एक शब्द है ‘अनुसंधान या शोध’ जिसे अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं। वक्त बेवक्त शिक्षा के क्षेत्र में हम इस शब्द से वाक़िफ होते रहते हैं। हम अपने आस-पास तमाम रिसर्च स्कॉलर्स को भी जानते हैं। लेकिन हमें यह सोचने की ज़रूरत है कि अनुसंधान की ज़रूरत और महत्व क्या है? कैम्ब्रिज इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार, शोध किसी विषय का विस्तृत अध्ययन है, विशेष रूप से नई जानकारी खोजने या नई समझ तक पहुंचने के लिए। बिल्कुल ही आम बोली में समझें तो नए ज्ञान का खोज ही शोध है और इसे खोजने वाले को हम शोधार्थी कहते हैं। एक शोधार्थी का शोध विषय क्या होगा यह बहुत सी सामाजिक कारकों पर और उसकी पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है। मसलन शोधार्थी का जेंडर क्या है, वह किस वर्ग, जाति, धर्म, संप्रदाय से आता है, उसकी शिक्षा किस क्षेत्र में हुई है आदि।
जब हम शिक्षा के क्षेत्र की बात करते हैं, तो उसे मोटे-मोटे तौर पर दो भागों में बांटते हैं। विज्ञान और गैर विज्ञान। गैर विज्ञान में सोशल साइंस यानी सामाजिक विज्ञान भी आता है। सामाजिक विज्ञान में शोध क्यों जरूरी हैं? सीमित शब्दों में इसे ऐसे समझ सकते हैं कि एक समाज की संरचना, उसकी संस्थाएं, थिओरी आदि में समय के साथ आते बदलावों का निरीक्षण, इसी दिशा में नई ज्ञानवर्धक खोज के लिए सामाजिक विज्ञान में शोध की आवश्कता होती है। चूंकि यहां बात सामाजिक क्षेत्र की है, इसीलिए इसका समावेशी होना बहुत जरूरी है। यह समावेशीपन आता है हर तरह के विषयों को और हर पहचान के व्यक्ति को शामिल करने से। लेकिन आंकड़े इस पूरे दृश्य को एक तरफा बना रहे हैं। यूनेस्को के आंकड़ों से पता चलता है कि दुनिया के 30 फीसद से कम शोधकर्ता महिलाएं हैं। वहीं दक्षिण और पश्चिम एशिया में केवल 18.5 फीसद ही महिलाएं शोधकर्ता हैं।
सामाजिक विज्ञान में महिलाओं की मौजूदगी क्यों है ज़रूरी
स्टेम यानि (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, मैथमेटिक्स) में महिलाएं बतौर शोधार्थी कितनी प्रतिशत में हैं इसके कुछ आंकड़े हमारे पास मौजूद हैं। लेकिन सामाजिक विज्ञान शोध के मामले में हमारे पास कोई निश्चित प्रतिशत मौजूद नहीं है। वैश्विक स्तर पर भी इसे मापने का कोई व्यवस्थित तरीका अभी तक अस्तित्व में नहीं है। जब वैश्विक स्तर पर ही महिला शोधकर्ता इतनी कम हैं तो यह कहना गलत नहीं होगा कि सामाजिक विज्ञान में महिला शोधकर्ताओं का वर्तमान प्रतिशत दर बहुत बेहतर तो नहीं है। जिस क्षेत्र के पर्याप्त आंकड़े हमारे पास मौजूद नहीं है उसके बारे में बात करना और भी जरूरी हो जाता है। आंकड़े बेशक मौजूद न हों, लेकिन अवलोकन तो मौजूद है ही। सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की गैर मौजूदगी चिंता का विषय होना चाहिए। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि महिलाओं के मुद्दे महिलाओं द्वारा शोध में बेहतर तरीके से मूल्यांकित किए जाएंगे, बल्कि हर मुद्दे को नारीवादी नजरिए से सोचने, समझने और विकसित करने की भी बात है।
सामाजिक विज्ञान के अनुसंधान में जेन्डर की भूमिका
जेंडर कैसे सामाजिक वैज्ञानिकों के लिए अनुसंधान और पेशेवर जीवन को अधिक व्यापक रूप से प्रभावित करता है, इस पर शोध का पता लगाने के लिए आईएसएसआर प्रयोगशाला में फरवरी 2019 को एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम में चार पैनलिस्ट शामिल थे। जोया मिश्रा (समाजशास्त्र के प्रोफेसर, यूमैस एमहर्स्ट), माला हटन (राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर, न्यू मैक्सिको विश्वविद्यालय) सारा जैकबसन (एसोसिएट प्रोफेसर, अर्थशास्त्र विभाग, विलियम्स कॉलेज), और लॉरेल स्मिथ-डोएर (समाजशास्त्र के प्रोफेसर और निदेशक, आईएसएसआर, यूमैस एमहर्स्ट)। पैनलिस्ट्स ने अपनी बात के दौरान यह स्पष्ट किया कि हम जो पढ़ते हैं, उसके तरीके को जेंडर काफी प्रभावशाली तरीके से प्रभावित करता है। इसके अलावा, पेशेवर मानदंड, पदोन्नति पैटर्न, शिक्षक के रूप में हमारा मूल्यांकन कैसे किया जाता है, शैक्षणिक सहयोग कैसे होता है, उद्धरण पैटर्न कैसे काम करती है, किसे पदोन्नत किया जाता है, कौन क्या पढ़ता है, कौन कहां आमंत्रित किया जाता है, किसे कैसे सलाह दी जाती है, और भी बहुत सारे क्षेत्रों में जेन्डर की अहम भूमिका है।
सामाजिक विज्ञान का क्षेत्र समावेशी क्यों होना चाहिए
क्या इस बात पर मुख्यधारा में चर्चा नहीं होनी चाहिए कि जेंडर आधारित पहचान सामाजिक विज्ञान के अनुसंधान को कितनी और किस तरह प्रभावित करती है। कैसा होता अगर इस शोध प्रक्रिया में महिलाएं न के बराबर होती हैं या होती ही नहीं? विषय क्षेत्र में जब महिलाएं नहीं होती हैं तब उस विषय में से भिन्नता मर जाती है। इसे यूं समझिए कि शोध विषयों पर सिर्फ एक ही तरीके के काम किया जाता है, जिससे खुद शोध क्षेत्र समावेशी नहीं हो पाता है। एक ही तरह के विषयों पर शोध होने के क्या कुछ खतरे हैं? समाज में विभिन्न पहचान अपनाते लोग रहते हैं। ऐसे में महिलाएं जो तकरीबन आबादी का आधा हिस्सा हैं, उनसे संबंधित मुद्दों पर खोज नहीं की जाएगी, तो क्या किसी भी समाज के लिए सिर्फ पुरुषों के बूते विकास करना संभव है? वहीं जब महिलाएं शोध क्षेत्र से गायब होती हैं तब हर मुद्दा चाहे वह सामाजिक न्याय का मुद्दा हो, ह्यूमन वेल बीइंग, स्टेट थियरीज जैसे मुद्दे हो सभी पर अलग नजरिया पैदा होना संभव नहीं होगा। इससे ज्ञान के खोज में बाधा उत्पन्न होती है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया के खबर मुताबिक भारत में मात्र चौदह प्रतिशत शोधकर्ता महिलाएं हैं।
महिला रोल मॉडल्स का होना जरूरी
समाज में रोल मॉडल्स का होना महत्वपूर्ण होता है क्योंकि ये बाकी लोगों को अलग-अलग क्षेत्रों में जाने को प्रभावित करते हैं। शोधकर्ता महिलाएं बतौर रोल मॉडल समाज में स्थापित ही नहीं होंगी तो बाकी महिलाएं इस क्षेत्र में आने से भी संकोच करेंगी। आंकड़ों और तथ्यों पर जाएं तो ऐसा होता भी है। इसी कारण संख्या इतनी कम है। हालांकि इस संकोच में और भी वजहें शामिल हैं, जैसे मास्टर्स के बाद ही लड़कियों की शादी हो जाना, घरवालों का सहयोग न मिलना, लड़कियों की पढ़ाई के लिए खर्च न करना आदि। चूंकि अनुसंधान एक लंबी प्रक्रिया है, ये सभी कारण कहीं न कहीं महिलाओं को शोध के क्षेत्र में आने से रोकते हैं। सामाजिक विज्ञान के शोध समाज में आते बदलाव, प्रक्रिया, आंदोलनों की व्याख्या करते हैं और आगे के लिए प्रगतिशील मार्ग का निर्माण करते हैं। जब सिर्फ़ पुरुष ही ऐसे बदलावों का मूल्यांकन करते हैं, उस पर विस्तृत खोज करते हैं, तब कई तरह के पूर्वाग्रह शोध को प्रभावित करते हैं। मसलन पुरूष शोधार्थी कोई एक्सपेरिमेंट करना चाहें तो बहुत हद तक संभव है कि वे प्रतिभागियों के रूप में भी पुरुषों को ही चुनेंगे। अगर वे महिला संबंधी विषय जैसे नारीवारी आंदोलन का मूल्यांकन करेंगे तो संभव है कि वे इसकी महत्ता को नकारते हुए अपनी सोच को प्राथमिकता दें।
शोध में महिलाओं के होने का लाभ
महिलाएं किसी शोध का हिस्सा बनें तो उसे कैसे अलग नजरिया दे सकती हैं इसे एक केस स्टडी के माध्यम से समझते हैं। 1930 के दशक में हावर्ड विश्विद्यालय की साइकोलॉजी मास्टर्स की छात्रा मेमी फिप्प्स क्लार्क ने स्कूली बच्चों के बीच स्कूल संदर्भ और नस्लीय आत्म अवधारणा के बीच के रिश्ते को समझने के लिए एक एक्सपेरिमेंट किया। बच्चों को पहले श्वेत और अश्वेत तस्वीरें दिखाई गई और फिर श्वेत और अश्वेत गुड़िया। इस प्रक्रिया का इस्तेमाल उन्होंने अरकंसास और न्यू यॉर्क के तीन तरह के स्कूल में किया। वे स्कूल जिसमें अश्वेत बच्चे और अश्वेत अध्यापक थे, दूसरा अधिकांशतः अश्वेत बच्चे और श्वेत अध्यापक और तीसरा स्कूल था जहां श्वेत और अश्वेत दोनों बच्चे लेकिन अध्यापक श्वेत थे। फिप्पस ने यह पाया कि सामान्यतः तीनों केस में अश्वेत बच्चों ने अश्वेत गुड़ियां को बुरा और श्वेत गुड़ियां को अच्छा मूल्यांकित किया था। यह प्रवृत्ति सबसे अधिक उस स्कूल में पाया गया जहां अश्वेत बच्चे और श्वेत अध्यापक थे। बाद में यह एक्सपेरिमेंट छापा गया और इसका इस्तेमाल अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में बोर्ड ऑफ़ एजुकेशन 1956 केस में इस व्याख्या के लिए किया गया कि बच्चों को बांटकर पढ़ाना श्वेत और अश्वेत बच्चों के लिए अच्छा नहीं है। महिला शोधकर्ता शोध के क्षेत्र को व्यापक बनाती हैं। इसीलिए सामाजिक मुद्दों के शोध में उनकी भूमिका एक समावेशी, बहुआयामी ज्ञान के खोज के लिए अहम है।