हाल ही में झारखंड के दुमका में एक स्पेनिश महिला के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना हुई। द हिन्दू में छपी रिपोर्ट बताती है कि पुलिस सूत्र के मुताबिक, इलाके से गुजर रहे आठ लोगों ने उनके पति के साथ मारपीट की और महिला के साथ बलात्कार किया। कथित अपराधियों ने उनके रुपये भी लूट लिए। पुलिस ने इस मामले में अब तक आठ लोगों को गिरफ्तार किया है। यह घटना राज्य की राजधानी रांची से लगभग 300 किलोमीटर दूर हंसडीहा थाना क्षेत्र के कुरुमाहाट में हुई, जब स्पेन का यह पर्यटक जोड़ा एक अस्थायी तंबू में रात बिता रहा था। दोनों दो मोटरसाइकिलों पर बांग्लादेश से दुमका पहुंचे थे। वे बिहार और फिर नेपाल जा रहे थे। घटना के बाद झारखंड पुलिस ने पति को 10 लाख रुपये का मुआवजा भी सौंपा है।
जोड़े ने घटना का जिक्र करते हुए सोशल मीडिया पर ब्योरा भी दिया था। घटना के विवरण के बाद कई लोगों ने भारत में खासकर महिलाओं के यात्रा करने को असुरक्षित बताया। मामला तब और भी खराब मोड़ पर पहुँच गया जब राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) की प्रमुख रेखा शर्मा ने एक अमेरिकी पत्रकार पर भारत में पर्यटकों के यौन उत्पीड़न की घटनाओं को साझा करने के बाद देश को ‘बदनाम’ करने का आरोप लगाया।
हालांकि हमारे देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध की घटनाओं में कोई कमी नहीं है। लेकिन देश में सबसे चुनौतीपूर्ण है कि महिलाओं से न सिर्फ उम्मीद की जाती है कि वो अपनेआप को सुरक्षित रखेंगी बल्कि हिंसा हो तो उसका पूरा दायित्व भी उन्हीं को दे दी जाती है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा में समाज न ही समावेशी नजरिया अपनाता है न ही संवेदनशील मानसिकता दिखाता है।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों में संवेदनशीलता की कमी
कुछ सालों पीछे चलते हैं। कोलकाता के पार्क स्ट्रीट में एक महिला के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना होती है। घटना को महज इसलिए नकारा गया था कि महिला को कथित अपराधियों से मुलाकात नाइट क्लब में हुई थी। इस मामले पर मीडिया में व्यापक रूप से बहस हुई थी। कुछ राजनीतिक और सामाजिक टिप्पणीकारों ने महिला के चरित्र पर संदेह जताया और जल्द ही यह एक राजनीतिक मुद्दा बन गया था। जब महिला ने अपराध की रिपोर्ट की, तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें झूठा कहा और उनपर सरकार को शर्मिंदा करने की कोशिश का आरोप लगाया था। यह कोई एकलौती घटना नहीं थी जब महिलाओं के खिलाफ हिंसा में ऐसे बयान या रवैया दिखाई देते हैं। अक्सर यौन हिंसा से समाज महिला का रहन-सहन, घटना का समय या घटना की जगह को जोड़ने लगता है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा में यह जरूरी है कि हम समझे कि हिंसा महज इसलिए नहीं हो रही कि समाज में हिंसा हो रहे हैं। हिंसा, सत्ता और शक्ति का आपस में गहरा संबंध है।
विक्टिम ब्लेमिंग और महिलाओं की नैतिकता की जांच क्यों
इसे मनोरंजन की दुनिया का देन कह सकते हैं कि आम तौर पर यौन हिंसा का सामना कर चुकी महिलाओं के लिए जो छवि सबसे पहले लोगों के मन में आती है, वो डरी-सहमी, कमजोर महिला का है। ऐसी महिला जो यौन हिंसा की घटना को छिपाए, या रिपोर्ट दर्ज न करना चाहे, खुदको दोषी माने या समाज के सामने जाने से डरे या झिझके। हालांकि हमारी सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था में किसी भी महिला के लिए खुद के लिए खड़ा होना मुश्किल है, पर खासकर यौन हिंसा का सामना कर चुकी महिला के लिए बेबाक और अपने लिए खड़ा होना, आम जीवन जीना पितृसत्ता को मंजूर नहीं।
ये सच है कि हमारे देश में महिला की जाति और वर्ग हिंसा के कारक बनते हैं। लेकिन एक महिला यौन हिंसा का सामना किन कपड़ों में या कितने बजे की हैं, या आरोपियों से वह कहां मिली, ये सवाल दिखाते हैं कि समाज हिंसा के लिए महिला को ही जिम्मेदार मानना चाहता है। साथ ही, महिलाओं के खिलाफ हिंसा में पावर डाएनामिक्स पर भी बात करना जरूरी है।
हिंसा की जिम्मेदारी महिलाओं पर क्यों
प्यू अनुसंधान केंद्र ने भारतीय किस प्रकार परिवार और समाज में लैंगिक भूमिकाओं को देखते हैं, इसपर एक शोध किया। इस शोध के अनुसार लगभग एक चौथाई भारतीयों का कहना है कि देश में महिलाओं के खिलाफ ‘बहुत भेदभाव’ होता है। 16 फीसद भारतीय महिलाओं ने बताया कि 2019-2020 सर्वेक्षण से पहले 12 महीनों में उन्हें व्यक्तिगत रूप से अपने जेंडर के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा था। वहीं तीन-चौथाई वयस्क भारतीय समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा को एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में देखते हैं। महिलाओं की सुरक्षा में सुधार के लिए, लगभग आधे भारतीय वयस्कों का कहना है कि लड़कियों को ‘उचित व्यवहार करना’ सिखाने की तुलना में, लड़कों को ‘सभी महिलाओं का सम्मान करना’ सिखाना अधिक महत्वपूर्ण है। लेकिन लगभग एक चौथाई भारतीय यानि 26 फीसद इसका उलट मानते हैं और प्रभावी रूप से महिलाओं के खिलाफ हिंसा की जिम्मेदारी खुद महिलाओं पर डाल देते हैं।
वहीं प्यू के एक और सर्वेक्षण में 87 फीसद उत्तरदाताओं को यह लगता है, ज्यादातर या पूरी तरह से, एक पत्नी को अपने पति की आज्ञा का पालन करना चाहिए। लगभग 67 फीसद पुरुष पूरी तरह से मानते हैं कि पत्नी के लिए आज्ञाकारिता अनिवार्य है। वहीं अन्य लोग इस विचार का समर्थन करते हैं। एक ऐसे देश में जहां आज भी ऐसी मानसिकता है, वहां महिलाओं के खिलाफ हिंसा में महिला को ही उत्तरदायी मानना कोई हैरानी की बात नहीं। समाज का यह उम्मीद करना कि यौन हिंसा के बाद महिला निश्चित तरीके से जीवन जियेगी, समस्याजनक ही नहीं एक प्रकार से महिला के जीवन पर अधिकार है, उनके एजेंसी को छीनना है। महिलाओं की सोशल कन्डिशनिंग इस तरह होती है कि कई बार वे खुद भी पति के किए गए यौन हिंसा को सही समझती हैं। पबमेड सेंट्रल के भारत में लगभग 10000 महिलाओं पर किए गए एक अध्ययन में, 26 प्रतिशत ने बताया कि उन्हें अपने जीवनकाल के दौरान अपने जीवनसाथी से शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा है।
स्पैनिश महिला के मामले में न सिर्फ एनसीडब्ल्यू के प्रमुख ने यौन हिंसा पर देश की छवि का दलील दिया, बल्कि कई लोगों ने महिलाओं के अकेले भ्रमण को, तो कुछ ने भारत में भ्रमण को गलत बताया। असल में सवाल यह नहीं कि साथ में पति के होते हुए यौन हिंसा कैसे हुई। या आखिर क्यों वह भारत आई, या अकेले क्यों आई। सवाल यह है कि किसी भी महिला के लिए देश इतना असुरक्षित आखिर क्यों। बेशक कोई भी कानूनी लड़ाई लड़ने में समय और पैसों की सख्त जरूरत होती है। लेकिन क्या न्याय का पर्याय मुआवजा है और सुरक्षा का मतलब महिलाओं का घरों में बंद होना है?
बलात्कार के लिए फांसी की सजा पर बढ़ रहा यौन हिंसा
अक्सर ऐसा कहा जाता है कि बलात्कार के आरोपियों को इतनी कड़ी सजा देनी चाहिए कि वे ऐसी हिम्मत न करें। लेकिन इंडियास्पेन्ड में छपे एक रिपोर्ट अनुसार राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के उपलब्ध जेल सांख्यिकी भारत के अनुसार, 2018 में 186 दोषियों को मौत की सजा दी गई। साल 2017 में 121 से 53 फीसद की वृद्धि हुई। वहीं नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली की वार्षिक रिपोर्ट डेथ पेनल्टी इंडिया 2019 में कहा गया है कि 2018 में मौत की सजा पाने वालों में से 40 फीसद से अधिक और 2019 में 52.9 फीसद से अधिक को ऐसे मामलों के लिए दोषी ठहराया गया था जिनमें यौन अपराध और हत्या शामिल थे। यानि समस्या सख्त सजा की नहीं, मानसिकता और पावर डाएनामिक्स की है, जहां महिला को जवाबदेह माना जाता है।
अक्सर किसी भयानक यौन हिंसा की घटना के बाद, आम जनता में क्रोध और असंतोष दिखाई पड़ता है। इस प्रतिक्रिया के जवाब में सरकार का जल्द से जल्द यौन हिंसा से जुड़े मामलों में मौत की सजा सुना देना तत्काल सही लग सकता है, पर लंबे समय के लिए समस्याजनक है। इंडियास्पेन्ड से बातचीत में वरिष्ठ वकील और शोधकर्ता वृंदा ग्रोवर कहती है कि यह जनता की चिंताओं को शांत करने के लिए अपनाया गया एक शॉर्टकट है। उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि राज्य और सिस्टम मूलभूत परिवर्तन नहीं करना चाहते हैं जो वास्तव में यौन हिंसा का ग्राफ नीचे लाएंगे।
उदाहरण के लिए देश में किसी भी महिला के लिए अकेले भ्रमण करना एक चुनौती है। खासकर ऐसे इलाकों में जो कथित रूप से पिछड़े या असुरक्षित माने जाते हैं। ऐसे में सार्वजनिक जगहों, सार्वजनिक परिवहन और घर-परिवारों में भी सुरक्षा के लिए न सिर्फ सरकार बल्कि परिजनों की भी जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। यह किसी भी महिला की जिम्मेदारी नहीं वह असुरक्षित जगहों से खुदको बचाती चले। साथ ही, कौन सा स्थान या कौन से लोग चिंता का कारण है, इसे ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। महिलाओं के खिलाफ हिंसा से समुदाय में असुरक्षा और भय की भावना पैदा होती है। यह एक जटिल समस्या है जिसके लिए बहुआयामी दृष्टिकोण जरूरी है। ध्यान हिंसा होने के बाद ही नहीं, समस्या के जड़ तक पहुंचना होगा। सभी स्कूलों और कॉलेजों में जीवन कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम, लिंग संवेदीकरण और काम्प्रीहेन्सिव सेक्शुअल एजुकेशन जैसे प्राथमिक रोकथाम कार्यक्रमों से इसकी शुरुआत की जा सकती है।