19वीं सदी के केरल में दलित और अन्य पिछड़ी जाति से आने वाली महिलाओं को अपने स्तन को ढकने के लिए कर यानि टैक्स अदा करना पड़ता था। इस ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक जाति व्यवस्था के खिलाफ़ साल 1813 में त्रावणकोर राज्य में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए। इस विरोध को चन्नार क्रांति के नाम से जाना गया। जाति आधारित ऊँच-नीच से बनी सामाजिक व्यवस्था में शरीर के उपरी हिस्से पर कपड़े के ढकने का अधिकार केवल प्रभुत्वशाली जातियों के पास ही था। दलित समुदाय ने जब-जब पहनावे से जुड़ी आचार संहिता को चुनौती दी, तब-तब हिंसक सामाजिक प्रतिक्रियाएं हुई। त्रावणकोर में जहां दलित और अन्य पिछड़ी जाति की महिलाएं कपड़े पहनकर अपना जीवन अपने अनुसार जीने की कोशिश कर रही थी, तो वहीं ऊंची जाति के लोग इसे अपनी शान के खिलाफ समझ रहे थे। हालांकि यह लड़ाई अंत में खत्म हुई और यह प्रथा भी। लेकिन भारत में पहनावा जाति व्यवस्था के साथ भी जुड़ा है। पहनावे को लेकर समाज जो कानून तय करता है उसे समुदाय धरातल पर लागू करता है।
समाज नाम की इस काल्पनिक संस्था ने ‘कौन क्या पहनेगा’ मुद्दे पर विभिन्न तबकों के लिए कुछ न कुछ नियम बने हुए हैं। कपड़ों के जरिये समाज ने सौम्यता और सुन्दरता, शर्म और मर्यादा की परिभाषाएं गढ़ी हैं। जब समाज में पितृसत्ता हावी होती हैं तब उस समाज के अधिकांश कानून-कायदे महिलाओं को अधीन रखने के विचार से प्रेरित होते हैं। यह भी सही है कि जैसे-जैसे समाज के मूल्यों में बदलाव आता है वैसे-वैसे पहनावे में बदलाव आता है; सुन्दरता और मर्यादा की परिभाषा में बदलाव आता है। हम इस बात की तह तक जाने की कोशिश करेंगे कि महिलाओं के कपड़ों का निर्धारण करने में समाज, समुदाय और परिवार की भूमिका कैसे निभाता है। कैसे समाज ने महिलाओं के कपड़ों का निर्धारण कर पितृसत्ता और जाति आधारित उंच-नीच को मजबूती दी?
शरीर को ढकने की परंपरा
प्राचीन भारत के शुरुआत में शरीर के उपरी हिस्सों पर कपड़े नहीं पहने जाते थे। उस समय के मंदिरों को देखें, तो उनमें बनी हुई मूर्तियों में देवियों के ऊपरी हिस्से पर कपड़े नहीं हैं। महिलाओं के स्तनों को नहीं ढकना असभ्य और अश्लीलता के श्रेणी में नहीं आता था। धीरे-धीरे वस्त्र पहने जाने लगे। एक वस्त्रा, द्वि-वस्त्रा और त्रि-वस्त्रा का पहनावा प्रचलन में आया। इसी का विकसित रूप साड़ी बना। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, वैसे-वैसे शरीर के साथ ‘शर्म’ की अवधारणा मजबूत होती गई। शरीर के खास हिस्से को दिखाना शर्मनाक माना जाने लगा। शरीर को ढकना शुरू किया गया। यहीं से साड़ी के साथ ही घूँघट का रिवाज शुरू हुआ। तथाकथित ऊंची जातियों और कुलीन परिवारों के लिए यह कानून और कड़े होते गए। महिलाओं को पर्दे में रखा जाने लगा। उनका पुरुषों के सामने आना, बाहर बिना पर्दे के जाना, और समाज में मेल-झोल कम हो गया।
कपड़े से कैसे धर्म को जोड़ा गया
किसी भी देवी-देवता को इस बात से फ़र्क नहीं ही पड़ता होगा कि उसका भक्त क्या पहन रहा है और क्या ओढ़ रहा है। लेकिन, समाज के कुछ ठेकेदारों ने धर्म का सहारा लेकर आचार संहिता बनाना शुरू कर दिए। कपड़ों से जुड़े नियमों को धर्म से जोड़ दिया। चूंकि पहनावे से जुड़े नियमों का निर्माण समाज का प्रभुत्वशाली वर्ग कर रहा था। ऐसे में इन नियमों का सबसे पहले सामना प्रभुत्वशाली वर्ग की महिलाओं को करना पड़ा। इन नियमों के जरिये प्रभुत्वशाली वर्ग, अपने वर्ग की महिलाओं को सभ्य रूप देना चाहता था। अपने वर्ग की महिलाओं को तथाकथित निम्न जाति की महिलाओं से अलग दिखाना चाहता था। आपने त्रावणकोर राज्य की उस घटना से अंदाजा लगाया होगा।
कपड़ों के माध्यम से महिलाओं पर नियंत्रण
मध्यकाल को सामन्ती युग भी कहा जाता है। इस दौर तक आते-आते पितृसत्ता और अधिक मजबूत हो गई थी। जैसे-जैसे समाज में पितृसत्ता मजबूत होती गई, वैसे-वैसे महिलाओं के ऊपर बंदिशे बढ़ती गई। यही हाल पश्चिम देशों का था। आपने सम्प्चुअरी कानून के बारे में सुना ही होगा। इन कानूनों का मकसद था समाज के खास तबकों (महिला और दासों) को नियंत्रण में रखना। कॉर्सेट जैसे पहनावे का प्रचलन इस बात की गवाही देता है। आगे जाकर रैशनल ड्रेस रिफार्म आन्दोलन ने पहनावे के ऊपर बनी हुई संहिताओं को चुनौती दी, जिसमें अमेलिया ब्लूमर का योगदान प्रमुख है।
औपनिवेशिक भारत में पहनावे का मुद्दा
अठाहरवीं सदी के बाद दुनिया के अधिकांश हिस्से यूरोपीय देशों के उपनिवेश बन गए थे। वहां जनतांत्रिक आदर्शों का प्रसार हुआ। चूंकि जनतांत्रिक विचारों में वेशभूषा से जुड़े ख़यालात भी शामिल होते हैं। ऐसे में आधुनिक दुनिया के उदय के इतिहास में पहनावे में आए नाटकीय बदलावों का इतिहास भी शामिल है। इस दौर में भारत में क्या हो रहा था? भारत में दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही थीं। पहली प्रतिक्रिया प्रभुत्वशाली वर्ग की महिलाओं की तरफ से आ रहा था और दूसरा, तथाकथित निम्न जाति की महिलाओं की तरफ से। औपनिवेशिक शासनकाल में गोरे अधिकारियों के साथ पश्चिमी पहनावा भी भारत आया। मिशनरी के लोगों ने जब काम करना शुरू किया तब पहनावा और अधिक प्रचारित हुआ। कई मर्दों ने इसे अपना लिया। इस पर ज्यादा प्रतिवाद और प्रतिरोध नहीं हुआ। लेकिन, जैसे ही प्रभुत्वशाली वर्ग की महिलाओं ने पश्चिमी परिधानों को अपनाने की कोशिश की तो उसका प्रतिरोध शुरू हो गया।
प्रभुत्वशाली वर्ग के मर्दों ने अपने वर्ग की महिलाओं के लिए खास तरह की कपड़े के लिए संहिता तैयार की थी। इसमें महिला की छवि एक निर्बल-अबला महिला की बनती थी। ऐसी महिला जो आदर्श है , जो घूँघट में रहती है। ये महिलाएं इससे आज़ादी चाहती थीं। पश्चिमी परिधानों को मुक्ति के प्रतीक के रूप में देखा जाने लगा था। यानि विरोध इसलिए किया जा रहा था क्योंकि महिलाएं इसके जरिये आज़ाद अनुभव कर रही थीं। आज भी जब पश्चिमी परिधानों का विरोध किया जाता है, तब प्रतिरोध करने वालों द्वारा संस्कृति और परंपरा की आड़ ली जाती है। हालांकि इसकी असल वजह है कपड़ों के माध्यम से नियंत्रण और सत्ता में बने रहना।
कपड़ों के माध्यम से वर्ग और जाति का बंटवारा
हमने लेख की शुरुआत में चन्नार क्रांति के जरिए दलित जाति की महिलाओं के साथ किये गए अत्याचार की बात की थी। प्रभुत्वशाली वर्ग ने परिधानों को धारण करना सभ्य होने की एक निशानी माना था। ऐसे में उन्हें यह डर था कि कहीं तथाकथित निम्न जाति के लोग कपड़े पहनकर सभ्य-असभ्य नाम की इस खोखली दुनिया को खत्म न कर दें। वहीं शोषित जाति के लोग वस्त्र पहनकर स्वाभिमान से जीवन जीना चाहते थे। वहीं देश के कई और हिस्सों में दलित वर्ग की महिलाएं प्रभुत्वशाली वर्ग की महिलाओं की तरह अच्छे कपड़े पहनना चाहती थी। इस पर प्रभुत्वशाली वर्ग के लोगों को ऐतराज था। आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गांधी ने पोशाक को राष्ट्रवाद से जोड़ दिया था। अधिकांश लोग खादी के वस्त्रों को पहनने लगे थे। हालांकि खादी के वस्त्र तुलनात्मक रूप से महंगे आते थे। ऐसे में गरीब या आर्थिक रूप से वनचित परिवारों के लिए इसे खरीदना मुश्किल होता था।
आज़ाद हिंदुस्तान में स्थिति
आज़ाद हिंदुस्तान में दोनों चुनौतियां बनी हुई थी या यूं कहे बनी हुई है। प्रभुत्वशाली वर्ग की महिलाएं पश्चिमी परिधानों को अपनाने की कोशिश कर रही हैं। कई परिवार इसे स्वीकार कर देते हैं। तो कई परिवारों में अभी भी पितृसत्ता हावी है। हरियाणा में खाप पंचायतों के फैसले इस बात को पुख्ता करते हैं। अगर वाकई पश्चिमी संस्कृति से दिक्कत है तब मर्दों के मामले में यही पैमाना क्यों नहीं अपनाया जाता है। असली डर किस बात का है ? दलित वर्ग की महिलाएं जब अपनी पसंद का कपड़ा पहनती हैं, तब कथित ऊंची जाति के लोग विरोध करते हैं। इस विरोध को दलित जाति के पुरुष मजबूती देते हैं। दलित मर्दों को महिलाओं की ऐसी पसंद से दिक्कत क्यों है? कहीं न कहीं दलित पुरुष भी उसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का परिचय देते हैं।
परिवार और समुदाय, समाज का हिस्सा होते हैं। समाज जिन कानून-कायदों को तैयार करता है समुदाय उसकी निगरानी करता है और परिवार उसे लागू करता है। क्या पहनना है, क्या ओढ़ना है, यह व्यक्ति की निजी पसंद-नापसंद है। लेकिन, समाज के शक्तिशाली वर्ग, मूल रूप से पुरुष हमेशा ही अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए इसे एक टूल के रूप में इस्तेमाल किया है। कई बार इसके लिए धर्म की आड़ ली, तो कई बार संस्कृति और राष्ट्रवाद की। ऐसे में पहनावे का इतिहास समाज से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। जैसे-जैसे समाज में बदलाव आएगा वैसे-वैसे सामाजिक मूल्यों में बदलाव आएगा। खूबसूरती के पैमानों में बदलाव आएगा।