भारत में अमूमन छोटे और नवजात बच्चे की देखभाल के लिए घर के बड़े-बुजुर्गों की मदद ली जाती है। बच्चे का शुरुआती जीवन बहुत अहम और चुनौतीपूर्ण होता है। इसके साथ-साथ जो समान रूप से मुश्किल होता है, वह है बच्चे के जन्म के बाद, किसी महिला का घरेलू या कामकाजी जीवन। यह खास तौर पर तब और भी मुश्किल भरा हो जाता है, जब वह कामकाजी होती है। देश में चूंकि आज भी डे केयर की अवधारणा उतनी प्रचलित नहीं हुई है, इसे एक तरह से विदेशी अवधारणा ही माना जाता है। डे केयर से न सिर्फ बच्चे का शुरुआती दौर में मानसिक और शारीरिक विकास जुड़ा है, बल्कि सुरक्षित डे केयर आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मामला भी है। चूंकि हमारे देश में बच्चे की परवरिश के साथ सबसे ज्यादा सांस्कृतिक मूल्यों को जोड़ा जाता है, इसका सबसे ज्यादा भार मांओं पर आ जाता है।
अक्सर निम्न मध्यम वर्ग या गरीब परिवारों में महिलाएं अपने छोटे बच्चों को या तो पीठ पर साथ लादकर काम पर निकलती हैं, या फिर घर पर किसी सदस्य के सहारे छोड़कर आती है। यह भी एक उम्र के बाद ही संभव होता है। यदि संभ्रांत परिवारों की बात करें, तो मामला बहुत ज्यादा अलग नहीं होता। सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से महिलाओं पर यह जिम्मेदारी रहती है कि वह अपने बच्चे की देखभाल को सबसे ज्यादा महत्व दे। ऐसे में महिलाएं न सिर्फ कामकाज में देर से लौटती हैं बल्कि कई बार ऐसा भी होता है कि लौट ही नहीं पाती। एक ओर जहां आज हम महिलाओं के लिए कामकाज और भागीदारी की मांग करते हैं, तो इस बात का विशेष ख्याल रखा जाना चाहिए कि कामकाज का माहौल उनके अनुकूल हो। साथ ही, महिलाओं की आर्थिक रूप से भागीदारी हो, इसके लिए परिवार और समाज का भी समान भूमिका तय किया जाना जरूरी है।
क्या बच्चे का मतलब कामकाज का बंद होना है
आज पहले से कहीं ज्यादा महिलाएं काम कर सकती हैं या रोजगार तक उनकी पहुंच है। लेकिन अर्थबल में उनकी भागीदारी तभी संभव है, जब कामकाजी महिलाओं को बच्चे के जन्म के बाद उनकी देखभाल के लिए भरोसेमंद जगह या साथ मिले। डे केयर पर बातचीत इसलिए भी जरूरी है कि शहरों या ऐसे जगहों में जहां महिलाओं के लिए परिवार मौजूद नहीं या अगर है भी तो काफी नहीं, वहां उन्हें इससे मदद मिले। महिलाओं का कार्यबल में भागीदारी बहुत महत्वपूर्ण है और इसके लिए जरूरी है कि हम महिलाओं के जीवन में होने वाले बदलाव में साथ देने के लिए सामाजिक तौर पर सशक्त और आर्थिक रूप से किफायती प्रणाली तैयार करें। कोरोना महामारी के बाद न सिर्फ अब दफ्तर पूरी तरह खुलने लगे हैं बल्कि घर से काम की सुविधा भी हर किसी के पास मौजूद नहीं। भारत में डे केयर या बच्चे देखभाल अर्थव्यवस्था को बढ़ाने और पेशेवर बनाने से न सिर्फ कामकाजी महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी सुनिश्चित होगी बल्कि उनपर सामान्य घरेलू बोझ भी कम हो सकेगा।
किफायती डे केयर की जरूरत
हमारे देश में यह चर्चा जरूरी है क्योंकि मातृत्व से जुड़े मानक और देखभाल का भार लैंगिक असमानता और रूढ़िवाद पर आधारित है। विश्व बैंक ने भारत के शहरी इलाकों में कैसे मातृत्व; ‘दंड’ बन जाता है और माँ बनने के बाद महिलाओं के रोजगार से जुड़ी चुनौतियों पर एक विश्लेषण किया। यह विश्लेषण भारत के शहरी इलाकों में मांओं के रोजगार पर छोटे बच्चे के होने के प्रभावों की जांच करने के लिए, साल 1983 से 2011 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के छह दौरों से एकत्रित डेटा के आधार पर किया गया। इस विश्लेषण में घरेलू संरचना, महिलाओं की श्रमबल में भागीदारी में घर के अन्य सदस्यों के होने के प्रभाव का विश्लेषण भी किया गया। विश्लेषण के नतीजे बताते हैं कि बच्चे पैदा करने की ज़िम्मेदारी भले ही महिलाओं पर कम हो गई हो, लेकिन देखभाल की ज़िम्मेदारी बढ़ गई है। घर में छोटे बच्चे के होने से मां के रोजगार पर असर पड़ता है। अमूमन मांओं के लिए यह भी कहा जाता है कि उनका घर पर न होना या बच्चे से ज्यादा दूरी, बच्चे के विकास में या लगाव में कमी लाएगा। हालांकि लैंगिक भेदभाव के कारण ये रूढ़ियां पिताओं पर लागू नहीं होते। वहीं महिलाओं को गर्भवती होने पर नौकरियों में जोखिम का सामना भी करना पड़ता है।
कामकाजी जगह को देना चाहिए मुफ़्त डे केयर
ग्रामीण या अर्ध ग्रामीण क्षेत्रों में जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां मौजूद नहीं हैं, वहां महिलाओं को बच्चे के जन्म पर, उसके देखभाल के लिए कोई सुविधा मुहैया नहीं की जाती है। ऐसे में घरेलू मदद के ऊपर निर्भर होने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता। मातृत्व का भार और असर हालांकि सभी महिलाओं पर कम या ज्यादा होता है। लेकिन कामकाजी महिलाओं के पास देखभाल की व्यवस्था न होने से, उनका काम पर वापस लौटना मुश्किल हो सकता है। श्रम और रोजगार मंत्रालय से सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए एक जवाब में यह स्पष्ट किया गया था कि 50 या अधिक कर्मचारियों वाली कंपनियों को अपने कर्मचारियों को 6 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए, क्रेशे की सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए और नियोक्ता को बाल देखभाल सहायता प्रदान करने का पूरा खर्च उठाना होगा। लेकिन असल में परिदृश्य कुछ और ही सच्चाई बताती है।
डे केयर की कमी और महिलाओं का आय
इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू की एक रिपोर्ट बताती है कि डे केयर तक पहुंच वाली महिलाओं ने कम से कम 50 फीसद अधिक कमाई की, और बड़े बच्चों में 70 फीसद ने पहली बार स्कूल जाना शुरू किया क्योंकि उन्हें अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल नहीं करनी पड़ी। कुछ साल पहले हैदराबाद के एक निजी संस्थान में काम कर रही निशा (नाम बदला हुआ) माँ बनीं। इसके बाद कुछ दिनों तक उन्होंने ऑफिस से छुट्टी लेकर बच्चे की देखभाल में बिताया। इस वक्त तक निशा का जीवनसाथी नौकरी की तलाश में था। बात जब नौकरी और बच्चे की जिम्मेदारी में से चुनने की आती है, तो उसके पति का कहना है, “बच्ची बहुत छोटी है। इसलिए बच्चे की देखभाल और कई चीज़ें जैसे दूध पिलाना मुश्किल होता है। अभी निशा घर से काम मैनेज कर रही है। इसलिए बीच-बीच में संभाल रही है। लेकिन उसे नौकरी छोड़नी होगी।” परिवार शैक्षिक और आर्थिक तौर पर संभ्रांत है और निशा की गैर मौजूदगी में बच्चे को दूध पिलाने के लिए ब्रेस्ट मिल्क पम्प जैसे सुविधाओं का इस्तेमाल कर सकता है। लेकिन इस बात के पूछे जाने पर वह साफ मना करता है। 1990 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित शोध में पाया गया घरेलू घर-आधारित काम उन महिलाओं के लिए एक आकर्षक विकल्प है जिनके लिए काम की ‘निश्चित लागत’ अधिक है। ऐसी महिलाएं जिनके छोटे बच्चे हैं, विकलांग हैं, या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं, उनका ऑन-साइट श्रमिकों की तुलना में घर-आधारित काम स्व-रोज़गार के रूप में चुनने की संभावना अधिक होती है।
डे केयर के खर्च का बोझ
देश में किफायती बाल देखभाल के लिए व्यापक राष्ट्रीय मानकों या प्रमाणपत्रों की कमी बच्चों के देखभाल प्रदाताओं के गुणवत्ता और जिम्मेदारी को कम कर देती है। इस तरह माता-पिता के लिए अच्छे चाइल्ड केअर विकल्प ढूंढना और उनकी जांच करना और भी कठिन हो जाता है। ऐसी महिलाएं जो डे केयर का सहारा लेना भी चाहती हैं, इसका खर्च एक अतिरिक्त बोझ बन जाता है। उदाहरण के लिए, कोलकाता के बहुत ही साधारण डे केयर में आधे दिन बच्चे की जिम्मेदारी लेने का खर्च हर महीने लगभग 5 हजार से 15 हजार तक का है। इसके बावजूद ऐसी संस्थाएं बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने से मना करते हैं। जैसे, मेरी कामकाजी सहेली अक्सर अपने ऑफिस से भागते-दौड़ते लौटती थी ताकि डे केयर के समय के बाद उसके बच्चे को वे लोग बाहर न खड़ा कर रखें। कोलकाता के एक निजी संस्थान में काम कर रही तनु (नाम बदला हुआ) को चिंता रहती थी क्योंकि उसका बेटा उसक वक्त न सिर्फ उम्र में छोटा था बल्कि कई शारीरिक समस्याओं से जूझ रहा था, जहां उसे हर वक्त किसी के साथ की जरूरत होती थी।
इस संदर्भ में राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में किफायती डेकेयर कार्यक्रम का स्वास्थ्य और आर्थिक खुशहाली पर प्रभाव पर एक शोध किया गया। इस रिपोर्ट के अनुसार डे केयर तक पहुंच से श्रम बल में प्रवेश की बाधाएं कम होती पाई गई, महिलाओं के लिए आर्थिक अवसर पैदा हुए, छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने वाली लड़कियों के लिए शिक्षा में सुधार की आशंका देखी भी गई। किफायती डे केयर न सिर्फ महिलाओं के कार्यबल में हिस्सेदारी को बढ़ावा देते हैं बल्कि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य भी बेहतर बनाने में मदद करते हैं। महिलाएं आर्थिक रूप से योगदान दे सके इसके लिए किफायती और सुरक्षित डे केयर बुनियादी सेवाओं में शामिल करने की जरूरत है। साथ ही हमें सांस्कृतिक और सामाजिक रूढ़ियों से अलग मानदंडों को कायम करना होगा।