इंटरसेक्शनलजेंडर भारत के एक छोटे शहर में अंतरधार्मिक शादी करने की कोशिश का अनुभव 

भारत के एक छोटे शहर में अंतरधार्मिक शादी करने की कोशिश का अनुभव 

"मेरे साथियों ने मुझसे कहा कि मुझे यह फैसला टाल देना चाहिए क्योंकि इस वजह से बहुत लड़कियों की पढ़ाई छुड़वा दी जाएगी। किसी ने कहा कि इस वजह से किसी की जान चली जाएगी, शहर में दंगे हो जाएंगे, सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ जाएगा। किसी ने कहा कि इस फैसले से उनके घर पर प्रभाव पड़ेगा। कोई कहता कि तुम्हारा विचार सही है लेकिन अभी के माहौल में मुमकिन नहीं है।"

मैंने पिछले कुछ सालों में जिन भी लड़कियों को पढ़ाया है, उनमें से अधिकतर लड़कियां कहती हैं कि उन्हें कभी शादी नहीं करनी। चाहे वह बड़ी-बड़ी इमारतों वाले निजी विद्यालय में पढ़नेवाली छात्रा हो या सरकारी विद्यालय की या दिन भर झुग्गी संभाल शाम में पढ़ने आई बच्ची हो। सब एक ही बात दोहराती हैं कि उन्हें शादी करनी तो नहीं है, लेकिन करनी ही पड़ेगी। थोड़ा सोचने पर समझ आता है, शायद शादी के संस्थान में हमारे लिए कुछ है ही नहीं। हमारे लिए शादी का अर्थ यदि अपना घर छोड़कर जाना होगा, घर के सारे काम अकेले करना होगा, सारा पारिवारिक बोझ उठाना होगा तो कोई क्यों ही करना चाहेगा शादी।  

समाज ने इस बारे में सोचा ही नहीं कि लड़कियां विवाह क्यों नहीं करना चाहती। इस सवाल में उलझने से कहीं ज़्यादा आसान उसे महिलाओं पर हावी होना और उन पर अपने फैसले थोपना लगता है। मैं भी पूरे बचपन यही कहती थी कि शादी भी कोई करने की चीज़ है और जब नानी कुछ बेस (राजस्थानी पोशाक) अपनी पेटी में रखते हुए कहती कि यह तेरे भात के लिए हैं तो मैं ख़ूब लड़ती। अब मैं फिर से लड़ रही हूं, पिछले एक वर्ष से ख़ुद से और करीब दो महीनों से समाज से लेकिन वह भी शादी करने के लिए। 

ग्यारहवीं क्लास में मेरी एक लड़के से पहचान हुई। हम दोनों बचपन में एक ही इलाके में रहकर भी बहुत अलग थे। हमारे अनुभव, किस्से, परिवार, स्मृतियां, धर्म, सबकुछ इतना अलग था कि हमारी एक दूसरे को जानने -मझने की ललक पूरी ही नहीं होती। कई साल बात करने के बाद लगा कि हम तो प्रेम वगैरह करने लगे हैं। इतनी अलग पृष्ठभूमि और सोच के व्यक्ति जब रिश्ते में होते हैं और लोकतांत्रिक होते हैं, तो रिश्ता चलाना संसद चलाने जैसा लगता है। हम रवीश कुमार की ‘इश्क़ में शहर होना’ जैसा जीवन जी रहे थे। फिर कोरोना में हम अपने शहर लौटे। 

यह सोचकर कि महानगरों में तो हम जैसों के लिए ठीक-ठाक जगह है ही (अब तो वहां भी नहीं लगती) लेकिन हमारे क़स्बे में भी तो कोई जगह बने। हमारा शहर झुंझुनूं, राजस्थान है जहां हिन्दू और मुस्लिम समुदाय की करीब करीब आधी-आधी आबादी है। बुज़ुर्ग कहते हैं कि यहां कभी कोई दंगा नहीं हुआ। पिछले वर्षों में हमने यहां ख़ूब साम्प्रदायिक माहौल फैलाने की कोशिशों को नाकामयाब होते हुए देखा है। लौटकर, हमारी कुछ दोस्तों की टोली ने यहां खूब घुमाई की, चाय की दुकानों पर बैठे, मन मुताबिक बातें की। लगा जैसे झुंझुनू में ही दिल्ली बन गया है। 

अब पिछले एक साल से, विवाह संस्थान के हम घोर विरोधी, शादी की बातें करने लगे। जैसे ही यह बात साझा की, अचानक सबको लगा कि मेरे जीवन में सब बदल जाएगा। मैं बाहर कैसे आऊंगी। मज़ाक में ही सही लेकिन दोस्तों ने कहा कि अब तुम्हें उसके यहां घूंघट में देखेंगे। हम कहते कि हम ऐसे ही रहेंगे तो सब हंस लेते। सारी बच्चियां ही तो कहती हैं कि वे कभी अगले घर नहीं जाएंगी। मेरी बातें भी सबको वही बचकानापान लगती। थोड़ा गंभीर होने पर लोग घबराते और कहते, “अब तुम धर्म बदलोगी?” हम स्पेशल मैरिज एक्ट की बात करते तो जवाब आता “अच्छा कोर्ट में करनी है। फिर तो समाज का दबाव आएगा। तुम झेल तो लोगे? भाई इससे तो हमारे बिज़नेस पर भी असर पड़ेगा। चलो तुम्हें खूब साथ लेकिन हम झंडे लेकर नहीं खड़े होंगे साथ। तुम कर तो लोगे न? देखो पहले ही स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमसे नहीं हो रहा। तुम अपने घरवालों की इच्छा का भी ध्यान रखना। अरे! हमारे घरवाले क्या कहेंगे, हमें तो तुमसे दूरी बनानी होगी।”

मैं कहती कि मेरी मां प्रेम को समझती हैं और न ही अब तक इस हिंदू मुस्लिम नफ़रत का शिकार बनी हैं। “ओह हां, उन बेचारी के पास क्या विकल्प है। तुम तो वैसे भी उनकी नहीं सुनती और वो सिर्फ़ तुम पर निर्भर हैं।” मेरे परिवार में सिर्फ़ मैं और मेरी माँ हैं। इसीलिए सब समझने की बजाय उन्हें ‘बेचारा’ ही मानते हैं। भले ही उन्होंने अपने जीवन में कुछ भी किया हो। उनकी हिम्मत की खूब दाद देते हैं लेकिन फिर भी बेचारा मानते हैं। और यूं पिछले कुछ साल से जो हमारी कल्पनाओं में एक नया समाज बन रहा था, एक झटके में धाराशाही हो गया। सब दोस्त थे लेकिन फिर भी कोई हिंदू था, कोई मुस्लिम।

विदाई की प्रथा पितृसत्ता की नींव है

मुझे लगता है कि विदाई से ज़्यादा महत्वपूर्ण इस समाज में कुछ नहीं है। लगभग हर धर्म में यह प्रथा व्याप्त है। सोच कर बड़ा हास्यास्पद सा लगता है कि सब रोते हैं, फिर भी रस्म अदा करते हैं। यही विदाई एक बड़ा कारण है लैंगिक भेदभाव का, कन्या भ्रूण हत्या का, बचपन में असमान व्यवहार का, संपत्ति के अधिकार न मिलने का आदि। यदि लड़कियों को किसी और घर का हिस्सा मानने जैसी सोच को ही नहीं बदलेंगे तो उस पर आधारित बातें कैसे बदलेंगी? बड़े-बड़े कलाकार, खिलाड़ी जिनका निजी जीवन इस प्रथा से प्रभावित भी नहीं होता, वो भी अपने समारोह में विदाई की प्रथा को तो निभाते ही हैं। सामाजिक स्तर पर इसे चुनौती देने की ज़रूरत है।

इन दिनों तो लग रहा है कि लोगों को हिंदू-मुस्लिम से ज़्यादा दिक्कत इस बात से है कि मैं अपना घर छोड़कर अगले के घर क्यों नहीं जा रही हूं? हम दोनों के परिवार, समाज, प्रशासन, यहां तक कि महिला विभाग से भी यह बात नहीं पचती। ऐसे तो इनकी सामाजिक व्यवस्था में दिक्कत आ जाएगी और सारी संस्कृति को ढोने का ज़िम्मा महिलाओं का ही तो है।

एनसीईआरटी की कक्षा 6 में विविधता समझाते वक्त भले ही विवाह के कई तरीकों में फेरे और निकाह के साथ कोर्ट मैरिज का भी ज़िक्र है। लेकिन असलियत में किसी को संवैधानिक तरीकों से लगाव नहीं है। लगाव तो दूर, स्वीकार्यता ही नहीं है। संविधान की उद्देशिका के तले कुर्सी डाल बैठे कलेक्टर के पीए भी बिना मतलब बुलाकर फाइल देख, निजता के अधिकार की धज्जियां उड़ा देते हैं।

स्पेशल मैरिज एक्ट, साल 1954 में बना था यह कानून, पर आज भी इसे सामाजिक स्वीकार्यता नहीं मिली है। अपनी शादी की इच्छा का रास्ता खोजने, हमने वकील से जानकारी लेने का मन बनाया। उन्होंने कहा गाज़ियाबाद करवा देते हैं, मंदिर में कर लो, मस्ज़िद में कर लो, आर्य समाज से कर लो। विशेष विवाह अधिनियम के बारे में अधिकतर को तो जानकारी ही नहीं थी। जिन्हें थी वो भी इसे बचना चाहते थे और किसी और तरह निपटाना। कहते कि, “तुम्हें शादी ही तो करनी है। कैसे भी निपटा लो।” फिर कोई 50 हज़ार, तो कोई 5 हज़ार में करवाने के लिए तैयार होता। क्योंकि हर विभाग की तरह फाइल को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें आगे पैसे भी खिलाने हैं और सारी प्रक्रिया बिना पारदर्शिता के। समाज के तथाकथित महत्त्वपूर्ण संस्थान के बारे में हमारी बस इतनी ही समझ है। धनक, एनजीओ की सहायता से मालूम हुआ कि वकील की तो कोई ज़रूरत ही नहीं है।

हम स्पेशल मैरिज एक्ट की बात करते तो जवाब आता “अच्छा कोर्ट में करनी है। फिर तो समाज का दबाव आएगा। तुम झेल तो लोगे? भाई इससे तो हमारे बिज़नेस पर भी असर पड़ेगा। चलो तुम्हें खूब साथ लेकिन हम झंडे लेकर नहीं खड़े होंगे साथ। तुम कर तो लोगे न? देखो पहले ही स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमसे नहीं हो रहा। तुम अपने घरवालों की इच्छा का भी ध्यान रखना। अरे! हमारे घरवाले क्या कहेंगे, हमें तो तुमसे दूरी बनानी होगी।”

फिर हम कोर्ट में भटके। जहां हर जगह की तरह घुसते ही लोग घूरते हैं कि लड़की क्या कर रही क्योंकि कस्बों के कोर्ट में दूर दूर तक एक दो अपवाद छोड़ सिर्फ पुरुष दिखाई देते हैं। जिन्हें जानना होता है कि लड़की कौन है। स्टाम्प पेपर खरीदो तो वहां से खरीदने वाले का नाम और स्टाम्प लेने का कारण, कुछ निजी नहीं है। समाज के ठेकेदार किसी की भी निजता को लांघ सकते हैं। सब कर के, जब फाइल लेकर प्रशासन के सामने जाते हैं, तो वो कागज़ जांचने के बजाय हमारे और गवाहों के नाम में दिलचस्पी रखते हैं। फिर कोई दो दिन तक एडीएम का इंतज़ार करवाता है और कोई उनके आने पर बताता है कि यह तो डीएम का काम है। जब तक समाज तक बात न पहुंच जाए, तब तक प्रशासन सिर्फ़ इधर-उधर घुमाता है।

एनसीईआरटी की कक्षा 6 में विविधता समझाते वक्त भले ही विवाह के कई तरीकों में फेरे और निकाह के साथ कोर्ट मैरिज का भी ज़िक्र है। लेकिन असलियत में किसी को संवैधानिक तरीकों से लगाव नहीं है। लगाव तो दूर, स्वीकार्यता ही नहीं है। संविधान की उद्देशिका के तले कुर्सी डाल बैठे कलेक्टर के पीए भी बिना मतलब बुलाकर फाइल देख, निजता के अधिकार की धज्जियां उड़ा देते हैं।

समाज के दबाव में फिर मां भी कहती है कि, कोर्ट मैरिज क्यों करनी है ? लोग सवाल करेंगे। कुछ प्रोग्राम कर दूँ? अब आप भी अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर ये मत समझना कि माता ममता के कारण इतनी हिम्मत कर रही हैं। यह हम दानों की एक दशक के रोज़ के वाद-विवाद व उनके लॉकडाउन में एन.सी.ई.आर.टी पढ़ने का नतीजा है। मैं मम्मी से कहती हूं कि आप जाने दो सारी समाज की सिखाई हुई जिम्मेदारियां। मैं कर लूंगी कोर्ट के काम। “सब तुम करोगी ? लड़का कुछ नहीं करेगा? उसको नहीं पता ना यह सब ज़्यादा। उसका कार्यक्षेत्र अलग है। “फिर लड़का क्या हुआ।” इतने नियम तोड़ रही हो तो लड़का- लड़की से भी ऊपर उठ जाओ। 

पूरा समाज अब एक सूत्र होकर हमारी शादी को रोकना चाहता था। रोकने वाले धर्म से ऊपर उठकर साथ हो गए थे। व्हाट्सएप पर मैसेज चल रहे थे, लड़की को समझाओ, कोर्ट में अपने ही लोग हैं, रुकवाओ, लड़के को धमकाओ, हर जगह मुस्लिम हैं और उनसे समाज की लड़कियों को कैसे बचा सकते हैं, लव जिहाद को रोकना है। कोई टीना डाबी के तलाक का उदाहरण दे रहा था और कोई श्रद्धा केस का।

समाज जिन लैंगिक भूमिकाओं को विवाह से जोड़ता है, वह मानवीय मूल्यों को ख़त्म कर रही हैं। जैसा कमला भसीन कहती थी, पुरुष अपनी मर्दानगी के चक्कर में मानवीयता से दूर हो गए हैं। हमारी कहानी में मेरे साथी का भावुक होना और थोड़ा सहनशील होकर शांति से समाज के दबाव को झेलना भी अलग समस्या है। फिर सबको लगता है कि वह तथाकथित मर्द नहीं है। विवाह की संस्था में तो पुरुष को रक्षक, पालन-पोषण करने वाला, हर दृष्टिकोण से महिला से बेहतर होना होता है। कितनी बचकानी बातों से ग्रसित हैं हम। फॉर्म भरते हुए हमें पति, पत्नी जैसे शब्द इतने चुभ रहे थे। इन शब्दों में गैर बराबरी निहित है। और हमारा समाज भयंकर तरीके से बदलाव विरोधी है। इन छोटी-छोटी बातों को ठीक करने की कोशिश तो पता नहीं कब होगी।

ख़ैर, समाज ने हमें कोर्ट में देखा, कुछ लोगों ने बिना पूछे तस्वीरें ली और फिर हुआ व्हाट्सएप ग्रुप का तमाशा। मुझे अचानक एहसास कराया गया कि मैं जाट हूं और मुझे एक मुसलमान लड़के ने फंसा लिया है। पापा की मृत्यु के बाद जिस घर से निकाल दिया गया था, अचानक उस गांव को पता चला कि मैं तो गाँव की बेटी हूं। मेरे घर में तो कोई पुरुष भी नहीं है तो उनकी विशेष ज़िम्मेदारी है मुझे बचाना। मैं व्यस्क हूं, माँ सालों से नौकरी करती हैं लेकिन हम महिला हैं। मेरे ही परिवार की एक करीबी महिला ने सीधा मुझे ही कह दिया, “कोई और होता तो हम इतना नहीं संभालते पर पापा नहीं हैं तो अब ज़रूरी है।” कुछ लोगों ने कहा कि तुम्हारे पापा होते तो तुम कभी यह हिम्मत नहीं कर पाती। इसका सारा दबाव माँ पर आ जाता है और समाज उनके जीवनभर के संघर्ष को नगण्य कर देता है। 

फॉर्म भरते हुए हमें पति, पत्नी जैसे शब्द इतने चुभ रहे थे। इन शब्दों में गैर बराबरी निहित है। और हमारा समाज भयंकर तरीके से बदलाव विरोधी है। इन छोटी-छोटी बातों को ठीक करने की कोशिश तो पता नहीं कब होगी।

पूरा समाज अब एक सूत्र होकर हमारी शादी को रोकना चाहता था। रोकने वाले धर्म से ऊपर उठकर साथ हो गए थे। व्हाट्सएप पर मैसेज चल रहे थे, लड़की को समझाओ, कोर्ट में अपने ही लोग हैं, रुकवाओ, लड़के को धमकाओ, हर जगह मुस्लिम हैं और उनसे समाज की लड़कियों को कैसे बचा सकते हैं, लव जिहाद को रोकना है। कोई टीना डाबी के तलाक का उदाहरण दे रहा था और कोई श्रद्धा केस का। कई दिन फोन बजते रहे, हर रोज़ कोई घर आ जाता अपनी ज़हरीली बातें कहने। किसी को कुछ सुनना तो था ही नहीं। ना हमारी कहानी, ना मां के विचार। कोई ज़ी न्यूज़ से सीखी हुई अजीबो-गरीब बातें बता रहा था। कोई कह रहा था कि वह लड़का मां की प्रॉपर्टी लेना चाहता है क्योंकि बेटी का थोड़ी ना कोई हक़ होता है, बेटे के अभाव में कोई और बेटा चुन लिया जाता है। जो कुछ लोग साथ थे, उन पर दबाव डाला गया। मैं जिस विद्यालय में पढ़ाती थी, उनके लिए अब मैं गलत शिक्षा का प्रचार करने वाली व्यक्ति थी, तो नौकरी का जाना लाजमी था। मेरे साथी के ऑफिस के साथी अब उसके साथ ऑफिस की जगह साझा नहीं कर सकते थे, तो वह भी अब बेरोज़गार था।

श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए
श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

हमारा समाज नफ़रत के नशे में पागल हो गया है। जो दोस्त हमारे साथ को बचपन से देख रहे हैं, उन्हीं का कहना था कि “यह शादी झुंझुनूं में नहीं होने देंगे क्योंकि इससे हमारा हिन्दुत्व खतरे में पड़ता है”। मेरे परिवार के मामा, चाचा, ताऊ के पास (क्योंकि मां एक महिला हैं और उनकी राय का क्या करना है) रोज़ आर.एस. एस, बजरंग दल, भाजपा के नेता आते और कुछ करने की सलाह देते। वो इस प्रेम को लव जिहाद का नाम देने के लिए मेरे परिवार का साथ चाहते थे।

जिन लोगों को मैं जानती नहीं, वो मुझे अपनी बहन मान रहे थे और मेरे साथी को मारना चाहते थे। (हालांकि मुझे लगता है कि यह सब बस फैलाई गई अफ़वाहें थी ताकि शादी रुके, लेकिन देश के वर्तमान हालातों में ख़ौफ़ से बचना मुश्किल है) कोई कहता कि “उस लड़की को उसी के साथ बहुत मज़ा आता है क्या, हम बताते हैं उसे कभी”। कुछ नेताओं ने कहा कि “बाहर कर लेती, यहां करने की क्या ज़रूरत थी।” कितनी शर्म की सी बात लगती है उनका यह स्वीकारना कि वो इस शहर में लोकतंत्र स्थापित नहीं कर पाए और हमारे मूलभूत अधिकार के लिए हमें कहीं और जाना चाहिए।

“मेरे साथियों ने मुझसे कहा कि मुझे यह फैसला टाल देना चाहिए क्योंकि इस वजह से बहुत लड़कियों की पढ़ाई छुड़वा दी जाएगी। किसी ने कहा कि इस वजह से किसी की जान चली जाएगी, शहर में दंगे हो जाएंगे, सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ जाएगा। किसी ने कहा कि इस फैसले से उनके घर पर प्रभाव पड़ेगा। कोई कहता कि तुम्हारा विचार सही है लेकिन अभी के माहौल में मुमकिन नहीं है।”

और यह शहर क्या सिर्फ़ उनका है?

शायद इससे पहले यहां ऐसी कोई कहानी 1999 में थी जहां लड़की मुस्लिम धर्म से थी और लड़का हिंदू। तब इसी जाट समाज ने जश्न मनाया था और लड़के का साथ दिया था। आज मुस्लिम समाज की तरफ़ से भी बातें उठी, “हमने बदला ले लिया।” कुछ ने कहा कि “हिंदू लड़कियां तो हम भी बहुत पटाते थे, लेकिन शादी तो ईमान के बारे में सोच कर अल्लाह में यकीन करने वाली महिला से ही करनी चाहिए।” 

हर जेंडर के व्यक्ति को 1947 में समान अधिकार देने वाले हमारे देश में महिलाओं की पसंद या इच्छा पूछे बिना धर्म बचाया जाता है। उन्हें पटाया जाता है और हासिल किया जाता है। महिला को किसी वस्तु की तरह न देखना अभी तक समाज ने सीखना भी नहीं शुरू किया।

14 अप्रैल को मैं एक दोस्त के साथ आंबेडकर जयंती के एक आयोजन में गई थी। वहां हमारे शहर के विधायक, सभापति जो महिला हैं, अन्य नेता, कलेक्टर और एसपी ने बाबा साहेब के विचारों के बारे में बताया और उनके सपनों का भारत बनाने के लिए कार्य करने की शपथ ली। दर्शकों में हिंदू-मुस्लिम साथ बैठे थे। जिस झुंझुनूं के विचार को हम आज तक रोमांटिसाइज करते आए हैं, सब वही बातें कर रहे थे। हम बस सबको देख रही थी। हमें कौन जानता था। सबने बस हमें पीछे मुड़कर कुछ देर देखा क्योंकि हम महिला थी और उनका यूं रैली में बिन बुलाए जाना आम बात नहीं थी। 

वैसे तो यह सारी बातें बहुत निजी थी, लेकिन ‘पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ मेरे दिमाग में गूंज रहा था। मेरे साथी के घरवालों ने उसे डर से कुछ दिन बाहर भेज दिया। जिस शहर में जीने का सपना लेकर हम एक नया जीवन गढ़ रहे थे, वह सबने छीनने की कोशिश कर ली। मेरे साथियों ने मुझसे कहा कि मुझे यह फैसला टाल देना चाहिए क्योंकि इस वजह से बहुत लड़कियों की पढ़ाई छुड़वा दी जाएगी। किसी ने कहा कि इस वजह से किसी की जान चली जाएगी, शहर में दंगे हो जाएंगे, सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ जाएगा। किसी ने कहा कि इस फैसले से उनके घर पर प्रभाव पड़ेगा। कोई कहता कि तुम्हारा विचार सही है लेकिन अभी के माहौल में मुमकिन नहीं है। मैं सोचती कि इतने मायूस हालात हैं तो आओ, मोहब्बत फैलाने के लिए कुछ करें और दंगाईयों की भीड़ के सामने संविधान लेकर चलें। लेकिन कौन सुनता। सबके पास कहने के लिए बहुत कुछ था। लेकिन वे लोग मोहब्बत को रोक कैसे सकते हैं, जब वो इसे देख ही नहीं सकते?


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