संस्कृतिकिताबें अगम बहै दरियाव: किसानों और श्रमशील स्त्रियों के जीवन संघर्ष और त्रासदी को दर्ज करती एक किताब

अगम बहै दरियाव: किसानों और श्रमशील स्त्रियों के जीवन संघर्ष और त्रासदी को दर्ज करती एक किताब

शिवमूर्ति द्वारा लिखित "अगम बहै दरियाव" उपन्यास हाशिये के मनुष्यों के दुखों का एक वृहद दस्तावेज है। यहां एक ऐसा समाज रचा गया है जो अभी भी वही खड़ा है। उनके जीवन में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया। समाज का हर वर्ग उपन्यास में उपस्थित है और अपनी बात कह रहा है।

अगर ये माना जाता है कि असली भारत गांवों में बसता है तो ये भी तय बात है कि ये उपन्यास एक मुक्कमल तस्वीर है उस असलियत का जो देश नहीं “देस, है। उस जमीन का कोई वर्ग ऐसा नहीं है जो इस उपन्यास में मौजूद न रहा हो। यह आजादी से शुरू होकर आपातकाल और उदारीकरण के बाद तक का करीब चार दशकों में चलती एक ऐसी गाथा है जहां जीवन और राजनीति, अन्याय और प्रतिकार सब सहज और सम्पूर्ण रूप में सामने आता है। यहां के जीवन की सामूहिकता और अकेलापन भी दर्ज  है। अगम बहै दरियाव उपन्यास हाशिये के मनुष्यों के दुखों का एक विस्तृत दस्तावेज है। यहां एक ऐसा समाज रचा गया है जो अभी भी वहीं खड़ा है। उनके जीवन में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया। समाज का हर वर्ग उपन्यास में उपस्थित है और अपनी बात कह रहा है। गन्ना किसानों की पीड़ा हो या कोर्ट-कचहरी, या फिर पुलिस के छल से जूझता किसान और मजदूर। पीड़ा और कठिनाइयों का एक ऐसा समुद्र जो भारतीय किसानों की राह में आगे बढ़ता है जिसमें वे उसे पार करते कम पर अपने दुख को लिये डूबते बहुत ज्यादा हैं।

आजादी के बाद के प्रसंग चाहे वह आपातकाल हो या मंडल और कमंडल से जुड़े आंदोलन हों, राममंदिर का एजेंडा लेकर आई पार्टी की अवसरवादी राजनीति हो या अस्मिता संघर्ष को लेकर उभरी पार्टी  से बदलाव की आस हो और निराश, यहाँ पर इन पार्टियों की राजनीति भी हैं और उनके विरोधाभास भी हैं। ख़ासकर अस्मितावादी पार्टियां कैसे जातीय भेदभाव, सामाजिक न्याय व संघर्ष को लेकर बनी उनका उत्कर्ष और पतन सब दर्ज है। शिवमूर्ति द्वारा लिखित “अगम बहै दरियाव” उपन्यास हाशिये के मनुष्यों के दुःखों का एक वृहद दस्तावेज है। जहाँ एक ऐसा समाज रचा गया है जो अभी भी वही खड़ा है। उनके जीवन में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया। समाज का हर वर्ग उपन्यास में उपस्थित है और अपनी बात अपनी बोली में कह रहा है।

यह उपन्यास आपातकाल की राजनीतिक और सामजिक घटनाओं से लेकर उदारीकरण के बाद तक करीब चार दशकों में फैली एक बृहद दस्तावेज और करुण महागाथा है जिसमें किसान-जीवन अपनी सम्पूर्णता में सामने आता है।

गन्ना किसानों की पीड़ा हो या कोर्ट कचहरी पुलिस थाना के छल-छंद से जूझता किसान मजदूर। पीड़ा और कठिनाइयों का एक ऐसा समुद्र जो भारतीय किसानों की राह में अगवढ़ बहता रहता है जिसमें वे उतराते तो बहुत कम है अपने दुःख को लिये-दिये डूबते बहुत ज्यादा हैं। आजादी के बाद के देश को लेकर हाशिये के जनों ने जिस जीवन का स्वप्न देखा होगा वो स्वप्न ही रह गया और इसी आजादी को भगत सिंह झूठी आजादी कहते थे जिसमें गरीबों का जीवन पहले की तरह ही कठिन रह जाता है। श्रम करने वालों को उनका अधिकार नहीं मिलता। आखिर सदियों से ये लूट क्यों और कैसे चल रही है इसके जवाब में उपन्यास में एक जगह आता है कि जो ताकतवर है वह कमजोर का हिस्सा हड़पेगा ही। यह जीव मात्र की प्रवित्ति है। अगर तुम आगे पढ़ते तो जानते कि पूरी दुनिया मे बलवानों और चालाक लोगों ने अपने अपने तरीक़े से कमजोर और भोले लोगों को लूटा है।

सामंती मूल्यों से संघर्ष करती स्त्रियां

उपन्यास में अवध की पृष्ठभूमि एक मर्दवादी पठार है। सामन्ती मूल्यों को यहाँ हर वर्ग की स्त्रियों के कंधों पर लाद दिया गया है। लेकिन उपन्यास की स्त्रियां सामन्ती परिवेश से होते हुए भी श्रमशील समाज का प्रतिनिधित्व करती है इसलिए उनका जो साथी है वो उतना पति नहीं है जितना सवर्ण घरों की स्त्रियों का पति होता है। दहबंगा, पहलवानिन, विद्रोही बहु और सोना ऐसे स्त्री पात्र हैं जो न्याय-अन्याय का फर्क करना जानते हैं। ये पिता, पति, भाई सबसे लड़ लेती हैं और दुःख में उनको संभाल भी लेती हैं। संघर्ष के लिए उनके साथ खड़ी होती हैं। ये मेहनतकश स्त्रियाँ उपन्यास के फलक बार-बार नक्षत्र की चमक उठती हैं और अंततः सोना  जिस तरह से  दृढ़प्रतिज्ञ होकर न्याय की तरफ कदम उठाती है वो सम्पूर्ण सामन्ती मूल्यों के अहम को धता बता देता है। 

स्त्री अस्मिता और उसकी गरिमा का उज्जवल आदर्श है सोना का निखरकर उपस्थित हुआ चरित्र। सोना और बुल्लू का प्रेम किशोरावस्था में उपजे सहज प्रेम का रंग था। हिम शिराओं से फूटकर निकली धार की तरह नैसर्गिक प्रेम का इतना दुःखद अंत भारतीय समाज के मर्दवादी वर्चस्व का परिणाम है जहाँ वो स्त्री का मन और देह पाने के बाद उसका अतीत भी हड़प लेना चाहता है। सोना और बुल्लू का प्रेम सोना के जीवन का अतीत था लेकिन पुरुष जो कि पति नाम का प्राणी होता है उसे सोना का अतीत चुभता रहता है ।ब्याह के बाद सोना एकदम से घर ,परिवार ,बच्चे और पति के लिए समर्पित है लेकिन पति को हमेशा संदेह रहता है।

यह उपन्यास आपातकाल की राजनीतिक और सामजिक घटनाओं से लेकर उदारीकरण के बाद तक करीब चार दशकों में फैली एक बृहद दस्तावेज और करुण महागाथा है जिसमें किसान-जीवन अपनी सम्पूर्णता में सामने आता है। उपन्यास के कुछ चरित्र पूरे समाज उसकी भारतीयता में जो सामजिक सरोकार हैं संघर्ष और मुक्ति की तरफ जाने की डगर है उसका प्रतिनिधित्व भी करते हैं। उपन्यास में जब संतोखी कहते हैं ‘आपसे नहीं राजा, अन्याय से लड़ूँगा। लड़ूँगा नहीं तो दुनिया को कौन सा मुँह दिखाऊँगा?’ संतोखी ये लड़ाई उत्पीड़ित और उत्पीड़क जनों की सदियों से लड़ी जा रही लड़ाई है जो आज भी निरंतर लड़ी जा रही है। वहीं जंगू एक चरित्र है जो लगातार व्यवस्था, समाज और व्यक्ति से सवाल करता नज़र आता है।

धार्मिक सौहार्द से भरा समाज

ये देश किसका है ये सवाल उत्पीड़ित जनों के मन मे आना सहज ही है क्योंकि उनके लिए देश का अर्थ झंडा और उन्माद भरे नारे भर कैसे हो सकते हैं। आप लाख दुश्मन और सीमा की दुहाई दीजिए वे तो रोज कदम-कदम पर सीमा और दुश्मन को झेल रहे हैं जो उनसे उनकी रोटी उनकी शिक्षा उनका सर्वस्व छीन ले उनके लिए वही दुश्मन है। एक नन्हा सा बच्चा जब कहता है कि हमारे दुश्मन तो छत्रधारी और उनका भतीजा है तो जाहिर सी बात कि उनकी यातना कितनी गहरी है। उपन्यास का ये दृश्य एकदम से चीख कर कहता है क्या देशभक्ति इतनी सस्ती होती है जितना आज बना दिया गया है। क्या देश सिर्फ उनका होता है जिनके पास सम्पत्ति और सुविधाएं हैं। 

यह उपन्यास आख्यान है उन कृषकों के जीवन का जिनकी पीठ पर देश का पेट लदा है और उसे ढोते हुए चले जा रहे हैं। कला और प्रेम की दुनिया का मनुष्य विद्रोही उपन्यास का ऐसा नायक है जो किसानों के संघर्ष का नेतृत्व करता है और आजीवन उसी संघर्ष को लेकर चलता है।

गांव में अभी साम्प्रदायिकता का जहर नहीं चढ़ा था। लोग दुख-सुख और बीमारी में स्थानीय देवताओं को गुहार लगाते हैं। दो संस्कृति यहां ऐसे एक-दूसरे में घुली है। उनके देवी-देवता, पीर-फकीर सब एक जगह पूजे जा रहे हैं, मनाये जा रहे हैं। एक दिन सुराजी की माँ की छोटी बहन को आशंका जाहिर की कि सुराजी के बाप के न लौटने का कारण कहीं कुल-देवताओं की नाराजगी तो नहीं है। जब से सुराजी के बाप गए, देवताओं को पूजा नहीं मिली। कनुरी नहीं हुई। देवता नाराज हो जाते हैं तो राह से भटका देते हैं। आदमी घर लौटना भी चाहे तो लौट नहीं पाता। सुराजी की माँ को खुद ऐसा लग रहा था वरना दुनिया देश-परदेश जाती है और देर-सबेर लौट आती है। वे क्यों नहीं लौटे? उसी रात उन्होंने सपना देखा कि बड़े पुरूख गाजी मियां आए हैं। बर्तनों को उलट-पलट कर पूछ रहे हैं, मेरा मलीदा कहां है। पूजा की तैयारी हो गयी है।

पास के गांव से लाल मुहम्मद और दीन मुहम्मद दोनों मुजावर भाई बुलाये गये हैं। वे डफ, खड़ताल, चंवर और दो मोटे-मोटे बांसों में रंगीन पताकाएं बांधकर लाए हैं। साथ में उनकी बहन जहना आयी। अद्भुत दृश्य है कि जिसमें पूजा की तैयारी हो रही है और पूजा कराने जो पुरोहित आ रहे हैं वे मुसलमान हैं। नाराज देवताओं पुरुखों और सती अमीना करिया-गोरिया और गाजीमियाँ को मनाने के लिए पचरा गाया जा रहा है। ये उपन्यास दस्तावेज है उस संस्कृति का भी धर्म पीड़ितों की आह भर है वो घृणा और उन्माद का कोई समूह संगठन नहीं। और ये रहा है हमेशा से पीड़ितों श्रमिकों के जीवन में धर्म एक ओठगन  होता था जीवन जिसके आसरे चलता रहता था वहीं सत्ताधारी ताकतों के लिए धर्म एक हथियार एक सत्ता का स्वरूप होता है। ये बात देखने समझने की है कि यहां धर्मों के गीत एकदम एक जैसे हैं। उनकी मनावन की पूजा-पद्धति एक जैसी है क्योंकि श्रम पर टिका समाज एक जैसा है। वो चाहे जिस धर्म सम्प्रदाय का हो, वहां प्रार्थनाएं उनकी तरह ही है।

किसानों के जीवन का संघर्ष

यह उपन्यास आख्यान है उन कृषकों के जीवन का जिनकी पीठ पर देश का पेट लदा है और उसे ढोते हुए चले जा रहे हैं। कला और प्रेम की दुनिया का मनुष्य विद्रोही उपन्यास का ऐसा नायक है जो किसानों के संघर्ष का नेतृत्व करता है और आजीवन उसी संघर्ष को लेकर चलता है। पढ़ना-लिखना सीखकर वह गांव के लोगों को अखबार पढ़कर सुनाता है ‘नेल्सन मंडेला को भारतरत्न सम्मान’- एक बड़े फोटो के साथ पहले पेज पर प्रमुखता से खबर छपी है। विद्रोही जी आगे पढ़कर बताते हैं ‘यह अपने देश का सबसे बड़ा सम्मान है जो पहली बार गैर-देश के किसी आदमी को दिया गया है।’ ऐसा क्या किया था इन्होंने?’ इन्होंने अपने देश से गोरों का आतंक खत्म कराया था। इसके लिए सत्ताईस-अट्ठाईस साल जेल काटी’ ओ! फोटो में बहुत बूढ़े और कमजोर लग रहे हैं। ”शक्ल-सूरत से छोटी जाति के लगते हैं। बड़ी जाति के होते तो कनेक्शन भिड़ाकर पहले ही छूट जाते। इतने दिन जेल में न रहना पड़ता। ”कौन जाति हैं?” उनके देश में जाति नहीं होती, विद्रोही जी ने स्पष्ट किया। क्यों नहीं होती? ‘ इसलिए कि जाति बनाने वाले वहां तक पहुंच ही नहीं पाए। उस समय अपने यहां समुद्र-यात्रा वर्जित थी।’

उपन्यास में अवध की पृष्ठभूमि एक मर्दवादी पठार है। सामन्ती मूल्यों को यहाँ हर वर्ग की स्त्रियों के कंधों पर लाद दिया गया है। लेकिन उपन्यास की स्त्रियां सामन्ती परिवेश से होते हुए भी श्रमशील समाज का प्रतिनिधित्व करती है इसलिए उनका जो साथी है वो उतना पति नहीं है जितना सवर्ण घरों की स्त्रियों का पति होता है।

उपन्यास अगम बहे दरियाव बेहद पठनीय उपन्यास है भाषा और कथा व कथानक का ऐसा प्रवाह की कहीं शिथिलता नहीं है लेकिन लोक के जीवन में जो उजाड़ और उघाड़पन है वो उपन्यास में कई बार नदी में उपराये सेवार की तरह तैर गया है। कहीं-कहीं उपन्यास की भाषा में भदेशपन इस अंदाज में आया है कि वो सामन्ती रंग में प्रतीत होने लगता है। कई जगह प्रेम मनुहार लोकगीत की भाषा में स्त्री वस्तु की तरह रहती है जो कि लोक समाज की बुराइयां हैं। जहां से उपन्यास खत्म होता है वो मेहनतकशों का जनगीत है जिसे नौटंकी में खेला जाएगा। उपन्यास के अंत तक दामुल फ़िल्म का सवाल ज़ेहन में चलने लगता है। हाथ में ललछहु हसुआ लिए जैसे दामुल की नायिका पूछ रही है कि आखिर क्या करे! कहां जाएं! रास्ता तो दिख रहा था जंगू की ओर से। लेकिन वो महज एक चिंगारी थीं जबकि सामाजिक अन्याय का अंधेरा इतना गाढ़ा हो गया कि अब उसके लिए मशाल चाहिए।


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