भारत और पाकिस्तान का विभाजन हमेशा से एक संजीदा और विवाद भरा विषय रहा है। सालों से भारत और पाकिस्तान के विभाजन का विषय आम जनता में चर्चा का विषय बना हुआ है। आज भारत और पकिस्तान को बतौर एक स्वतंत्र राष्ट्र बने हुए 76 साल हो चुके हैं। बटवारें की वो दर्द भरी झलकियां अब लोगों के जेहन में हलकी पड़ने लगी हैं। हालांकि प्रवास करना कोई आसान कदम नहीं था। लेकिन हालात और परिस्थितियों का सामना करने वाले लोग इस कठिन दौर से गुजरने के लिए मजबूर थे। 1947 के विभाजन में सबसे दयनीय स्थिति का सामना महिलाओं को करना पड़ा। बता दें कि आंकड़ों के मुताबिक भारत सरकार ने करीब 55,000 सिख और हिंदू महिलाओं के अपहरण होने का दवा किया वहीं पाकिस्तानी सरकार ने 12,000 मुस्लिम महिलाओं के अपहरण की बात सामने रखी थी। विभाजन जैसे राजनीतिक संघर्षों में अक्सर महिलाओं को हिंसा की वस्तु बना दिया जाता है। विभाजन के दौरान महिलाओं के इन संघर्षों पर ध्यान नहीं दिया गया।
असल में विभाजन के कुछ सालों बाद जब नारीवादी चेतना का उदय हुआ, तब पहली बार महिलाएं खुलकर पितृसत्तात्मक समाज के विरोध में सामने आयी। महिला विरोधी हिंसा, बलात्कार जैसी कई घटनाओं को अपनी आँखों में उतार कर महिलाओं ने आगे बढ़ने का फैसला लिया। विभाजन के बाद कई परिवारों ने अपने घर की बहु-बेटियों को अपनाने से इंकार कर दिया। इस सब के बावजूद भी महिलाओं ने हार नहीं मानी। विभाजन की सुलगते अंगारों जैसी याद को अपने सीने में दफन कर वे आगे बढ़ीं। 1947 में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद, बड़ी संख्या में युवा लड़कियों और महिलाओं ने खुद को शिक्षित किया और कार्यबल में प्रवेश किया। कई लोग जो विभाजन से पहले से ही अपने परिवारों का समर्थन कर रहे थे, उन्होंने आर्थिक रूप से कठिन परिस्थितियों में भी ऐसा करना जारी रखा।
कठिन परिस्थितियों में परिवार का समर्थन
1947 के बाद महिलाओं ने कार्यबल में शामिल होने का फैसला लिया। उनका यह फैसला भले ही अपने परिवार को आर्थिक मदद देने का रहा हो, पर आगे चल कर यह विभाजन में खत्म होते मानवता के पुनर्निर्माण को दर्शाता है। द 1947 पार्टीशन आर्काइव के आर्टिकल में विभाजन के दौरान उभरकर सामने आयी महिलाओं की छोटी मगर प्रेरित करने वाली कहानियां सामने आती हैं। उनमें से ही एक कहानी कृषणावंती की है, जो विभाजन के तनावपूर्ण स्थिति में अपने परिवार का साथ नहीं छोड़ती। कृषणावंती ने अपने परिवार का भरण-पोषण में अपने हार बेच कर किए। कृषणावंती का शुरूआती बचपन पकिस्तान के गुजरांवाला क्षेत्र में बिता। विभाजन के दौरान जब उनके क्षेत्र में तनाव की स्थिति बढ़ गई, तो उनके परिवार ने वहां से भागने का फैसला किया। लुटेरों से छिप-छिपाकर भागते हुए वह एक शरणार्थी शिविर में पहुंचे और उसके बाद दिल्ली चले गए। परिवार की आर्थिक हालत ख़राब होने के कारण कृष्णावंती की शिक्षा मात्र आठवीं कक्षा तक ही हुई। आगे वह अपने हाथों से बनाए हार बेचकर अपने परिवार को आर्थिक सहायता प्रदान करती रहीं।
विस्थापित महिलाओं का रोजमर्रा के जीवन में संघर्ष
हूर बानो, जिन्हें आज हूर बानो पानीपती कहा जाता है, का जन्म 1925 में हरियाणा के पानीपत में करनाल जिले में एक उर्दू भाषी परिवार में हुआ था। उनको भी अपने परिवार के साथ विभाजन में प्रवास करना पड़ा, जिसके बाद उनकी जिंदगी में कई उतर-चढ़ाव आए जिसका उन्होंने डटकर सामना किया। साल 1940 में अपने पिता को खो देने और बीमारी के कारण भाईयों और बहन की मौत के बाद हूर बानो अपने परिवार का सहारा बनी। प्रवास के बाद, उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। हूर बानो ने उर्दू तालीम हासिल की और उर्दू अखबारों और प्रकाशनों के लिए कई कॉलम लिखे। 1963 में अपने पति के निधन के बाद हूर बानो ने अपने परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी भी ली।
विस्थापन में स्वयंसेवी और कार्यकर्ता के रूप में महिलाएं
विभाजन के बाद महीनों तक विस्थापन का सिलसिला जारी रहा। हज़ारों लोग अपने परिजनों से बिछड़ गए। कई बेघर हुए और खासकर महिलाएं और बच्चे बेसहारा हो गए। विभाजन के कारण विस्थापित लोगों की मदद के लिए भारी संख्या में महिलाएं सामने आयीं। उन्होंने पहली बार प्रवासी शिविरों, अस्पतालों और भूले-बिछड़े बच्चों के लिए अपनी इच्छा से काम किया। कई महिलाओं का अपहरण हुआ और बलात्कार का सामना कर चुकी महिलाओं ने भी उनके परिवारों के नकारी गई महिलाओं की मदद भी की।
शिक्षा के लिए आगे आई महिलाएं
इन हजारों महिलाओं के नाम में एक और नाम है अनीस बेगम किदवई का जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अंत तक भाग लिया और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन देश के विभाजन से वह काफी आहत हुईं। उन्होंने महात्मा गांधी के मार्गदर्शन में सुभद्रा जोशी, मृदुला साराभाई और ऐसी कई अन्य महिला नेताओं के साथ मिलकर देश के विभाजन के कारण पीड़ित महिलाओं की सहायता और समर्थन करने के लिए काम करना शुरू किया। उन्होंने भारत के विभाजन के पीड़ितों के पुनर्वास की दिशा में काम किया और अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा नव स्वतंत्र भारत की सेवा में बिताया।
अनीस किदवई ने विभाजन के दौरान शरणार्थी शिविरों में आयी महिलाओं की मदद की। साल 1947 के विभाजन में किदवई ने अपने पति शफी अहमद किदवई को खो दिया। इसके बाद वे अपने बच्चों के साथ दिल्ली चली आयीं। यहां अनीस किदवई ने पुराना किला शरणार्थी शिविर में पुनर्वास के लिए आयी महिलाओं के साथ काम किया। अपनी इस यात्रा को उन्होंने अपने संस्मरण ‘आज़ादी की छाँव में’ दर्ज़ किया, जिसका अनुवाद अमीना किदवई की बेटी ने ‘इन फ्रीडम शेड’ शीर्षक के नाम से किया है। अपने संस्मरण में अनीस किदवई ने दिल्ली के पुराना किला शरणार्थी शिविर का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है:
“अस्पताल से, पुरे शिविर का एक सुविधाजनक दृश्य दिखाई देता था। जहाँ तक नजर जा सकती थी, तंबू और टिन की छत वाले आश्रय थे, एक साथ भीड़ थी। उनके बीच में नग्न बच्चों, अस्त-व्यस्त महिलाओं, नंगे सर वाली लड़कियों और पुरुषों का एक निरंतर आवागमन था जो अवज्ञा और अपमान में जल रहे थे।”
अनीस किदवई, इन फ्रीडम शेड
खुद के बुनियाद और दूसरों को जोड़ती महिलाएं
विभाजन की मार खा चुकी रशीदा हुसैन का जन्म रशीदा अखुंद के रूप में 1928 में हैदराबाद, सिंध में एक सिंधी भाषी परिवार में हुआ था। रशीदा हुसैन अपनी दादी के बारे में बात करते हुए बताती हैं कि कैसे पड़ोसियों और परिवार वालों ने मिलकर शरणार्थियों की मदद की। रसीदा हुसैन बताती हैं कि विभाजन के बाद पाकिस्तान के सिंध में शरणार्थियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई, तो उनकी दादी रेलवे स्टेशनों पर मरीजों के लिए स्ट्रेचर ले जाती रहीं। रसीदा हुसैन ने साल 2011 में अपनी दादी के संस्मरणाओं के संग्रह को प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक ‘फूटप्रिंट्स इन टाइम: रेमिनिसेंसेस ऑफ ए सिंधी मैट्रियरकी’ है।
विस्थापन और उस दौरान महिलाओं के प्रति विसंगत विचार रखने वाले समाज के बीच स्वयं के अस्तिव और बुनियाद को कायम रखना वाकई में किसी जंग जीतने से कम नहीं था। लेकिन महिलाओं ने हार न मानते हुए न तो टूटी और न ही ध्वस्त हुई। वे आशाओं को नई चमक दी और दूसरों को एक-दूसरे का सहारा बनने के लिए भी प्रेरित किया। उस दौर में मदद के लिए आती महिलाएं और लड़कियों का हुजूम वाकई एक अनोखी बात रही। उनकी इस पहल से मनुष्य जाति का कल्याण निश्चित रूप से हुआ।
पंजाब की सामाजिक कार्यकर्ता की कहानी
पंजाब की सामाजिक कार्यकर्ता इंद्रजीत कौर भी विभाजन के दौरान पाकिस्तान से आए सैकड़ों शरणार्थियों के लिए सहारा बनी। अपने पिता के सहयोग और प्रगतिशील विचारधारा से इंद्रजीत कौर में अपने पैरों पर खड़े होने का विचार और साहस आया। उस समय चल रहे पर्दा प्रथा के खिलाफ इंद्रजीत ने उच्च शिक्षा ग्रहण की। 1947 के विस्थापन में इंद्रजीत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे बतौर एक्टिविस्ट काम करती रहीं और करीब 400 परिवारों को पुनर्वास में मदद की। अपने परिवार और समाज का विरोध सहकर महिलाओं ने विस्थापित शरणार्थी और बच्चों के लिए कई संगठनों का गठन किया, जिसमें लड़कियों को आत्मरक्षा प्रशिक्षण के साथ-साथ आर्थिक रूप से सबल होने की शिक्षा दी जाती रही।
भले विभाजन के दौर में महिलाओं के साथ चरम अन्याय और हिंसा हुई, लेकिन इस दौर ने महिलाओं को और सशक्त बनाया। ये महिलाएं न केवल समाज में हो रहे बदलाव की साक्षी बनी बल्कि उन बदलावों को उन्होंने अपने शख्सियत में भी अपनाया। समाज ने इस बढ़ती नारीवादी सोच से लड़कियों की शिक्षा और अधिकारों पर काम करना शुरू किया। इससे न सिर्फ महिलाओं को उनके अधिकार मिलने शुरू हुए बल्कि विभाजन और उसके बाद विस्थापन से हुए त्रासदी के बाद दोबारा निर्माण में उनके समर्थन को भी महत्व दिया जाने लगा।