दुनिया भर के अरबों लोगों को जोड़ने वाला इंटरनेट आधुनिक सूचना समाज का एक प्रमुख स्तंभ बन गया है। दुनिया भर के संगठनों को, लोगों के विकसित हो रहे डिजिटल व्यवहारों को समझने में मदद करती, रणनीति परामर्श कंपनी केपियोस के एक विश्लेषण से पता चलता है कि अक्टूबर 2023 तक दुनिया भर में 4.95 बिलियन सोशल मीडिया उपयोगकर्ता हैं, जो कुल वैश्विक आबादी का 61.4 प्रतिशत है। यानी 4.95 बिलियन लोगों की आबादी डिजिटल संसार में मौजूद है। इस डिजिटल संसार में जो कुछ घट रहा है वह वास्तविक जीवन को भी प्रभावित कर रहा है। आप इस बात से सहमति ज़रूर दर्ज़ कराएंगे कि वास्तविक जीवन और डिजिटल संसार का जीवन एक-दूसरे के पूरक हो चले हैं। डिजिटल दुनिया की चीजें व्यक्ति के जीवन की लगभग हर चीज़ निर्धारित कर रही है। चाहे वह कपड़ों की पसंद हो, चलचित्र की पसंद हो या ऐसी तमाम चीजें। डिजिटल संसार अब मात्र दूर-सुदूर बैठे लोगों से परिचय मात्र भर नहीं रह गया है, बल्कि यह एक बाजार बन चुका है। आम तौर लोग आजके दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के उद्देश्य से सोचते हैं। इसलिए आपका इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर जैसे किसी सोशल मीडिया पर अकाउंट होगा। सोशल मीडिया के अनगिनत ऐप्स में से किसी न किसी पर आप ज़रूर मौजूद होंगे।
आप जिन लोगों के जीवन से थोड़ा परिचित होना चाहते हैं, उसके अलावा आपको सोशल मीडिया पर हर जगह इश्तेहार ही इश्तेहार देखने मिलते हैं। जबसे सोशल मीडिया के ड्रैगन ऐप्स ने मोनेटाइजेशन (मुद्रीकरण) पॉलिसी लोगों के लिए खोली है, लोग के इसके पीछे बहुत काम कर रहे हैं ताकि वे अपनी सोशल मीडिया अस्तित्व से पैसा कमा सकें। हालांकि इस मुद्रीकरण ने लोगों के लिए नए करियर भी सामने रखे हैं जैसे इनफ्लूएंसर, यूट्यूबर बनना। ये लोग अपना कॉन्टेंट बनाते हैं, बड़ी बड़ी मार्केटिंग कंपनियां इनसे अपने सामान के प्रचार कराती हैं और इससे इन्हें भी पैसा मिलता है। कंपनी का प्रोडक्ट भी प्रचारित हो जाता है। इस साइकिल को चलाए रखने के लिए नए-नए ट्रेंड इस सोशल मीडिया मार्केट में आते हैं। जैसे आजकल जो बहुत चल रहा है वह है ‘मस्ट हैव विडियोज।’
क्या ट्रेंड का हो रहा है मनोवैज्ञानिक प्रभाव
यानी कुछ मिनटों का वीडियो स्क्रीन पर आता है जिसमें व्यक्ति ये बताता है कि ये सामान आपके पास होना ही चाहिए। उदाहरण के तौर पर ‘ये पांच तरह की जींस लड़कियों के पास होनी ही चाहिए’, ‘ये डेकोरेटिव सामान आपके घर में होना ही चाहिए’। यहां ये जो ‘होना ही चाहिए’ लोगों की चेतना में क्या पैदा कर रहा है? ये लोगों के अवचेतन दिमाग में महसूस करवा रहा है कि मेरे पास वो सामान नहीं है जो वीडियो के अनुसार मुझपर होना ही चाहिए। तो मैं एक समृद्ध जीवन नहीं जी रहा हूं या जी रही हूं। मेरे कपड़े अधूरे हैं अगर उस वीडियो में बताई गई पांच जींस मेरे पास नहीं हैं। ऐसे ही एक वीडियो का ट्रेंड आया है जो कंपनी विशेष पर होता है जैसे ‘अमेजन हॉल/फ्लिपकार्ट/मीशो हॉल’, इन वीडियो में ये होता है कि आपको फलां कंपनी से ये लेना ही चाहिए। ऐसे तमाम ट्रेंड, मार्केटिंग स्ट्रेटजी लोगों को अतिउपभोक्तावाद यानी हाइपर कंज्यूमरिज्म की ओर बढ़ा रही है।
क्या सचमुच चीजों की है जरूरत
आपने महसूस किया है कि आप ऐसे वीडियो देखते-देखते इनसे प्रभावित हो जब चीजें खरीदते हैं, तब वह दरअसल कभी-कभी उतनी उपयोगी नहीं होता। जैसे, आलू कुचलने वाला टूल। क्या ये सच में ज़रूरी है? बालों को बांधने के लिए दस से ज्यादा रबरबैंड का पूरा सेट, हर एक ड्रेस के साथ के अलग-अलग जूते। क्या यह सच में ज़रूरी हैं? मूल ज़रूरत से ज़्यादा खरीददारी ग्राहक के लालच की निशानी होती है। बाज़ार को यही लालच चाहिए। डिजिटल संसार ये लालच अच्छे से प्रसारित कर रहा है। इस अतिउपभोक्तावाद के बहुत खतरे हैं, जो हमें अभी भी अगर समझ नहीं आए, तो हम हर तरह से अपने इर्द-गिर्द एक प्लास्टिक जीवन जी रहे होंगे। सोशल मीडिया पर जो लोग इस कथित ‘वाद’ के प्रचारक बने हुए हैं, और ‘ब्रांडेड कॉन्टेंट’ लगातार बना रहे हैं, वे ‘पर्सनेलिटी सेलिंग’ की प्रक्रिया में धंस रहे हैं।
पर्सनेलिटी सेलिंग यानी खुद के आत्म को बेचने, उसके मुद्रीकरण की प्रक्रिया में धंस रहे हैं। व्हाइट कॉलर: द अमेरिकन मिडिल क्लासेस, प्रमुख समाजशास्त्री सी. राइट मिल्स के अमेरिकी मध्यम वर्ग का एक अग्रणी और प्रमुख अध्ययन है, जो 1951 में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने इसमें ‘व्यक्तित्व बाजार’ की अवधारणा को विस्तृत किया है, जिसमें वे लिखते हैं कि बाजारवाद के मानसिकता के प्रभुत्व वाले कर्मचारियों के समाज में, यह निश्चित है कि एक व्यक्तित्व बाजार का उदय हो। मैन्युअल कौशल से लेकर लोगों को संभालने, बेचने और सेवा देने की कला में बड़े बदलाव के कारण, कर्मचारियों के व्यक्तिगत या यहां तक कि अंतरंग गुणवत्ता का आदान-प्रदान के क्षेत्र में खींचे जाते हैं और श्रम बाजार में वस्तु बन जाते हैं।
अतिउपभोक्तावाद की ओर खींचता सोशल मीडिया
अतिउपभोक्तावाद की ओर खींचा चला जा रहा यह सोशल मीडिया लोगों में रिलेटिव डेप्रिवेशन यानी सापेक्ष अभाव को बढ़ावा दे रहा है। सापेक्ष अभाव मनोविज्ञान की परिभाषा अनुसार यह विश्वास है कि कोई व्यक्ति किसी और से तुलना के आधार पर वंचित या किसी चीज का हकदार महसूस करेगा। आनुपातिक अभाव सिद्धांत इस धारणा पर आधारित है कि लोगों को अक्सर लगेगा कि उनके पास कुछ किसी तुलनात्मक मानक से कम है। लोग जैसे पैसे या कार, या अमूर्त वस्तुओं, जैसे सामाजिक स्थिति या सम्मान, से अपेक्षाकृत वंचित महसूस कर सकते हैं। सामाजिक विज्ञान में यह अभाव कई तरह के सामाजिक आंदोलनों की नींव रखने के लिए सहायक हैं। लेकिन सोशल मीडिया, बाजार और अतिउपभोक्तावाद के परिप्रेक्ष्य में यह तूलनामूलक अभाव लोगों को निराशा की ओर ले जा रहा है। वे खुद के अस्तित्व को, अपने जीवन में मौजूद भौतिक, भावनात्मक उपस्थितियों की तुलना दूसरे लोगों से कर रहे हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि महिलाएं दूसरों के साथ ज्यादा ऊंची चीजों में सामाजिक तुलना करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप आखिर में उनके बारे में नकारात्मक भावनाएं बढ़ती हैं। अधिकांश महिलाएं स्वयं को किसी ‘सामाजिक आदर्श’ के विरुद्ध आंकती हैं।
अतिउपभोक्तावाद से सांस्कृतिक खतरा
अतिउपभोक्तावाद सांस्कृतिक एकरूपता को बढ़ावा दे रही है। यह एकरूपता पश्चिमी संस्कृति के पक्ष में है। हमारा देश विविध संस्कृतियों का समागम है। हम इसे सिर्फ हिंदू या ईसाई संस्कृति जैसे विशेष संस्कृति के तौर पर नहीं देखते हैं। यहां हर वर्ग, जाति, धर्म की अपनी संस्कृति है। अतिउपभोक्तावाद संस्कृतियों की इस विविधता को ख़त्म कर रहा है जिससे पहनावा, खाने की आदतें, जीवन जीने की शैली सब एक जैसा होता दिखता है। ऐसा होने से एक व्यक्तिगत चुनाव, विशिष्ट होने की चेतना खोने लगती है। साइंस डायरेक्ट पर छपे शोध में रेजा जमाली लिखते हैं कि बढ़ी हुई एकरूपता अधीनस्थ जातीय पहचान की राजनीति को कमजोर कर देगी, जबकि चुपचाप प्रमुख जातीय पहचान की राजनीति को बढ़ावा देगी। यहां, एक आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक संस्कृति के प्रसार के बारे में चिंता है, जो खुद को ‘वैश्विक’ कहते हुए, वास्तव में मुख्यधारा की अमेरिकी और पश्चिमी यूरोपीय संस्कृतियों और मूल्यों में निहित है। सोशल मीडिया पर जो बाज़ार खड़ा किया गया है और मुर्द्रीकरण की व्यवस्था से इसके जो प्रचारक खड़े किए गए हैं, वे मिलियन लोगों के चुनाव को प्रभावित कर रहे हैं।
सोशल मीडिया का हमारे ऊपर प्रभाव
हम क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, क्या सुनेंगे यहां तक कि हमें कैसा दिखना चाहिए, इन प्रचारकों से गुजरते हुए हम तक आ रहा है। ऐसे में व्यक्तिगत पहचान, स्टैंड को बनाए रखना ज़रूरी है। वरना धीरे-धीरे हम इस अतिउपभोक्तावाद के गुलाम होते जाएंगे। यह ना सिर्फ हमारी खरीदने की शक्ति को प्रभावित कर चिंतित कर रहा है बल्कि मानसिक दुविधाओं के चक्र में फंसा रहा है। सोशल मीडिया आज की सच्चाई है। लोगों की उपस्थिति भी बराबर बढ़ ही रही है। निजता का प्रश्न जहां समाप्त हो चुका है, आत्म चुनाव की भावना पतन की ओर है, ऐसे में खुदको जागरूक रखते हुए जीवन को जीना बहुत ज़रूरी है। वरना हम खुद को एक ऐसे जाल में फंस जाएंगे जहां से आत्मशांति का रास्ता निकलना मुश्किल है। भागदौड़ से भरे जीवन में सोशल मीडिया, बाज़ार की बारीक पहचान हमारे अपने संयमित, समृद्ध जीवन के लिए जरूरी है।