गांव में साल की दो मुख्य फसलें गेहूं और धान की खेती दोनों के लिए लगने वली श्रम का अधिकांश दारोमदार महिला श्रमिकों पर ही आधारित होता है। इसके साथ अन्य दलहनी और तिलहनी फसलों की खेती का कार्यभार भी अधिकतर महिलाओं पर ही होता है। जैसे, अगर उड़द की फसल तैयार होती है, तो उसे उखाड़ना, फिर उसकी फली को तोड़ना या मूंग की तैयार फसल को खेत में ही उसकी पकी फली को तोड़ना। ये सब महिलाओं के ही निर्धारित काम होते हैं। लेकिन इसमें धान की फसल की रोपाई से लेकर सिंचाई, निराई, कटाई और फिर धान की पिटाई, ये सारा काम महिलाओं के कठिन श्रम से होता है। गांव में पलायन जितनी तेजी से हुआ है, उसका सारा बोझ महिलाओं के ही कंधों पर आया है। महिलाओं के लिए घर की खेती हो या खेत की मजदूरी हो, सबका कार्यभार अकेले करना होता है। घर के ज्यादातर पुरूष रोजगार के लिए शहर चले जाते हैं। गांव के सामूहिक जीवन में खेती किसानी का काम सिर्फ रोजगार नहीं होता। यह एक तरह का अनिवार्य काम होता है, जिसमें जीवनयापन से लेकर संस्कृति को सहेजे रखने के लिए करना होता है।
कठिन हालातों में खेतों में काम करती महिलाएं
धान की लहलहाती फसल जितनी मनमोहक होती है, उसमें लगा श्रम उतना ही कठिन होता है। ये श्रम शुरू होता है धान की बीड़( बेहन) डालने से। यह एक परंपरागत और प्रशिक्षित कृषि का काम होता है। जब धान की रोपनी होती है, तो महिला श्रमिकों के पैर लगातार पानी और गीली मिट्टी में डूबे होने के कारण सूजे रहते हैं और सीलन से बनते घावों से भर जाते हैं। लेकिन उसी स्थिति में वो धान की रोपनी करती रहती हैं क्योंकि धान की बेहन जब तैयार हो जाती है, तो ज्यादा दिन उस मिट्टी में रोकी नहीं जा सकती। दरअसल अगर ज्यादा दिन जड़ उसी माटी में रह जाती है, तो वहाँ से उखाड़ने पर वो धान की बेहन कमजोर हो जाती है। ये धान की खेती की प्रक्रियाएं होती हैं। इसलिए सीमित समय में किसान महिलाएं या श्रमिक महिलाएं धान की बेहन को उखाड़कर दूसरी जमीन में रोपने का कार्य करती हैं। हालांकि उस जमीन को तैयार करने का काम भी बेहद कठिन होता है। पानी से भरे खेत की जुताई होती है, जिसे खेत में लेऊ( लेप) लगाना कहा जाता है।
महिलाओं पर घर और खेती का दोहरा बोझ
धान की रोपाई के बाद ही, धान के खेत की रखवाली का काम शुरू हो जाता है। आवारा पशुओं और नीलगाय के आतंक से फसलों को बचाना बहुत कठिन हो जाता है। फिर शुरू होता है धान की सिंचाई और निराई का काम। निराई का कार्य काफी समय लेता क्योंकि धान के खेत में मौसमी घासें खूब उगती हैं। धान की निराई के समय महिलाओं का पूरा दिन खेत में गुजरता है। वो मुंह अंधेरे उठकर अपने पालतू पशुओं-गाय, भैंस, बकरी आदी को सानी-पानी देकर घर का भोजन बनाती हैं और फिर खेत में चली जाती हैं। गांव में रहकर खेत में मजदूरी करती मंजू देवी कहतीं हैं, “धान की कटाई के समय दिन छोटा होने लगता है तो अक्सर हम महिलाएं सुबह घर का भोजन नहीं बना पातीं। पालतू पशुओं की भी देखभाल करनी होती है, तो सुबह का सारा समय उसी में चला जाता है। ऐसी स्थिति में हम दोपहर को खेत से लौटकर भोजन बनाते हैं। फिर भोजन करके दोबारा खेत में काम करने जाते हैं और शाम को ही लौट पाते हैं।”
पुरुषों के पलायन के बाद घर संभालती खेतिहर महिलाएं
उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर जिले की रहने वाली चंदा स्नातक की छात्रा हैं। चंदा की माँ किसान हैं और चंदा के पिता सूरत में किसी फैक्ट्री में काम करते हैं। चंदा ने घर में रखी हुई अपने पिता की पुरानी मोटरसाइकिल को चलाना सीखा है। चंदा कहती हैं, “गांव से रोजगार के लिए पलायन इतनी तेजी से हुआ है कि हालात ये हो गये हैं कि कभी-कभी बहुत जरूरी कामों के लिए गांव में कोई भी पुरुष उपलब्ध नहीं मिलता।” चंदा का कहना है कि जैसे गाँव में बाइक या अन्य वाहन ज्यादातर पुरूष ही चलाते हैं, अगर कभी कोई जरूरत पड़ी जैसे अस्पताल आदि ले जाने के लिए तो बहुत बार ये हुआ है कि कोई पुरूष नहीं मिलता है। इसी तरह गांव में छप्पर उठाने के लिए भी अब बहुत दिक्कत होती है क्योंकि अब गांव में पुरूष बहुत कम होते हैं।
“धान की कटाई के समय दिन छोटा होने लगता है तो अक्सर हम महिलाएं सुबह घर का भोजन नहीं बना पातीं। पालतू पशुओं की भी देखभाल करनी होती है, तो सुबह का सारा समय उसी में चला जाता है। ऐसी स्थिति में हम दोपहर को खेत से लौटकर भोजन बनाते हैं। फिर भोजन करके दोबारा खेत में काम करने जाते हैं और शाम को ही लौट पाते हैं।”
धन की खेती में महिलाओं का योगदान
पलायन के प्रभाव के कारण आज गांव में खेती का खासकर छोटे किसानों की खेती का पूरा दारोमदार महिलाओं पर निर्भर है। उसके साथ-साथ उन्हें घर परिवार और पशुओं की देखभाल की भी जिम्मेदारी निभानी होती है। लेकिन धान की फसल तो हमेशा से ही महिलाओं के ही कठिन मेहनत पर निर्भर थी। रोपनी की गीत का इतिहास भी महिलाओं के कठिन श्रम का एक आख्यान ही होता है। ध्यान से देखा जाए, तो वो कठिन श्रम का जीवन सहज और जीवंत रखने के लिए ही उन गीतों की संरचना हुई है। रोपनी के गीत गाते हुए श्रम करती महिलाएं इतनी प्रफुल्लित दिखती हैं कि लगता है कि श्रम के जीवन को उन्होंने मुक्ति के गीतों से भर दिया हो। हालांकि उसमें ज्यादातर गीत प्रेम, मनुहार, बिरह और वेदना के होते हैं। लेकिन उन गीतों में जीवन की लय होती हैं। रोपनी का गीत श्रम का गीत है, जिसकी रचना और लय श्रमिक महिलाओं की मौलिक रचनात्मक दृष्टि से निकला हुआ है।
रोपनी के गीत और महिलाओं का जुड़ाव
गांव में रोपनी के गीतों की संरचना पर बात करते हुए अस्सी वर्षीय खेत मजदूर रामजनी देवी कहतीं हैं, “इन गीतों को किसने बनाया मैं नहीं जानती। लेकिन इन गीतों को गाते हुए श्रम की कठिनाई और बोझिल माहौल मनोरंजन में बदल जाता है और जीवंत हो उठता है। काम करती हुई महिलाओं का सबका अपना-अलग अलग प्रिय गीत होता जिसे वो बारी-बारी से गाती हैं और दूसरी मजदूर महिलाएं साथ पुरातीं हैं। इस तरह श्रम की एक सांगीतिक सामूहिकता भी विकसित होती है।” गाँव में धान की पिटाई का मौसम एक अलग तरह के संगीत और लय को वातावरण में घोल देता है। खेत से कटकर आयी धान की फसल को महिलाएं भोर से ही पीटना शुरू कर देती हैं। धान पीटने की वो लय जैसे एकताल पर चलती रहती है। श्रम और संगीत के संयोजक का एक अनोखा परिदृश्य बनता है। इन दिनों धान की पिटाई कर रही हैं संगीता देवी कहतीं हैं, “धान की खेती के सारे कार्यों में सबसे रोचक काम धान की पिटाई ही होती है क्योंकि कि तब तक गर्मी खत्म हो जाती है और मौसम सुहाना हो जाता है। बाकी धान की खेती के अन्य कार्य भीषण गर्मी में करने पड़ते हैं। यही एक कार्य धान की पिटाई तक आते आते मौसम ठीक हो जाता है।”
मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य समस्याएं
गांव में खेती किसानी या मजदूरी करती महिलाओं की भूमिकाएं कई स्तरों पर विभाजित होती हैं। जैसे रसोई उनका सबसे अनिवार्य कार्य होता है। साथ ही साथ बच्चों और घर के वृद्ध लोगों की देखभाल भी करनी होती है। इसके सिवा घर के पालतू जानवरों के रख-रखाव का भार भी महिलाओं के ही कंधों पर होता है। इन सारी भूमिकाओं का वो जिस तरह से निर्वाह करती हैं, वो हमेशा उनके लिए भी सहज नहीं होता। इन कठिन कामों की जिम्मेदारियों में खुद के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य अक्सर प्रभावित होता है।अधिकतर तो मजदूर महिलाएं एनीमिया जैसी बीमारी से ग्रसित हो जाती हैं क्योंकि सही पौष्टिक आहार और आराम न मिलने से शरीर कमजोर होता चला जाता है।
खेतिहर महिलाओं को कब मिलेगा अधिकार
इन दिनों धान की पिटाई कर रही गाँव की कुछ महिलाओं से इस पूरे श्रम और प्रक्रिया पर बातचीत करते हुए उन्होंने बताया कि धान की पिटाई में इतना श्रम करते हुए भी उनके लिए ये पल खुशगवार होता है क्योंकि अन्न पककर हाथ में होता है। यह ऐसा होता हो जैसे अपने किए गए पूरे श्रम का प्रतिफलन मिल गया। विडंबना ही है कि अथाह श्रम करती इनमें से किसी भी महिला के नाम पर खेत नहीं होता है। खेत हमेशा घर के पुरुषों का होता है। पैतृक संपत्ति में महिलाओं की भागीदारी इतनी कम है कि अधिकार के नाम पर यहां संबंधों की दुहाई दी जाती है। आज तो हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी खूब बढ़ी है। खेती किसानी में तो हमेशा से महिलाओं की भागीदारी बहुत ज्यादा रही है। लेकिन इसके बावजूद भी उन्हें उनके श्रम का मूल्य राज्य और समाज दोनों ही नहीं देना चाहते। आज श्रम का लिंग आधारित विभाजन भी ध्वस्त हो गया है क्योंकि महिलाओं को गांव हो या शहर, दोहरी तिहरी भूमिकाएं निभानी पड़ती है। गांव में आज खेती का कार्यभार जिस तरह से महिलाओं पर आया है, उसके पीछे पलायन और गांव में रोजगार संकट का होना भर नहीं है। इससे असंगठित क्षेत्र में वैतनिक भेदभाव, महिलाओं का जमीन के अधिकार से दूरी, स्वास्थ्य देखभाल में कमी और पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ छिपा है।