसद अवैतनिक देखभाल के कामों को करती हैं, जो पुरुषों की तुलना में तीन गुना है। महिलाओं के पास संसाधनों तक पहुंच और नियंत्रण भी कम है। साथ ही सत्ता पर बने रहने के अवसर और अपने जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णयों पर नियंत्रण के अवसर या तो है ही नहीं या कम हैं। ऐसे में खुद के लिए समय निकालना चुनौतीपूर्ण होता है। साथ ही, सेल्फ केयर स्वायत्तता के बारे में है। यह हमें सिखाता है कि हमारे लिए कौन से काम सबसे मजेदार, कारगर या अच्छे लग सकते हैं। यह रोजमर्रा के जीवन में हर दिन महिलाओं के लिए मौजूद रूढ़िवादी मानदंडों और पितृसत्तातमक अपेक्षाओं को चुनौती देना है। महिलाओं के लिए समाज की पहले से निर्धारित भूमिकाओं और पूंजीवाद के दबाव से दूर जाकर, अपनी जरूरतों को पहचानना और परिभाषित करना और उन्हें पूरा करना है।
क्या गांवों में है सेल्फ केयर
मुझे याद है गाँव में बड़े होते हुए, शाम को खेलते बच्चे अपनी माँओं को सिर्फ शाम को उस वक्त खाली बैठे देखते थे, जब वे घरों के सामने चूल्हे पर ताव (आग जलाने की प्रक्रिया) दिया करती थीं। लेकिन औरतों के बीच बातचीत का विषय परिवार और बच्चे ही होते थे। अधिकतर पुरुष वहाँ के रेल के कारखाने में काम करते थे और इसलिए उनके घर आने का एक निश्चित समय होता था। पुरुषों के घर पहुँचने से पहले ही महिलाएं अपने-अपने बच्चे, चूल्हे और खुदको समेट कर घरों में दुबक जाती थीं। खुद के लिए समय निकालने के नाम पर जब महिलाओं को झांसा मिलता है, तब यह संभव नहीं कि ये महिलाएं खुद के सेल्फ केयर के लिए समय निकाले। शहरी महिलाओं के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक अंतर के कारण भले यह थोड़ा आसान हो, गांवों की महिलाओं का अपने समय पर आज भी खास अधिकार नहीं है।
सेल्फ केयर से हो सकता है स्वास्थ्य लाभ
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार सेल्फ केयर व्यक्तियों, परिवारों और समुदायों की स्वास्थ्य को बढ़ावा देने, बीमारी को रोकने, स्वास्थ्य को बनाए रखने और स्वास्थ्य देखभाल करने वाले के समर्थन के साथ या उसके बिना बीमारी और विकलांगता से निपटने की क्षमता के रूप में बताया जा सकता है। अमूमन ट्रांस या समलैंगिक व्यक्ति जब खुद के लिए समय निकलते हैं, या अपने पसंदीदा काम करते हैं, तो उन्हें उनके उस ‘पसंद’ के कारण जेंडर या यौनिकता का हवाला देते हुए हीन समझा जाता है। अमूमन ये समुदाय हाशिये पर जी रहे होते हैं, जहां ये पहले से ही हिंसा और भेदभाव का शिकार होते हैं। जीने के लिए भागदौड़, आर्थिक तंगी और खुदके ‘पहचान’ के जद्दोजहद के बीच सेल्फ केयर जैसी अवधारणा भले जरूरी हो, कई बार वास्तव में संभव नहीं हो पाता। इसी तरह एक दलित या बहुजन परिवार के किसी सदस्य के लिए सेल्फ केयर जैसी किसी चीज़ की अवधारणा करना भी मुश्किल है।
अमूमन, चरण गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसे कारक खुद को अहमियत देने नहीं देती। अक्सर ऐसे परिवारों में नौकरी या पढ़ाई भी परिवार को गरीबी से बचाने के उद्देश्य से करवाया जाता है। मौजूदा पितृसत्तातमक व्यवस्था में खुद के लिए समय निकालना, सोशल कन्डिशनिंग और रूढ़िवादी व्यवस्था के खिलाफ जवाबी लड़ाई का एक रूप है, जो महिलाओं और इन समुदायों के लिए व्यक्तिगत रूप में मायने रखता है। यह बताता है कि हम भी देखभाल के योग्य हैं और एक सशक्त समुदाय के गैर मौजूदगी में और भी जरूरी हो जाता है।