इतिहास बेगम पारा: 1950 के दशक की बेबाक और निर्भीक बॉलीवुड अभिनेत्री

बेगम पारा: 1950 के दशक की बेबाक और निर्भीक बॉलीवुड अभिनेत्री

बेगम पारा किसी भी बने बनाए ढर्रे पर चलने की बजाय, अपनी शर्तों पर काम करती थीं। वह अपने मूल्यों पर अडिग विश्वास रखती थीं। बहुत कम फिल्मों में काम करने के बावजूद, उनकी ज्यादातर फिल्में सफल रहीं और उनका नाम उस जमाने की सबसे अधिक भुगतान पाने पाने वाली अभिनेत्रियों में शामिल है। बेगम पारा के बेबाक अंदाज और खूबसूरती के प्रशंसक भारत के अलावा विदेशों में भी थे। 

बेगम पारा 1950 के दशक की एक प्रसिद्ध बॉलीवुड अभिनेत्री थीं, जो ‘नील कमल’, ‘झरना’ और ‘कर भला’ जैसी फिल्मों में अपनी असाधारण सुंदरता और अभिनय के लिए जानी गई। उनकी आत्मविश्वास से से भरा हुआ अविश्वसनीय फैशन की समझ ने उन्हें सिनेमा जगत में एक प्रमुख नाम बना दिया था। जिस दौर में अभिनेत्रियों से शालीन, शांत और सौम्य पहनावे और वेशभूषा की उम्मीद की जाती थी, उस दौर में बेगम पारा ने साल 1951 में लाइफ पत्रिका के फोटो शूट के लिए फोटोग्राफर जेम्स बर्क के लिए खूबसूरत सादी सफेद साड़ी पहने साहसपूर्वक पोज़ किया और अपना नाम ग्लैमर क्वीन के रूप में दर्ज करवाया। उनके फोटोशूट के बाद, पारंपरिक भारतीय नारी की छवि से इतर, बेगम पारा ‘पिन अप गर्ल’ और ‘ग्लैमर क्वीन’ के नाम से भी मशहूर हुईं। बेगम पारा उस वक्त बॉलीवुड की पहली ऐसी अभिनेत्री थीं, जिन्होंने अपनी कथित बोल्ड और बेफिक्र अदाओं से लोगों का दिल जीता। बेगम पारा के इस अंदाज ने कई रूढ़ीवादी भारतीयों की मानसिकता में भी बदलाव लाया और सिनेमा जगत में एक नया आयाम स्थापित किया।

सबसे अधिक मेहनताना पाने वाली अभिनेत्री

बेगम पारा किसी भी बने बनाए ढर्रे पर चलने की बजाय, अपनी शर्तों पर काम करती थीं। वह अपने मूल्यों पर अडिग विश्वास रखती थीं। बहुत कम फिल्मों में काम करने के बावजूद, उनकी ज्यादातर फिल्में सफल रहीं और उनका नाम उस जमाने की सबसे अधिक भुगतान पाने पाने वाली अभिनेत्रियों में शामिल है। बेगम पारा के बेबाक अंदाज और खूबसूरती के प्रशंसक भारत के अलावा विदेशों में भी थे। बेगम पारा के जीवन के बहुत सारे अनूठे पहलू हैं जिनको जाने बिना उनके जीवन को पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता है।

बेगम पारा किसी भी बने बनाए ढर्रे पर चलने की बजाय, अपनी शर्तों पर काम करती थीं। वह अपने मूल्यों पर अडिग विश्वास रखती थीं। बहुत कम फिल्मों में काम करने के बावजूद, उनकी ज्यादातर फिल्में सफल रहीं और उनका नाम उस जमाने की सबसे अधिक भुगतान पाने पाने वाली अभिनेत्रियों में शामिल है।

बेगम पारा का आरंभिक जीवन 

25 दिसंबर 1926 को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के झेलम में एक कुलीन मुस्लिम परिवार में उनका जन्म हुआ हुआ। जन्म के समय परिवार ने प्यार से उनका नाम जुबेदा उल हक रखा। लेकिन जुबैदा की मां उन्हें पारा बुलाती थीं। जब वह बड़ी हो रही थी, तो उनका जीवन अनुशासित लेकिन उदार परिवेश में बीता। उनके पिता अंग्रेजों के ज़माने के एक जाने-माने न्यायाधीश थे और बीकानेर रियासत में कार्यरत थे। उनका बचपन भी वहीं बीता। 10 भाई-बहनों में बेगम पारा तीसरी संतान थीं। माता-पिता दोनों पढ़े-लिखे थे, इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को ऊंची से ऊंची शिक्षा के लिए प्रेरित किया। पारा ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से स्नातक की डिग्री ली। बेगम पारा कॉलेज के दिनों से ही बेबाक और निर्भीक थीं। पढ़ाई के दौरान उन्होंने घुड़सवारी, तैराकी, क्रिकेट और बैडमिंटन जैसे खेलों को खेलना सीखा।

अभिनय और क्रिकेट में रुचि

क्रिकेट में उनकी विशेष रुचि थी। वह बहुत अच्छा क्रिकेट खेलती थी। आगे उन्होंने सिनेमा जगत के कलाकारों के लिए नुमाइशी क्रिकेट करवाने का विचार भी दिया था। कॉलेज के समय उनके प्रिय अभिनेता मोतीलाल थे, जिन्हें वो कई बार पत्र भी लिखा करती थीं। वह फिल्मों में अभिनेत्री बनने का ख्वाब देखती थीं। उनकी यह हसरत तब पूरी हुई जब बंबई में उनकी मुलाकात उनकी भाभी और प्रसिद्ध अदाकारा प्रोतिमा दास से हुई। प्रोतिमा दास गुप्ता के साथ जब वो विभिन्न फिल्म स्क्रीनिंग समारोहों में गई तो उनकी जान-पहचान सिनेमा जगत के बनने लगी। हालांकि बेगम पारा के पिता मिया उल हक़ नहीं चाहते थे कि बेगम पारा फिल्मों में काम करें। लेकिन बेटी की अभिनय के प्रति रुचि देखकर, इस शर्त पर कि वह कभी लाहौर में फिल्मों में काम नहीं करेंगी, वह मान गए ।

पारा से बेगम पारा तक का सफर

फिल्मों में उन्हें पहला ब्रेक साल 1944 में फिल्म ‘चांद’ में मिला। उस समय उनकी उम्र महज 17 साल थी। इस फिल्म के लिए उन्हें 1500 रुपए मासिक वेतन मिला था। यह उस जमाने में एक अच्छी खासी रकम थी। फिल्म सुपरहिट रही। सफलता मिलने के बाद उन्हें अपना नाम खाली खाली सा लगता था, इसलिए उन्होंने पारा के आगे बेगम को जोड़ लिया। बॉलीवुड ने कभी भी उनकी सफलता के बावजूद, गंभीर अभिनेत्री नहीं माना। पारा ने कई फिल्में साइन कीं। लेकिन वह खुद को एक अभिनेत्री के रूप में स्थापित नहीं कर सकीं। उनकी छवि तत्कालीन सिनेमा की कहानियों के हिसाब से मेल नहीं खाती और कथित रूप से बेहद निंदनीय रही। इसलिए लोगों ने उन्हें ज्यादातर फिल्मों में ‘ग्लैमरस’ भूमिका ही दी। 

तस्वीर साभार: Homegrown

महिलाओं को कमजोर दिखाने वाले किरदारों से परहेज

कोई भी अन्य अभिनेत्री अपने ऊपर थोपे जा रहे इस प्रकार के वर्गीकरण पर चिंतित होती है। लेकिन बेगम को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्हें इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी। वह ‘ग्लैमरस डॉल’ का किरदार निभाकर बहुत खुश थीं क्योंकि वह स्क्रीन पर हमेशा अपना ही किरदार निभाती थीं। सन 1946 में आई फिल्म सोहनी महिवाल के बाद, बेगम पारा प्रसिद्धि युवा दर्शकों के बीच और भी ज्यादा बढ़ गई । साल 1940 से 1960 के दो दशकों के बीच बेगम पारा ने कुल 28 फिल्में की। बेगम पारा खुद को मायूस और दुखी एहसास वाले किरदारों से दूर रखा। इसलिए, उन्होंने हमेशा उन किरदारों का चयन किया और उन फिल्मों में काम किया जिसमें उन्हें महज ‘एक अबला नारी’ के रूप में नहीं दिखाया जा रहा हो। उन्हें महिलाओं को कमजोर दिखाने वाले किरदारों से नफरत थी। इसी वजह से फिल्म मुगल–ए आज़म में ‘बहार’ की भूमिका के लिए की कई पेशकश को इन्होंने ठुकरा दिया जिसे आगे चलकर अभिनेत्री निगार सुल्ताना ने अभिनीत किया। 

बेबाक और निर्भीक बेगम पारा

ऐसी और भी कई बातें हैं जो बेगम पारा को अपने ज़माने में सबसे अलग और ख़ास बना देती हैं। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि उन्हें सिगरेट से सख्त नफरत थी। लेकिन एक ऐसे दौर में जब महिलाओं के शराब पीने की बात को गलत ही नहीं; टैबू समझा जाता था, उन्होंने अपने शराब पीने की बात को बेबाक हो कर साझा की। बेगम पारा ने कभी भी खुद को सिनेमा जगत में या निजी जिंदगी में पहले से स्थापित मानदंडों में समायोजित करने की कोशिश नहीं की। उन्होंने वो किया जो उनके विचार में सही था। यह उनके निडर व्यक्तित्व की एक और झलक ही थी। वह कहती थी कि वह जानती हैं कि उनका कदकाठी (फिगर) अच्छा था और उन्हें पतलून, स्कर्ट और शर्ट पहनने में कोई आपत्ति नहीं थी, जो इन खूबियों को निखार कर बाहर लाए।

साल 1940 से 1960 के दो दशकों के बीच बेगम पारा ने कुल 28 फिल्में की। बेगम पारा खुद को मायूस और दुखी एहसास वाले किरदारों से दूर रखा। इसलिए, उन्होंने हमेशा उन किरदारों का चयन किया और उन फिल्मों में काम किया जिसमें उन्हें महज ‘एक अबला नारी’ के रूप में नहीं दिखाया जा रहा हो। उन्हें महिलाओं को कमजोर दिखाने वाले किरदारों से नफरत थी।

नारीवादी आईकॉन्स के बारे में एक आम ग़लतफ़हमी यह है कि वे परिवार से ज़्यादा अपने करियर को प्राथमिकता देती हैं।  बेगम पारा ने एक खूबसूरत अभिनेत्री होने के साथ-साथ, पत्नी और मां की दोहरी भूमिका भी बखूबी निभाई और इस रूढ़ि को भी तोड़ दिया। दिलीप कुमार के भाई, अभिनेता और प्रोड्यूसर नासिर खान से उनकी शादी हुई और उसके बाद तीन बच्चों के जन्म ने भी उनके कामकाजी जीवन के गतिविधियों में बाधा नहीं डाली। इसके बजाय, उन्होंने करियर और पारिवारिक जीवन दोनों की जटिलताओं से निपटने की अपनी क्षमता को प्रदर्शित किया। इस धारणा को चुनौती दी कि सफल महिलाओं को परिवार के लिए अपने काम का बलिदान करना होगा।

रूढ़िवादी समाज के उलट जीवन

जो लोग बेगम पारा को जानते थे, उन्होंने एक पत्नी और मां के रूप में उनकी उत्कृष्टता को गहराई से प्रमाणित किया। उन्होंने न केवल रूढ़िवादिता को ख़त्म किया, बल्कि जीवन के कई पहलुओं को संतुलित करने की उनकी क्षमता के प्रमाण के रूप में भी काम किया। ऐसा करके, उन्होंने इस कथन को खारिज कर दिया कि महिलाओं, विशेष रूप से बॉलीवुड में सुर्खियों में रहने वाली महिलाओं को परिवार और करियर के बीच चयन करना होगा। बेगम पारा की विरासत समय की सीमाओं से परे तक फैली हुई है। जीवन के प्रति उनका निडर दृष्टिकोण, बेबाक रवैया और अपने सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता उन्हें एक नारीवादी प्रतीक बनाती है जिसका प्रभाव आज भी कायम है। एक ऐसे उद्योग में जहां अनुरूपता अक्सर व्यक्तित्व पर हावी हो जाती थी, वह सशक्तिकरण के प्रतीक के रूप में खड़ी थीं।

उन्होंने आगे की पीढ़ियों को सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने और खुद की प्रामाणिकता का जश्न मनाने के लिए प्रेरित किया। 2007 में आई  फिल्म ‘सांवरिया’ में सिल्वर स्क्रीन पर उनकी आखिरी उपस्थिति थी। लेकिन उनकी विरासत कायम रही। अगले वर्ष 2008 में, वह इस दुनिया से चली गईं। पर बेगम पारा ने अपने पीछे एक सशक्त और बेबाकी से जीवन जीने की विरासत छोड़ गईं।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content