हम अपने आस-पास सुनते हैं ना, व्यक्ति रंग में काला है तो तथाकथित निचली जाति से होगा और यदि गोरा है तो सवर्ण ही होगा। महिलाएं वही होती हैं जिनके बाल लंबे होते हैं, पुरूषों का शरीर लंबा और चौड़ा ही होता है। यह सभी उदाहरण सामाजिक निर्माणवाद के हैं। सामाजिक निर्माणवाद एक व्यक्ति के पूरे जीवन की सोच, फैसलों को निर्धारित करता है। अकादमिक परिभाषा में सामाजिक निर्माणवाद ज्ञान का एक सिद्धांत है जो मानता है कि जिन विशेषताओं को आम तौर पर अपरिवर्तनीय और पूरी तरह से जैविक माना जाता है।
जैसेकि लिंग, नस्ल, वर्ग, क्षमता और कामुकता, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भों के आधार पर मानव परिभाषा और व्याख्या के उत्पाद हैं। यानि मनुष्य ने अंतर के, अलग होने, दिखने के सिद्धांत गढ़े हैं। मोगली कार्टून आपको याद ही होगा, मोगली जानवरों में रहकर उन्हीं जैसा व्यवहार करता है। अगर कोई उसे जन्म से बता देता कि वह इंसान है और पुरुष है तो उसका व्यवहार अलग होता। ठीक इसी तरह समाज भी हमें बताते चलता है कि जन्म से कौन स्त्री है, कौन पुरुष और इसके तौर तरीके क्या होने चाहिए।
सामाजिक निर्माणवाद क्या है
इस अंतर में ख़ास दिक्कत महसूस नहीं होती। दिक्कत यह है कि ऐसे अंतर के आधार पर एक व्यक्ति को स्वतंत्र व्यक्ति के तौर पर स्वीकार नहीं किया जाए, उसे दबाया जाए, उसके जीवन को ‘जी हुजूरी’ में तब्दील कर दिया जाए तो लैंगिक भेदभाव का जन्म होता है। यहां हम विशिष्ट रूप से सामाजिक निर्माणवाद को जेंडर असमानता से जोड़ रहे हैं और यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि यह निर्माणवाद कैसे एक महिला को पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं रहने देता और उसके अंदर पितृसत्ता को ढोने रहने की आदत, सोच को प्रभावित करता है।
वहीं कैसे यह पुरुषों में पितृसत्तात्माक होने, बने रहने का दंभ भरता है। समाज के नियमों से भटकाव सजा का न्योता देता है। युमास अम्हरस्ट लाइब्रेरी पर ‘सोशल कंस्ट्रक्शनिज़्म’ शीर्षक से प्रकाशित लेख में लिखा गया है कि सामाजिक निर्माणवाद उन तरीकों पर प्रकाश डालता है जिनसे सांस्कृतिक श्रेणियां – जैसे ‘पुरुष’, ‘महिलाएं’, ‘काला’, ‘सफ़ेद’- संस्थाओं और संस्कृति के भीतर ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के माध्यम से बनाई, बदली और पुनरुत्पादित अवधारणाएं हैं। हालांकि इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि व्यक्ति विशेष में शारीरिक भिन्नताएं नहीं होती हैं। वे होती हैं।
कैसे सामाजिक निर्माणवाद भेदभाव को जन्म देती है
लेकिन इस आधार पर सांस्कृतिक तरीके से एक कैटेगरी बनाकर व्यक्ति विशेष के लिए एक खांचा बना देते हैं जिसके बाहर वह नहीं जा सकता है। उसकी सीमाएं तय कर दी जाती हैं जिसका उल्लंघन करने पर सजा भी मिलती है। उदाहरण के लिए, साल 1979 से 1980 के दशक के मध्य तक ईरान के शासक अयातुल्ला खुमैनी ने महिलाओं को कोई भी अधिकार देने वाले सभी कानूनों को समाप्त कर दिया और कुल 20 हजार महिलाओं को मौत की सजा सुनाई, जो अपने कपड़ों और व्यवहार में स्पष्ट नियमों का पालन नहीं करती थी। सामाजिक निर्माणवाद ने जेंडर विशेष नियमों की नींव रखी है। भारतीय परिपेक्ष्य में सामाजिक निर्माणवाद, जेंडर विशेष नियमों की नींव है। इसके अंतर्गत महिलाओं की शारीरिक बनावट, सौंदर्य, काम, स्त्रीत्व की भावनाएं, अलग हैं और पुरुषों के लिए की अलग।
लेकिन यह सिर्फ़ यहां तक सीमित नहीं है। भारत अनगिनत जातियों वाला देश है। अलग-अलग धर्म, नस्ल, भाषा, क्षेत्र भी यहां के सामाजिक निर्माणवाद का हिस्सा हैं। इसलिए, यहां के पुरुष और स्त्री सिर्फ़ शारीरिक तौर पर नहीं जाने जाते, बल्कि उनकी बनावट, रंग, बोली से उन्हें विशेष जाति, धर्म के खांचे में डाला जाता है। एक महिला अगर हिंदू है उसमें भी सवर्ण और कथित नीची जाति की उसकी पहचान के लिए एकदम अलग तरीके होते हैं। महिला मुस्लिम या अन्य समुदाय से हो तो पहचान के अलग तरीके। इन सभी मानदंडों के आधार पर भारतीय महिला को अनेक खांचों में बांधा गया है। एक महिला के जीवन के कई आयाम होते हैं। लेकिन सामाजिक दायरों के भीतर ही उससे हर काम करने की उम्मीद रखी जाती है जिससे वह स्वतंत्र व्यक्ति के तौर पर फैसले कम या ले ही नहीं पाती है।
सामाजिक निर्माणवाद और जेन्डर नॉर्मस
ऐसे जेंडर मानदंड पर प्यू रिसर्च सेंटर ने एक शोध जारी किया है। इस सर्वे में अलग-अलग जेंडर नॉर्म्स की कैटेगरी को रखा गया है एवं इस सर्वे में तीस हज़ार से ज़्यादा युवाओं के विचार लिए गए हैं। केवल एक चौथाई भारतीय वयस्क यह मानते हैं कि पुरुष महिलाओं की तुलना में बेहतर राजनीतिक नेता बनती हैं। लगभग दस में से नौ भारतीय इस धारणा से सहमत हैं कि एक पत्नी को हमेशा अपने पति की आज्ञा का पालन करना चाहिए, जिनमें लगभग दो-तिहाई इस भावना से पूरी तरह सहमत हैं। सर्वेक्षण के अनुसार, भारतीय पुरुषों की तुलना में भारतीय महिलाओं में यह कहने की संभावना थोड़ी ही कम है।
वे इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि पत्नियों को हमेशा अपने पतियों की बात माननी चाहिए। भारतीय वयस्क बड़े पैमाने पर कहते हैं कि जब नौकरियों की आपूर्ति कम होती है, तो पुरुषों को महिलाओं की तुलना में रोजगार के अधिक अधिकार होने चाहिए, जो आर्थिक क्षेत्र में पुरुषों की निरंतर प्रमुखता को दर्शाता है। दस में से आठ लोग इस भावना से सहमत हैं, जिनमें 56 प्रतिशत पूरी तरह सहमत हैं। लगभग दस में से चार भारतीय वयस्कों का कहना है कि बूढ़े माता-पिता की देखभाल की प्राथमिक जिम्मेदारी बेटों की होनी चाहिए, बेटियों के बारे में केवल 2 फीसद का यह कहना है। वहीं अधिकतर धर्मों, जाति में माता-पिता के अंतिम क्रिया कर्म को सिर्फ़ बेटे ही निभाते हैं।
जेंडर नॉर्म्स को न मानने का किसे है अधिकार
जेंडर नॉर्म्स को ना मानने पर पुरुष को समाज काफी रियायत देता है लेकिन महिला को नहीं। जैसे, पुरुष के शादी से बाहर प्रेम की बात जान कर भी पत्नियां चुप रह जाती हैं। पत्नियों के मामले में वे घर, परिवार आर अपने जीवनसाथी से बेरुखी और उत्पीड़न सहती है। इस मामले में मीरा (बदला हुआ नाम) अपनी विवाहित बेटी के परिपेक्ष्य में बताती हैं कि कैसे उसके पति के अवैध संबंध हैं। लेकिन इस मामले में चुप रहना ही उसके बेटी के विवाहित जीवन के लिए अनुकूल है। वहीं जब खुद मीरा की भाभी के अवैध संबंध थे, तो उसकी भाभी को घर से निकाल दिया गया था और घरेलू हिंसा भी की गई थी। बता दें उसका पति न सिर्फ शराबी है, बल्कि कोई कामकाज नहीं करता और अपनी पत्नी के साथ घरेलू हिंसा करता था।
“माता-पिता ने भाई से कहा कि वह अपनी मर्ज़ी की लड़की से शादी कर सकता है। उसे यह आज़ादी है। लेकिन मेरे मामले में वे अधिकतर कहते हैं कि फलां लड़का ढूंढेंगे, फलां जगह शादी करेंगे। मुझे वह अधिकार नहीं है और इस अधिकार को मैं खुद से अपनाना भी चाहूं तो मुमकिन है कि वह मेरे साथ हिंसा भी करें।”
वहीं कली (बदला हुआ नाम) अपने घर में शादी के ज़िक्र पर बताती हैं, “माता-पिता ने भाई से कहा कि वह अपनी मर्ज़ी की लड़की से शादी कर सकता है। उसे यह आज़ादी है। लेकिन मेरे मामले में वे अधिकतर कहते हैं कि फलां लड़का ढूंढेंगे, फलां जगह शादी करेंगे। मुझे वह अधिकार नहीं है और इस अधिकार को मैं खुद से अपनाना भी चाहूं तो मुमकिन है कि वह मेरे साथ हिंसा भी करें।” सामाजिक निर्माणवाद का एक नतीजा है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा और ज्यादा होती है।
प्यू रिसर्च सेंटर के रिपोर्ट अनुसार तीन-चौथाई भारतीयों का कहना है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा एक ‘बहुत बड़ी समस्या’ है। यह प्रतिशत उन लोगों की तुलना में अधिक है जो कहते हैं कि सांप्रदायिक हिंसा एक बहुत बड़ी समस्या है। 2010 और 2019 के बीच महिलाओं के खिलाफ अपराध के रूप में दर्ज पुलिस मामले लगभग दोगुने हो गए, और महिलाओं के बलात्कार और हत्याओं के कारण पूरे भारत में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। महिलाओं के प्रति हिंसा चाहे दहेज की वजह से हो, विवाहित संबंध में हो, परिवार में हो या उसे जन्म से पहले, बाद में हत्या हो, इसके गर्त में सामाजिक निर्माणवाद, जेंडर नॉर्म्स मौजूद हैं।