इतिहास काली बाई: 12 साल की उम्र में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए शिक्षक को बचाने के लिए जिसने दे दी थी जान

काली बाई: 12 साल की उम्र में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए शिक्षक को बचाने के लिए जिसने दे दी थी जान

काली बाई और सेंगाबाई जैसे गुरु और शिष्य का उदहारण इतिहास में बहुत कम देखने को मिलते  हैं। उन्होंने अपने गुरु को बचाकर पूरी दुनिया में गुरु शिष्य की एक नई पहचान कायम की है। काली के बलिदान से नई चेतना का आगाज़ काली बाई के बलिदान से आदिवासिओं में नई चेतना जागी।

राजस्थान की भूमि कई वीर और योद्धाओं  के नाम से पहचानी  जाती है। रानी लक्ष्मी बाई, रानी पद्मिनी की तरह ही वीरबाला काली बाई की कहानी भी शौर्य और स्वाभिमान का प्रतीक है। 12 साल की एक आदिवासी बालिका वीरबाला काली बाई ने अपना बलिदान देकर ब्रिटिशों के शासन में ही शिक्षा की एक ऐसी अलख जगाई थी जिसे आज भी याद किया जाता है। काली बाई को आधुनिक युग का एकलव्य माना जाता है। एकलव्य ने अपने गुरु के लिए अपने हाथ का अंगूठा काटकर दिया था। लेकिन काली बाई ने अपने गुरु की जान बचाने के लिए अपने प्राणों का ही बलिदान दे दिया।

काली बाई और उनके बलिदान का इतिहास  

काली बाई का जन्म जून  1935 में राजस्थान जिला डूंगरपुर के रास्तापाल गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम नवली देवी और  पिता का भील बासी सोमा बाई था। बलिदान की इस घटना के समय देश में ब्रिटिशों की हुकूमत थी। इस दौरान डूंगरपुर रियासत के शासक महारावल लक्षमण सिंह थे, जोकि अंग्रेजों की हुकूमत की सहायता से वहां पर अपना शासन चला रहे  रहे थे। उस समय के महान समाजसेवी भोगीलाल पंड्या ने एक जन आन्दोलन चलाया जिसके माध्यम से वो वहां की जनता को समाज में फैली कुरीतिओं को मिटाकर शिक्षा के लिए प्रेरित करने लगे।

जब पुलिस वालों की  गाड़ी सेंगाभई को घसीटते हुए ले जा रही थी, तभी 12  वर्षीय वीरबाला काली बाई ने अपने साहस का परिचय दिया था। वो अपने खेतों में हाथ में दराती लिए घास काट रही थी।

शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बाद वहां पर कुछ पाठशाला भी खोली गयी, जिसमें आस-पास के छोटे-बड़े सभी को शिक्षा दी जाती थी। महारावल लक्ष्मण को जब इन गतिविधिओं के बारे में पता चला, तो उनको चिंता हो गयी कि अगर जनता और किसान पढ़-लिख गए तो फिर वह अपने हक और अधिकार मांगेगे। इस तरह से जनता राजकाज में भी दखल देने लगेगी। इसे रोकने के लिए महारावल ने कुछ कानून बनाए और सभी पाठशालाओं को बंद करने का आदेश  दिया गया। मजिस्ट्रेट द्वारा पाठशाला बंद करने का काम शुरू किया गया। इस काम को पूरा करने के लिए पुलिस और सेना की भी मदद  ली  गयी।

क्या थी घटना  

इस दौरान रास्तापाल गाँव की पाठशाला के मालिक नानाभाई खाट और पाठशाला के अध्यापक सेंगाभाई थे। वह दोनों रास्तापाल के सभी भील वासियों को शिक्षा प्रदान करते थे । 19 जून 1947 को जब मजिस्ट्रेट के लोगों के साथ, पुलिस और सेना रास्तापाल की पाठशाला को ताला लगाने आए, तो वहां मौजूद नानाबाई और सेंगाभई ने ताला लगाने से मना कर  दिया। पुलिस वालों का आदेश ना मानने पर सैनिकों ने दोनों अध्यापकों को गाड़ी के पीछे बांधकर लाठियों से मारना शुरू किया।

तस्वीर साभार: द मूकनायक

फिर उनको घसीटकर अपने साथ ले जाने लगे। जब पुलिस उनको बेरहमी से पिटती हुई ले जा रही थी, तो उनकी असहनीय पीड़ा से नाना बाई ने रास्ते में ही अपना दम तोड़ दिया और सेंगाबाई बेहोश हो गये। वहां मौजूद भीलवासिओं की भीड़ ये सब देख रही थी। लेकिन किसी की पुलिस वालों के खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं हुई ।

जब पुलिस उनको बेरहमी से पिटती हुई ले जा रही थी, तो उनकी असहनीय पीड़ा से नाना बाई ने रास्ते में ही अपना दम तोड़ दिया और सेंगाबाई बेहोश हो गये। वहां मौजूद भीलवासिओं की भीड़ ये सब देख रही थी।

पुलिस कार्रवाई और काली का साहस का प्रदर्शन

जब पुलिस वालों की  गाड़ी सेंगाभई को घसीटते हुए ले जा रही थी, तभी 12  वर्षीय वीरबाला काली बाई ने अपने साहस का परिचय दिया था। वो अपने खेतों में हाथ में दराती लिए घास काट रही थी। सेंगाभई उनके अध्यापक थे। जब उन्होंने अपने अध्यापक की ऐसी हालत देखी  तो वो पुरे जोश और साहस के साथ हाथों में दराती लिए गाड़ी के पीछे अकेली ही ‘मेरे मास्टर को छोड़ दो’ ये चिल्लाते हुए भागने लगी। जब वो गाड़ी के पास पहुंची तो उसने पूरी निडरता के साथ पुलिस वालों को उसके मास्टर को छोड़ने के लिए कहा। जब पुलिसवालों ने इस बात से इंकार किया, तो उन्होंने खुद ही दराती के एक ही झटके से अपने मास्टर की रस्सी काट दी। उनके इस साहस को देख गाँव के बाकि लोग भी उसके पास आकर खड़े हो गए। पुलिसवालों का आदेश ना मानने पर सैनिक उनके पास बंदूक ताने खड़े हो गए। उनकी धमकियों की परवाह किए बिना वो अपने मास्टर की जान बचाने में लगी रही।

12 साल की काली पर गोलियों की बौछार

क्रोधित और निर्दयी सैनिकों ने उस 12 साल की बच्ची पर गोलिओं को बौछार कर दी। गोलियां लगने से वो जमीन पर गिर गई। काली बाई के साहस को देखकर पुरे भील वासी हथियार लिए वहां पहुंच गए। उन्होंने मारू ढोल बजा दिया। पुलिसवालों को मालूम था कि मारू ढोल मरने या मारने  का संकेत है, जिससे डर कर सभी सैनिक वहां से भाग गए। काली बाई और सेंगाबाई को अस्पताल ले जाया गया। 40 घंटे के इलाज़ के बाद वीरबाला काली बाई ने अपना दम तोड़ दिया। काली बाई ने  अध्यापक की जान बचाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान देकर गुरु और शिष्य के रिश्ते की एक अनूठी मिसाल दी है। इतनी भीड़ में मौजूद एक 12 साल की काली बाई ही अपने गुरु की जान बचाने के सैनिकों से  अकेली लड़ गयी।

काली बाई ने  अध्यापक की जान बचाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान देकर गुरु और शिष्य के रिश्ते की एक अनूठी मिसाल दी है। इतनी भीड़ में मौजूद एक 12 साल की काली बाई ही अपने गुरु की जान बचाने के सैनिकों से  अकेली लड़ गयी।

काली बाई और सेंगाबाई जैसे गुरु और शिष्य का उदहारण इतिहास में बहुत कम देखने को मिलते  हैं। उन्होंने अपने गुरु को बचाकर पूरी दुनिया में गुरु शिष्य की एक नई पहचान कायम की है। काली के बलिदान से नई चेतना का आगाज़ काली बाई के बलिदान से आदिवासिओं में नई चेतना जागी। आज काली  बाई के नाम पर डूंगरपुर में एक मैदान बनवाया गया है जिसमें काली बाई और नानाभाई की प्रतिमा भी बनाई गयी है। हर साल 19 जून को रास्तापाल  गाँव में मेले का आयोजन किया जाता है। इस दिन हजारों की संख्या में लोग एकत्रित होकर शहीदों  की प्रतिमा के सामने खड़े होकर उनको श्रधान्जली देते हैं। आधुनिक युग के मद्देनजर काली बाई ने जो किया है उनकी कहानी सभी के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।

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