‘कैंसर’ शब्द सुनते ही लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लोगों में डर, चिंता और बदहवासी का कारण बन जाता है। यह सच है कि कैंसर किसी व्यक्ति विशेष को ही नहीं, उसके पूरे परिवार को भी बहुत चिंताजनक और खतरनाक तरीके से प्रभावित करती है। यह एक ऐसी बीमारी है, जिसके बारे में भले नाम सबने सुना हो, लेकिन इससे जुड़ी रूढ़ियां और मिथक भी उतने ही लोकप्रिय हैं। अक्सर लोग बीमारी के डर और चिंता में इलाज के साथ और कई बार बिना इलाज के भी लाखों ऐसे टोटके आजमाते हैं, जिसका शरीर पर हानिकारक असर हो सकता है। कई बार ये कैंसर के इलाज को भी सीधे या अप्रत्यक्ष रूप में प्रभावित करता है। भारत सरकार ने 1975 में राष्ट्रीय कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम (एनसीसीपी) शुरू किया। साल 1984-1985 के दौरान रणनीतियों को संशोधित किया गया, जिसमें प्राथमिक रोकथाम और कैंसर का शीघ्र पता लगाने पर जोर दिया गया।
सोचने वाली बात है कि सरकार के इतने सालों पहले से मौजूद इस रणनीति के बावजूद, क्यों समाज का एक बड़ा तबका आज भी कैंसर के सही जानकारी और इलाज से दूर है? हाल ही में ‘चमत्कारिक इलाज’ के लिए गंगा नदी में 15 मिनट तक जबरन डुबकी लगाने के बाद, कैंसर से पीड़ित सात वर्षीय बच्चे की दम घुटने से मौत हो गई। जरूरी यह है कि हम इसे एकलौता घटना के रूप में न देखें। भारत में अक्सर गंभीर बीमारी के इलाज के दौरान मेडिकल साइंस से ज्यादा किसी चमत्कार की उम्मीद की जाती है। बेशक उम्मीद और सकारात्मक सोच स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है। लेकिन कैंसर जैसी बीमारी न ही किसी चमत्कार से ठीक होती है, और न ही टोटकों या प्रार्थना से। कैंसर से पीड़ित व्यक्ति के लिए जितना जरूरी है कि परिवार, दोस्त या आस-पास के लोग उसका साथ दें, उतना ही जरूरी है कि वे लोग मेडिकल साइंस पर विश्वास करें और जागरूक हो।
मिथक या गलतफहमी से हो सकती है चिकित्सा में बाधा
कैंसर से जुड़े मिथक जीवन को नुकसान पहुंचा सकती है या यहां तक कि जीवन का अंत भी कर सकती है। ये सच है कि कैंसर अभी भी ऑन्कोलॉजिस्ट और शोधकर्ताओं के लिए एक भयानक चुनौती है। लेकिन यह हमें इस जानलेवा बीमारी से लड़ने से नहीं रोकता है। कैंसर का निदान यह नहीं कहता है कि व्यक्ति किसी लाइलाज बीमारी से पीड़ित है जहां मौत निश्चित है। इसलिए, समय की मांग है कि कैंसर से जुड़े असंख्य मिथकों और गलतफहमियों को दूर करने पर जोर दिया जाए। खासकर तब जब कैंसर एक महामारी बनती नजर आ रही है।
पारिवारिक चिकित्सा और प्राथमिक देखभाल के क्षेत्र में काम कर रही पत्रिका जर्नल ऑफ फैमिली मेडिसन एण्ड प्राइमेरी केयर के अनुसार रोग की स्थिति के प्रति अवैज्ञानिक सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताएँ उपचार के परिणामों की सफलता को कम कर देती है। देखभाल करने वालों का मिथक या अविश्वास कैंसर प्रबंधन में उल्लेखनीय बाधाओं में से एक है। कैंसर के उपचार के प्रति देखभालकर्ताओं की नकारात्मक प्रतिक्रिया कैंसर से बचे लोगों के जीवन की गुणवत्ता को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकती है।
कीमोथेरपी के विषय में वह बताती हैं, “कैंसर एक तरह से जहर है जो हमारे शरीर को नुकसान पहुंचा रहा है। कीमो भी एक तरह का जहर ही है। जहर ही जहर को काट सकता है। इसलिए इसका इस्तेमाल किया जाता है।”
कैसे कैंसर से जुड़े मिथक खतरनाक हो सकते हैं
स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने के लिए, रोगियों के मिथक और अस्वास्थ्यकर सामाजिक सांस्कृतिक मान्यताओं को संबोधित करने की आवश्यकता है। यह कैंसर रोगी के देखभाल कर रहे लोगों के विषय में बताती है कि चूंकि देखभाल करने वाले कैंसर के उपचार में सक्रिय भूमिका निभाते हैं, इसलिए उनके अविश्वास या गलत धारणाएं रोगियों के स्वास्थ्य देखभाल के परिणाम को कमजोर कर सकती है। कैंसर के कारणों पर गलत विश्वास कैंसर रोगियों के मनोसामाजिक स्वास्थ्य पर भी हानिकारक प्रभाव डाल सकता है।
कैंसर के विषय में अपना अनुभव साझा करते हुए कोलकाता के लैक्मे सलोन में काम कर रही पदमा कहती हैं, “मेरी माँ पिछले तीन सालों से कैंसर से पीड़ित है। मैंने शुरू में ऐलोपैथी से चिकित्सा करवाया। कोई लाभ नहीं होने पर अब आयुर्वेदिक इलाज करवा रहे हैं।” यह पूछे जाने पर कि क्या इससे स्वास्थ्य में कोई लाभ हुआ है, वह बताती हैं, “लग रहा है कि लाभ हुआ है। पहले खाना नहीं खा पाती थीं। अब कुछ ठोस खाना नहीं खाती पर अभी तरल पदार्थ पर जीवन जी रही हैं।” हालांकि पदमा ने बताया कि उनकी माँ बिस्तर पर ही रहती हैं और चल-फिर नहीं पाती।
मेरी माँ पिछले तीन सालों से कैंसर से पीड़ित है। मैंने शुरू में ऐलोपैथी से चिकित्सा करवाया। कोई लाभ नहीं होने पर अब आयुर्वेदिक इलाज करवा रहे हैं।
कैंसर दैवीय शक्ति के नाराज होने से नहीं होता
नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन ने कैंसर रोगियों के खान-पान और खाने के प्राथमिकताओं पर कैंसर उपचार के प्रभाव पर एक शोध किया। इस शोध के अनुसार कैंसर के उपचार ने रोगियों की भूख और प्यास, और उनके खाने-पीने की फ्रीक्वन्सी को प्रभावित किया। इलाज शुरू करने के बाद से लगभग 40 फीसद रोगियों में भूख कम हो गई थी। वहीं 30 फीसद ने कम खाने की सूचना दी, जबकि 30 फीसद रोगियों ने प्यास बढ़ने की सूचना दी, और 48.9 फीसद ने अधिक बार तरल पदार्थ पीने की सूचना दी। देश में जिस कदर कैंसर फैल रहा है, अक्सर चिकित्सा कर रहे डॉक्टर इलाज के दौरान, चाहे समय की कमी में या रवैये के कारण यह नहीं बताते कि खान-पान कितना अहम है या किस तरह कर बेहतर कर सकते हैं। कई बार कैंसर रोगियों के लिए थोड़ा बहुत खाना भी एक चुनौती है।
कैंसर में डर और जागरूकता की कमी ने लोगों को विज्ञान की दिशा में सोचने से ज्यादा मिथकों पर विश्वास करना सिखाया है। कैंसर जीवन को बदल देने वाली गंभीर बीमारी है। कैंसर से जूझ रहे रोगियों के अलावा यह उनकी देखभाल करने वालों, विशेषकर परिवार के सदस्यों के लिए भावनात्मक रूप से थका देने वाला और समान रूप से चुनौतीपूर्ण होता है। कैंसर के रोगियों को कई बार अत्यधिक भय, असहायता की भावना और संबंधित मानसिक समस्याओं से जूझना पड़ता है, जिन्हें परिवार द्वारा तुरंत देखे जाने या हल करने की आवश्यकता होती है। ऐसे में अगर परिवार वाले खुद ही मिथकों और गलतफहमियों का सहारा लेते हैं, तो यह इलाज में बाधा का कारण बन सकता है।
यह सच है कि किसी के लिए अलौकिक शक्ति पर विश्वास महत्वपूर्ण होता है। प्रार्थना या उम्मीद भी जरूरी है। पर यहां यह ध्यान देना होगा कि इससे वे चिकित्सा से दूर न जाएं। अनामिका मजूमदार (नाम बदला हुआ) कोलकाता के निजी अस्पताल में साल 2019-20 के दौरान कैंसर का चिकित्सा करा रही थीं। कीमोथेरपी के विषय में वह बताती हैं, “कैंसर एक तरह से जहर है जो हमारे शरीर को नुकसान पहुंचा रहा है। कीमो भी एक तरह का जहर ही है। जहर ही जहर को काट सकता है। इसलिए इसका इस्तेमाल किया जाता है।” ऐसे विचार भले तत्काल इलाज में बाधा न डालें, लेकिन कैंसर से हमारी लड़ाई को कमजोर जरूर बनाते हैं।
कैंसर संक्रामक नहीं है
नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन के एक शोध के अनुसार कैंसर के कारण के संबंध में पहचाना गया प्रमुख मिथक यह था कि लोग यह मान रहे थे यह संक्रामक है। दो प्रतिभागियों ने रोगी से उनके परिवार के सदस्यों में कैंसर के संचरण के बारे में अपना डर व्यक्त किया। कैंसर के कारण के बारे में उन्होंने दूसरी प्रमुख आम धारणा यह व्यक्त की कि कैंसर किसी अलौकिक कारण से हुआ है। वैज्ञानिक अध्ययन दिखाए जाने पर प्रतिभागियों के बीच वैज्ञानिक तथ्यों को नकारने का रवैया भी देखा गया। प्रतिभागियों में से आधे को कैंसर की देखभाल के कारण वित्तीय बोझ के बारे में चिंता थी। वहीं 42 फीसद ने महसूस किया कि वे समय और एनर्जी के मामले में परिवार पर बोझ हैं। कैंसर के इलाज के बारे में आम ग़लतफ़हमी यह भी थी कि सर्जरी या बायोप्सी से कैंसर फैल सकता है और हर्बल उत्पाद कैंसर को ठीक कर सकते हैं।
आज भारत में कैंसर से लाखों लोग ग्रसित हो रहे हैं। कैंसर आर्थिक, मानसिक और शारीरिक रूप से चुनौतीपूर्ण होता है। इसलिए, जितना ज्यादा हो सके इसके लिए तैयार रहना चिकित्सा को आसान बनाएगा। लेकिन हर जाति, समुदाय और धर्म से जुड़े लोगों को यह समझना होगा कि कैंसर न ही यह दैवीय शक्ति के नाराज होने से होता है और न ही यह पिछले जन्म के फल हैं। यह उतना ही सामान्य है जितना कि सर्दी या जुकाम होना। कैंसर का मतलब सिर्फ ‘मौत’ है या बुरे कर्मों के कारण ही व्यक्ति को कैंसर होता है, ऐसी सोच के कारण अक्सर कैंसर के निदान और इलाज में मुश्किल होती है। हालांकि किसी भी रोग में रोगी महत्वपूर्ण होता है, लेकिन कैंसर में बिना पारिवारिक सहारे और साथ के इलाज करा पाना और उससे बाहर निकालना मुश्किल होता है। कैंसर रोगी यह समझें कि आपके बाल, खूबसूरती या आप कैसे दिख रहे हैं आपको परिभाषित नहीं करता और न ही आप परिवार पर बोझ हैं।