लखनऊ की चिकनकारी, बिहार की मधुबनी, तमिलनाडु की लकड़ी से बनी मूर्तियां, भील चित्रकारी या मीनाकारी आदि हस्तशिल्प कला भारत में कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा उद्योग है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था में सहयोगी है। इस उद्योग में सात मिलियन से ज़्यादा लोग कार्यरत हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार केंद्र के अनुसार, वैश्विक हस्तशिल्प कार्यबल में 70 फीसद महिलाएं हैं। वहीं भारत और बांग्लादेश जैसे कुछ देशों में, महिलाएं हस्तशिल्प कार्यबल का 80 फीसद से अधिक हिस्सा बनाती हैं। यह महिलाएं मुख्य रूप से शिल्प उत्पादन प्रक्रियाओं के विभिन्न चरणों में भाग लेती हैं। भारतीय संस्कृति में जाति और जेंडर से आधार पर काम निर्धारित होते रहे हैं। आज की तस्वीर बदली ज़रूर है। लेकिन फिर भी उस काम में कौन लोग ज़्यादा हैं, इस तथ्य का सबूत है कि अभी बहुत कुछ बदला जाना है।
हस्तशिल्प में महिलाओं की समस्याएं
हस्तकला के इस उद्योग में अधिक महिलाओं की प्रतिभागिता के मायने क्या हैं? किस तबके से आ रही हैं ये महिलाएं? इनके हिस्से का श्रेय कौन ले रहा है? इस रोगजर में ये किन परेशानियों से जूझती हैं? इन बातों पर विचार करना जरूरी है। इस उद्योग में कामगार महिलाओं का भविष्य कैसा है? महिलाओं के अधिक संख्या में काम करने के बावजूद, आज भी कई बाधाएं हैं जो उन्हें व्यवसाय में वह स्थान और उद्यमी बनने से रोक रही हैं जिसकी वे हकदार हैं। संसाधनों तक पहुंच, उचित शिक्षा, आय और सुरक्षा के स्रोत के रूप में अपनी कला का लाभ उठाने के प्रशिक्षण की कमी के कारण, वे मजदूरों के रूप में आज भी संघर्ष कर रही हैं। साथ ही लैंगिक असमानताओं और सांस्कृतिक बाधाओं को भी वे लगातार सामना करती हैं।
बुनियादी सुविधाओं की कमी
हस्तशिल्प उद्योग अनौपचारिक क्षेत्र है यानि यहां तय नौकरी, तय वेतन, स्वास्थ्य सुरक्षा आदि की सुविधाएं नहीं होती हैं। यह अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र का काम है। यह हस्तशिल्पकार दो तरह के होते हैं। एक वे जो अपनी जगह पर रहकर खुद से अपना काम करते हैं और दूसरे वे जो अन्य व्यसायों में दूसरों के पास बतौर कारीगर काम करते हैं। महिलाएं इस पेशे में इसीलिए लगती हैं कि एक तो ये घरेलू काम हो जाता है। उन्हें घर से ज्यादा दूर नहीं जाना होता है। यह पितृसत्तात्मक समाज में किसी महिला का सबसे अच्छा निर्णय है कि वह कमाए भी और घर से दूर भी न हो, सभी की देख-रेख भी करे। चूंकि इस क्षेत्र में अमूमन महिलाएं ही काम करती हैं, इनके रोजगार से जुड़ी समस्याओं की बात मुख्यधारा में नहीं होती। इस पेशे में रहते हुए महिलाएं किन समस्याओं का सामना करती हैं यह जानना जरूरी है। हस्तशिल्प बनाने की प्रक्रिया बेहद वक्त लेती है लेकिन वे जो कमाई करती हैं या वेतन जो मिलता है, उसमें से समय की कीमत गायब होती है। काम कैसा भी हो, एक ठीक-ठाक जगह जिसमें कुछ सुविधाएं हों मसलन फर्स्ट ऐड, साफ-सुथरा बाथरूम, स्वच्छता उत्पाद की सुविधाएं जैसे सैनिटरी नैपकिन आदि होने ही चाहिए।
टेक्नॉलजी और सही वेतन की कमी
लेकिन यह हस्तशिल्प कामगार महिलाएं बेहतर आधारभूत ढांचे की अनुपस्थिति में काम करती हैं। वैश्वीकरण के दौर ने टेक्नोलॉजी से लोगों का परिचय कराया है। लेकिन हस्तशिल्प में अभी भी कारीगरों के पास टेक्नोलॉजी नहीं पहुंची है। इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि हस्तशिल्प मशीनी हो जाए, बल्कि इसका मतलब उनके काम को आसान बनाने से है। जैसे, राजस्थान की लाख की चूड़ियां बनाने में गरम लाख को हाथों से आकर देना होता है। अगर कोई ऐसी टेक्नोलॉजी उन तक पहुंचे जो बस गर्म लाख से हाथ की छुअन को बचाए, जिससे चूड़ियां भी हस्तशिल्प के अंतर्गत हो और कारीगर की परेशानी भी दूर होगी। ग्रामीण परिवेश में महिलाओं को पढ़ाने के चलन में अंतर होता है। ऐसे में जब वे कारीगरी में आती हैं तब उनकी शिक्षा को एकदम ही दर किनार कर दिया जाता है।
उनका शिक्षित न होना उनके काम के बीच समस्या है। आज का दौर इंटरनेट का दौर है। सोशल मीडिया से लोगों तक पहुंचने का दौर है। उनका शिक्षित न होना उन्हें सोशल मीडिया के फायदे लेने से दूर करता है। ऐसे में वे आम जनता यानि खरीददारों तक अपने सामान के साथ सीधा नहीं पहुंच सकती जिससे ज़्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है। अशिक्षित होने की वजह से वे इसके लिए बिचौलिए पर निर्भर रहती हैं जो उनका सामान शहरों, बड़े सेठों तक ले जाते हैं। ऐसे में उन तक जो कमाई आती है वह कम होती है जबकि श्रम के हिसाब से उनकी कमाई सबसे ज्यादा होनी चाहिए।
समय के साथ क्या जरूरी है बदलाव
यहां एक समस्या और उत्पन्न होती है वह है समय के साथ हस्तशिल्प में बदलाव। यानि वे जो हस्तशिल्प बना रही हैं वह लोगों की पसंद अनुसार हो। इसके लिए ज़रूरी है कि वह आसपास के बदलावों से वाकिफ हों। लेकिन वे कई कारणों से ऐसा नहीं कर पाती हैं। दूसरा काम को चलाए रखने के लिए फंडिंग भी इन्हें हमेशा उपलब्ध नहीं होती है। बिना फंडिंग समानों में अच्छा निवेश नहीं हो पाता और खराब क्वालिटी की वजह से भी बहुत बार ग्राहक ये सामान नहीं लेते हैं। सरकार जब स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया जैसे कार्यक्रम ला रही है, तब यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी है कि ऐसे हस्तशिल्प कलाकारों तक फंडिंग, ट्रेनिंग, बढ़िया संरचनात्मक ढांचे पहुंचे। महिला शिल्पकारों, कारीगरों को कमतर आंका गया है। नीति निर्माण करने वाले लोगों ने, आर्थिक सलाहकारों ने, यहां तक कि लोकल नौकरशाही ने भी हस्तशिल्प केंद्रित नीतियां या तो बनाई ही नहीं हैं या बहुत कम बनाई हैं। ये शिल्पकारों तक पहुंची नहीं हैं। बिचौलिए और सेठों तक सीमित रह गई हैं।
उनके योगदान को मिले उचित पहचान
आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के अनुसार महिला उद्यमिता का दो मुख्य कारणों से अलग से अध्ययन करने की जरूरत है। पहला कारण यह है कि पिछले दशक के दौरान महिला उद्यमिता को आर्थिक विकास के एक महत्वपूर्ण उपयुक्त स्रोत के रूप में मान्यता दी गई है। महिला उद्यमी अपने और दूसरों के लिए नई नौकरियाँ पैदा करती हैं। कई अर्थों में संगठन और व्यावसायिक समस्याओं के अलग-अलग समाधान भी प्रदान करती हैं। हालांकि वे अभी भी सभी उद्यमियों में अल्पसंख्यक हैं। इसलिए न सिर्फ उनके बतौर महिला उद्यमी बनने की आशंका पर सवाल है बल्कि सफल उद्यमी बनना भी चुनौतीपूर्ण है क्योंकि बाजार आज भी भेदभाव से भरा है। इस बाज़ार विफलता को नीति निर्माताओं द्वारा संबोधित करने की आवश्यकता है ताकि इस समूह की आर्थिक क्षमता का पूरा उपयोग किया जा सके। हालांकि यह स्पष्ट है कि महिलाओं का हस्तशिल्प के माध्यम से ही सही पर अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान है। पर अभी भी हम उन विशिष्ट योगदान और उसके प्रभाव का विस्तार से वर्णन नहीं कर पाए हैं।
महिला उद्यमियों के विकास के लिए हो काम
कई अध्ययनों में महिला उद्यमिता की आवश्यकता और उनके कार्यों, उन्हें प्रभावित करने वाले कारकों और उनके सामने आने वाली समस्याओं पर चर्चा की गई है। महिलाओं के लिए अलग औद्योगिक संपदा की स्थापना, विशेष रूप से महिला उद्यमियों के लिए एक औद्योगिक विकास बैंक और उन्हें प्रबंधन प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए तर्क दिया है। मौजूदा सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम जैसे वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट, अंबेडकर हस्तशिल्प विकास योजना, एक्सपोर्ट प्रोमोशन काउंसिल फॉर हैंडीक्राफ्ट्स आदि लिए हैं। लेकिन क्या ये नीतियां ज़मीनी स्तर के हस्तशिल्प कारीगरों तक पहुँच रही है या पहुंचेंगी? उन तक पहुंचने के लिए उनका शिक्षित होना ज़रूरी है, जो कि वे हैं नहीं। ऐसे में वॉलंटियर कार्यक्रम एक ज़रूरी कदम हो सकता है। कई विशेषज्ञों के अनुसार वैश्वीकरण ने भी महिलाओं के सामने कई चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं।
महिलाओं को मिले प्रशिक्षण और जानकारी
सफल होने के लिए, महिलाओं को अपना व्यावसायिक और तकनीकी ज्ञान और जानकारी विकसित करनी होगी। छोटे समूह के गठन से महिलाओं को अपनी समस्याओं पर चर्चा करने, जानकारी साझा करने और अपने समाज में उद्यमशीलता संस्कृति को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी। उद्यमशीलता पर ज़ोर देते हुए यह भी ख्याल रखा जाए कि असल शिल्पकारों के हक की पहचान विशेषाधिकार प्राप्त ‘उद्यमी’ ना खाएं। उसके लिए भी नीतियां लाई जाएं तो बेहतर होगा। वरना होता यह है कि जो कारीगर दिन-रात मेहनत से हस्तशिल्प तैयार करते हैं, उनके बजाय उनके ‘मालिक’ सारा श्रेय और पुरस्कार उड़ा ले जाते हैं। जो कारीगर काम कर रहा है अगर उसके काम के लिए उसे सराहना नहीं मिलेगी, तो उसकी आने वाली पीढ़ी या बाकी लोग उस कला को क्यों सीखेंगे। महिलाओं के लिए तो यह खासकर ज़रूरी है कि उन्हें श्रेय दिया जाए वरना परिवार, समाज उनके काम को न तो जरूरी समझते हैं और न ही श्रेय योग्य।
महिला कारीगरों का सशक्तिकरण है जरूरी
हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं, तो उसमें सिर्फ़ अध्यापक, इंजीनियर, डॉक्टर आदि पेशों तक सीमित करते हैं जबकि इसमें कारीगरों, शिल्पकारों को भूल जाते हैं। महिला सशक्तिकरण उन्हें एक आदर्श परिवार, समाज और राष्ट्र के निर्माण में नई चुनौतियों का सामना करने के लिए और अधिक मजबूत और तैयार करेगा। महिला समाज की निर्माता है और महिला सशक्तिकरण ही मानव सशक्तिकरण है। जी 20 समिट के दौरान जो भी विदेशी नेता भारत में मौजूद थे, उन्हें हिमाचल प्रदेश की हस्तशिल्प कलाएं बतौर तोहफे में गई थीं। विविध कलाओं से युक्त इस देश के जिस सेक्टर में मिलियन लोग काम करते हैं, उनके सेक्टर को बेहतर सुविधाओं से लैस करने, श्रेय देने, इसके बढ़ावे के लिए संस्थाएं खोली जाए तो न सिर्फ भारत की अर्थव्यवस्था में बदलाव आएगा, बल्कि एक हस्तशिल्प प्रधान राष्ट्र के रूप में भी हम स्थापित होंगे।