हिन्दी साहित्य अपनेआप में समृद्ध होने के बावजूद, हिंदी साहित्य पर हमेशा से पुरुषों का दबदबा रहा है। धीरे-धीरे ही सही लेकिन बहुत सी महिला लेखिकाओं ने भी इसमें न सिर्फ अपनी जगह बनाई, बल्कि विवाह, तलाक, कामुकता और महिला शिक्षा जैसे विभिन्न मुद्दों, यानी महिलाओं के जीवन को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाले मुद्दों को संबोधित किया। हालांकि मुंशी प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, राजेंद्र सिंह बेदी और भीष्म साहनी जैसे पुरुष लेखकों ने भारतीय समाज में महिलाओं की सामाजिक स्थिति, उनकी समस्याएं, चुनौतियों और संघर्ष को सामने लाने की सफल और मजबूत कोशिश की। लेकिन उन्होंने महिलाओं को वह स्थान दिया जो उनके अपने सामाजिक दृष्टिकोण के अनुसार कल्पना की गई थी। यह समस्याओं को दिखाने की कोशिश की लेकिन या स्त्री सामाजिक ढांचे के अनुसार आदर्शवादी थी, परिवार को जोड़े रखने वाली और त्याग और समर्पण जानने वाली थी। समय के साथ, हिंदी साहित्य में महिला लेखिकाओं को जब सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ा, तो उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से सांस्कृतिक परंपराओं और पितृसत्तात्मक समाज के नियमों और मानदंडों पर पर सवाल उठाया।
उन्होंने वह दृष्टिकोण अपनाया जो नया था लेकिन साथ ही सहज भी। यह समाज के नियमों को चुनौती देने वाला था। यह अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाली स्त्री का नजरिया था। इनमें से कई महिलाओं ने सत्ता के उन संरचनाओं को चुनौती दी जो परंपराओं के नाम पर महिलाओं को कमतर आँकती है और निम्न सामाजिक स्थान प्रदान करती है। वे उन सामाजिक समस्याओं से उपजी अपनी निराशाओं और अपमानों पर चर्चा करती हैं जो उनके दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं। सदियों से महिलाओं पर होते शोषण और दमन के प्रति जागरूकता ने साहित्य में स्त्री विमर्श को जन्म दिया। भारत में आज़ादी की लड़ाई से लेकर कई आंदोलनों में अपना योगदान देने वाली महिलाओं को कभी याद करना वाजिब नहीं समझा जाता, लेकिन उन्हीं महिलाओं ने शोषित और पीड़ित महिलाओं की कहानी को अपनी लेखनी के ज़रिए समाज के सामने रखा।
शुरुआती दौर में महिलाओं का लेखन और स्थिति
हिन्दी साहित्य के आदिकाल में नारी के वीरांगना और कामिनी दोनों रूप दिखते हैं लेकिन उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व कहीं दिखाई नहीं देता। हिंदी साहित्य के आदिकालीन युग (संवत् 1050-1375)में नारियों पर कई तरह की बंदिशे लगाई गई। उस वक्त सती प्रथा का जोर था। युद्ध का कारण भी महिलाओं को ही समझा जाता था। इस काल में कोई महिला साहित्यकार प्रकाश में नहीं आई लेकिन उसके बाद अन्य सभी कालों में महिलाओं ने साहित्य की वृद्धि में योगदान दिया। हालांकि ये लेखन ऐसे नहीं थे जिनमें महिलाओं के अधिकार या उसके नारी को एकल रूप में देखा गया हो। भक्तिकाल में कई कवयत्रियां हुई और इन कवित्रियों ने कविताएं भी लिखी। भक्तिकालीन महिला काव्यकारों में सहजोबाई, दयाबाई, ललद्यद और मीराबाई का नाम विशेष है।
भक्तिकाल के बाद की स्थिति
वहीं मीराबाई के बाद आए हुए कवि तुलसीदास अपने सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ रामचरितमानस में नारी के साथ-साथ शूद्रों को भी ये कहने में ज़रा भी संकोच नहीं किया कि “ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी सकल ताड़न के अधिकारी।” यानि पशुओं की तुलना शूद्रों और नारियों से की गई है, और इनके लिए ये कहा गया है कि वे केवल दंड के भागी हैं। रीतिकाल (संवत् 1700-1900) में भी महिलाओं की दशा बुरी ही रही है। महिलाओं का वर्णन भी मूल रूप से शृंगार रस के तरह किया गया। कुल मिलाकर आदिकाल से लेकर रीतिकाल तक महिलाएं साहित्य में उस तरह से चित्रित नहीं हुई। न ही उनके समस्याओं, हालात और अधिकारों पर बात हुई। इसके लिए महिलाएं आवाज़ भी नहीं उठा सकती थीं। इसके पीछे का कारण यह था कि महिलाओं को पढ़ने-लिखने की आज़ादी नहीं दी जाती थी।
हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श की शुरुआत
हालांकि हिन्दी कथा- साहित्य में नारी-मुक्ति को लेकर स्त्री – विमर्श की गूंज 1960 के दशक मीन सुनाई दी। इस दौरान चार नाम सबसे चर्चित रहे। उषा प्रियम्वदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी एवं शिवानी जैसे लेखिका नारी मन के अंतर्द्वंद्व को समझा और नारी की दिशाहीनता, दुविधाग्रस्तता, समस्याओं और चुनौतियों आदि का विश्लेषण किया। लेकिन हिन्दी साहित्य में स्त्री – विमर्श की शुरूआत छायावाद काल से माना जाता है। आधुनिक काल के छायावाद युग (1918) में प्रवेश लेने के बाद हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श का जन्म होता है। इसकी शुरुआत छायावाद युग की लेखिका महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान से होती है। महादेवी वर्मा की रचना “श्रृंखला की कड़ियां” और सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता “झांसी की रानी” नारी सशक्तिकरण का सुंदर उदाहरण है। हिंदी साहित्य की लेखिकाओं ने अपने-अपने नारी मन की अनेक समस्याओं को विषय बनाया है। कविता के साथ-साथ अन्य विद्याओं में भी ढ़ेर सारी रचनाओं में महिलाओं की स्थिति को वयक्त करने का काम महिला लेखिकाओं ने किया है।
अन्य विधाएं और नारी चित्रण की बात
अन्य विधाओं में नारी विमर्श के मामले में मन्नू भंडारी अपने नाटक ‘बिना दीवार का घर’ में समाज के उन वर्गों को सामने लाती हैं, जो पुरूष वर्ग की ईर्ष्या का शिकार हुई हैं। नाटक के अलावा रेखाचित्र, संस्मरण, कहानी, उपन्यास आदि विद्याओं में भी आपनी लेखनी को दर्शाया है। कहानी संग्रह में सुभद्रा कुमारी चौहान ने ‘बिखरे मोती’ और ‘उन्मादिनी’ नामक कहनी में भारतीय नारी की परिस्थितियों, समस्याओं तथा भावनाओं का सहज चित्रण किया है। हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श लिखने का कार्य पुरूष लेखकों ने भी किया और काफ़ी बेहतर भी लिखा, लेकिन उनमें कुछ ऐसे भी लेखक हुए जिन्होंने अपनी रचनाओं में महिलाओं के हक और आज़ादी की बात लिखी। परंतु उन विचारों को अपनी निजी जिन्दगी में नहीं उतार पाए।
महिला साहित्यकारों ने उठाया बीड़ा
महिला साहित्यकारों ने हिन्दी साहित्य की बागड़ोर संभालते हुए पुरे हिन्दी साहित्य में अपनी जगह बनाई है। इनमें बंग महिला, सुभद्रा कुमारी चौहान, शिवरानी देवी, मन्नू भंडारी, कृष्ण सोबती, उषा प्रियवंदा जैसे तमाम नाम हैं, जो हिन्दी साहित्य के पहले चरण में आती हैं। इन्होंने हिंदी कहानी को मज़बूत नींव दी। आगे चल कर हिन्दी उपन्यास साहित्य के विकास काल में उषा देवी, कांचनबाला सब्बरवाल, लक्ष्मी देवी, प्रभावती भटनागर ने अपनी लेखनी चलाई और दहेज़ प्रथा, अमेल विवाह, पुरूषों के दुराचार, पर्दा प्रथा आदि समकालीन सामाजिक कुरीतियों पर प्रकाश डाला। महिलाओं का शिक्षित होना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि शिक्षा पाकर वे समाज को अपने नज़रिए से देख पाएंगी। जिस प्रकार पितृसत्तात्मक समाज ने अपने हिसाब से चीज़ों को तय कर लिया है कि ये काम पुरूष करेगा और वो काम महिला। इसलिए शिक्षित महिला ये तय करने में सक्षम होंगी कि जहां भी उन्हें रोका जाएगा, वे बेझिझक आवाज़ उठा सकती हैं।
इसी कारण साहित्य में भी स्त्री विमर्श और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है, ताकि महिलाएं अपने ख़ुद के संघर्षों और समस्याओं को अपनी लेखनी के माध्यम से खुद बता सकें। साथ ही दूसरी महिलाओं के संघर्षों को भी समाज के सामने रख सकें। साहित्य में महिला लेखिकाओं का इतिहास काफ़ी सुंदर और प्रेरणा का श्रोत रहा है। उनकी रचनाओं को पढ़कर प्रेरणा तो मिलती ही है। साथ ही उन्हीं की तरह हर मुद्दे पर लिखने का आत्मविश्वास भी मिलता है।