स्वयंसेवी संस्था क्रिया की जेंडर एंड वॉश टीम ने भारत के विभिन्न राज्यों में सफाई कर्मचारियों के हितों की रक्षा के लिए काम कर रहे विभिन्न नेतृत्वकर्ता व्यक्तियों के साथ वर्चुअल माध्यम से एक बैठक आयोजित की। सफाई कर्मचारियों के हितों के लिए पिछले तीन दशकों से ज्यादा समय से काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता मंजुला प्रदीप ने इस सेशन को मॉडरेट किया। इस बातचीत के पहले भाग को हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
इस बातचीत में महाराष्ट्र के ठाणे जिले की एसएनडीटी विश्वविद्यालय, मुंबई में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में काम कर रही डॉ. हेमांगी कडलक शामिल हुईं। डॉ. हिमांगी ने बताया कि 2007 में अपने शोध के दौरान तमिलनाडु के बस्तियों में काम करते वक्त उन्होंने देखा कि लोग मैनुअल स्कैवेंजिंग की प्रथा में लगे थे। उन्होंने यह भी पाया कि तमिलनाडु की स्थिति महाराष्ट्र की तुलना में ज्यादा खराब है। ऐसा इसलिए है क्योंकि महाराष्ट्र में लोग अंबेडकर आंदोलन और इस जैसे अन्य आंदोलनों की वजह से अपने अधिकारों के प्रति अधिक सजग हैं।
तमिलनाडु में सफाई कर्मचारियों में नशे की बहुत बड़ी समस्या है। वहां की एक और समस्या यह थी कि उसी समय तमिलनाडु में सरकारी कर्मचारियों को हाथ से मैला ढोने के लिए भर्ती किया गया था। वह बताती हैं कि अपने काम के दौरान एक लड़की ने मैनुअल स्कैवेंजिंग की प्रथा को सही ठहराया और कहा था कि कम से कम इससे घर में खाना आ रहा है और कपड़े तो पहन पा रहे हैं। डॉ. हिमांगी महसूस करती हैं कि अवसरों का अभाव और गरीबी ने सफाई कामगारों को जकड़ रखा है।
मैनुअल स्कैवेंजिंग महिलाओं के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण क्यों है
डॉ. हिमांगी बताती हैं कि तमिलनाडु के एक समुदाय से मिलने के दौरान वह बेहद आश्चर्यचकित हो गई थी, जब उन्होंने देखा कि गांव के अंदर भी झोपड़पट्टी हैं, और उस इलाके का केवल वह इलाका, जहां ये सफाई कर्मचारी रह रहे हैं, उसका बिल्कुल भी विकास नहीं हुआ है। पितृसत्ता का भी इन सब में एक महत्वपूर्ण योगदान देखने को मिलता है। जैसे कि यदि हम इस समाज की शैक्षणिक स्थिति की बात करें, तो उसमें महिलाओं की शैक्षणिक स्थिति बेहद कमजोर है। उनका शोध यह भी दिखाता है कि कैसे इस समाज की महिलाओं का यौन उत्पीड़न किया जाता है। यहां तक कि एकल परिवार में यह भी देखने को मिलता है कि लड़कियां घर का काम करती हैं और लड़के स्कूल पढ़ने जाते हैं। यदि यह कहा जाए कि महिलाओं का उपयोग केवल सेक्स और बच्चे पैदा करने के लिए किया जाता है, तो यह गलत नहीं होगा।
डॉ. हिमांगी बताती हैं कि तमिलनाडु के एक समुदाय से मिलने के दौरान वह बेहद आश्चर्यचकित हो गई थी, जब उन्होंने देखा कि गांव के अंदर भी झोपड़पट्टी हैं, और उस इलाके का केवल वह इलाका, जहां ये सफाई कर्मचारी रह रहे हैं, उसका बिल्कुल भी विकास नहीं हुआ है।
प्रीति हज़ारे महाराष्ट्र के नागपुर जिले से हैं और पिछले एक दशक से भी अधिक समय से सफाई कर्मचारियों के लिए काम कर रही हैं। प्रीति जिस स्कूल में अपने भाई के साथ पढ़ा करती थीं उसी स्कूल में उनके माता-पिता सफाई कर्मचारी के रूप में काम करते थे। प्रीति ने बताया, ‘‘मेरी मां की तबीयत सही नहीं रहती थी। वह स्कूल के शौचायलयों की सफाई अकेले किया करती थी। इन शौचायलयों को साफ करने के लिए उन्हें पानी ग्राउंड फ्लोर के हैंडपंप से भरकर ले जाना पड़ता था। जब कभी भी मेरे माता-पिता काम पर नहीं आ पाते थे, तो उनकी अनुपस्थिति में मुझसे स्कूल के शौचालय की साफ-सफाई करवाई जाती थी। मेरे साथ मेरा भाई भी पढ़ता था। लेकिन कोई भी उसको यह काम करने के लिए नहीं कहता था, क्योंकि सभी को पता था कि लड़की होने के कारण मैं मना नहीं करूंगी।”
वह आगे बताती हैं, “जब मैंने महिलाओं के अधिकारों के लिए अकेले इन बस्तियों में जाकर इनसे बात की, तो मुझे लोगों की ओर से विरोध का सामना करना पड़ा। लोगों ने मुझे वेश्या भी कहा।” प्रीति को 2019 में राष्ट्रीय ग्रामीण विकास और पंचायती राज संस्थान, हैदराबाद की ओर से एक सर्वे करने का मौका मिला जहां उन्होंने देखा कि महिला सफाई कर्मचारी गर्भावस्था की स्थिति में, प्रसव के पहले तक काम कर रही हैं। प्रीति बताती हैं कि जब संस्थान की ओर से ट्रेनिंग के लिए उन्हें 40 महिलाओं को इकट्ठा करना था, वे केवल 19 महिलाओं को ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद ले जा पाईं, क्योंकि बाकी महिलाओं के पतियों ने या फिर उनके परिवार वालों ने उन्हें अनुमति नहीं दी।
‘‘मेरी मां की तबीयत सही नहीं रहती थी। वह स्कूल के शौचायलयों की सफाई अकेले किया करती थी। इन शौचायलयों को साफ करने के लिए उन्हें पानी ग्राउंड फ्लोर के हैंडपंप से भरकर ले जाना पड़ता था। जब कभी भी मेरे माता-पिता काम पर नहीं आ पाते थे, तो उनकी अनुपस्थिति में मुझसे स्कूल के शौचालय की साफ-सफाई करवाई जाती थी।
वह बताती हैं कि 2019 में उन्होंने एक गर्भवती महिला को मैटर्निटी बेनिफिट एक्ट का लाभ दिलाने के लिए लड़ाई लड़ी, तो उन्हें खुद अपनी जाति की वजह से लोगों का विरोध झेलना पड़ा। लेकिन बहुत प्रयासों के बाद जब उस महिला को मेटरनिटी बेनिफिट एक्ट का लाभ मिला, तो उन्हें लगा कि इन महिला सफाई कर्मचारियों को विभिन्न मौलिक अधिकारों को लेकर जागरूक करने की आवश्यकता है। अक्सर महिला सफाई कर्मचारियों को यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। इस तरह की समस्याओं से ये महिलाएं मानसिक और भावनात्मक रूप से बेहद परेशान और कमज़ोर होती हैं। प्रीति ने बताया कि महिला सफाई कर्मचारियों को ट्रेनिंग की बेहद आवश्यकता है, जिसके तहत हम उनके नेतृत्व, आत्मसम्मान और उनकी क्षमता को बढ़ाने के लिए कार्य कर सकते हैं।
सफाई के काम के जरिए जातिगत भेदभाव और यौन हिंसा
मंजुला प्रदीप एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और पिछले तीन दशक से सफाई कर्मचारियों के अधिकारों के लिए काम कर रही हैं। वे बताती हैं कि अक्सर शौचालयों के रखरखाव और उसका आर्थिक लाभ सवर्ण लोग रखते हैं, जबकि शौचालय की साफ-सफाई की जिम्मेदारी अनुसूचित जाति या तथाकथित नीची जाति के लोग करते हैं। आरटीआई (सूचना का अधिकार) एक्टिविस्ट किरण कुमार सोलंकी गुजरात के आनंद जिले से हैं और सफाई कर्मचारियों और मैनुअल स्कैवेंजर्स के अधिकारों के लिए काम करते हैं।
किरण बताते हैं कि ऐसा लगता है कि अनुसूचित जाति के लोगों को केवल साफ-सफाई के काम के लिए ही उपयोग में लाया जाता है। इस काम के लिए उन्हें तनख्वाह भी इतनी कम दी जाती है कि उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति बेहद खराब रहती है। किरण बताते हैं कि ऐसे भी मामले सामने आए हैं जहां महिलाओं को केवल इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया क्योंकि अन्य जिलों में महिलाओं ने अपने उच्च अधिकारी के खिलाफ यौन हिंसा के मामले दर्ज कराए थे।
अक्सर महिला सफाई कर्मचारियों को यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। इस तरह की समस्याओं से ये महिलाएं मानसिक और भावनात्मक रूप से बेहद परेशान और कमज़ोर होती हैं। प्रीति ने बताया कि महिला सफाई कर्मचारियों को ट्रेनिंग की बेहद आवश्यकता है, जिसके तहत हम उनके नेतृत्व, आत्मसम्मान और उनकी क्षमता को बढ़ाने के लिए कार्य कर सकते हैं।
महिलाओं को निकालने का कारण यह बताया गया कि अथॉरिटी को डर है कि कहीं यह उनके साथ भी ना हो जाए। किरण ने आगे बताया कि गुजरात में कुल 162 नगर निकाय हैं, जिसमें से मात्र 35,000 से 40,000 सफाई कर्मचारी ही परमानेंट है, जबकि बचे हुए डेढ़ से 2 लाख सफाई कर्मचारी कॉन्ट्रैक्ट पर भर्ती किए गए हैं। इसका मतलब है कि उनकी तनख्वाह बेहद कम है और भविष्य में तनख्वाह बढ़ने की कोई उम्मीद भी नहीं है। किरण ने यह भी दावा किया कि गुजरात में मैनुअल स्कैवेंजर्स पर रोक के लिए कोई मीटिंग नहीं की गई है। वहीं मंजुला बताती हैं कि यह देखे जाने की जरूरत है कि क्या मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोजगार पर प्रतिबंध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 गुजरात में लागू भी हुआ है। यह भी जरूरी है कि हम देखें कि क्या निजीकरण के कारण स्थिति और अधिक खराब हुई है।
क्यों दी जा रही है अनपढ़ महिलाओं को सफाई के काम में प्राथमिकता
गुजरात के अहमदाबाद से प्रवीणा वघेला अपने परिवार के साथ रहती हैं और अपना छोटा सा व्यवसाय चलाती हैं। प्रवीणा ने बताया कि दलित महिलाएं बड़ी संख्या में सफाई कर्मचारी के रूप में कामकरती हैं। उनकी सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति भी बेहद कमजोर होती है। अक्सर इन परिवारों में देखा जाता है कि पुरुष नशे में लिप्त होते हैं, जिससे इन महिलाओं पर घर और बच्चों की जिम्मेदारी भी आ जाती है। वह बताती हैं कि महिला सफाई कर्मचारियों की भर्ती में भी भेदभाव देखने को मिलता है। जो महिला देखने में सुंदर या अनपढ़ होती हैं, उन्हें नौकरी में प्राथमिकता दी जाती है। लेकिन अनपढ़ महिलाओं से यह भी उम्मीद होती है कि वे कोई प्रश्न नहीं पूछेंगी। सफाई कर्मचारियों के बच्चे भी अक्सर इन्हीं काम में लगे रहते हैं क्योंकि बार-बार सुनने को मिलता है कि सफाई कर्मचारी का बच्चा तो सफाई कर्मचारी ही बनेगा। आसपास के लोग उन्हें इन्हीं नाम से बुलाते भी हैं।
ऐसा लगता है कि अनुसूचित जाति के लोगों को केवल साफ-सफाई के काम के लिए ही उपयोग में लाया जाता है। इस काम के लिए उन्हें तनख्वाह भी इतनी कम दी जाती है कि उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति बेहद खराब रहती है। किरण बताते हैं कि ऐसे भी मामले सामने आए हैं जहां महिलाओं को केवल इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया क्योंकि अन्य जिलों में महिलाओं ने अपने उच्च अधिकारी के खिलाफ यौन हिंसा के मामले दर्ज कराए थे।
बच्चों और महिलाओं की हालत
प्रवीणा एक किस्सा बताती हैं कि जब उनके प्राथमिक विद्यालय में एक चिड़िया मृत पाई गयी, तो उन्हें और उनके दोस्तों को उसे वहां से उठाकर फेकने के लिए कहा गया। वे कहती हैं कि कोई अन्य जाति का आदमी, चाहे उसे कितने भी रुपये दिए जाये, यह काम नहीं करेगा। लेकिन दलित समुदाय के लोगों से हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वे यह काम करेंगे। उन्होंने बताया कि उनकी मां ने गर्भावस्था की स्थिति में भी काम की और उनके पिता ने तब तक काम किया जब तक वह बीमार ना हो गए। वह बताती हैं कि अक्सर महिला कर्मचारियों को उनके उच्च अधिकारियों द्वारा शोषण किया जाता है। वे उनका विरोध या शिकायत भी नहीं कर पाती हैं, क्योंकि उन्हें नौकरी खोने का डर होता है।
वह आगे जोड़ती हैं कि जब ये महिलाएं गर्भवती होती हैं तब भी उनके आराम की और उनके पोषण की कोई सुविधा इन्हें प्रदान नहीं की जाती है। उन्होंने ‘जूठन’ प्रथा के बारे में भी बताया जहां जिन मोहल्लों में यह सफाई कर्मचारी काम करते हैं, उन घरों से ये लोग बचा हुआ खाना इकट्ठा करते हैं। इससे उनका भरण-पोषण होता है। इन बातों में जोड़ते हुए मंजुला बताती हैं कि हमें यह देखने की जरूरत है कि नगर निगम में मृत जानवरों को हटाने के लिए क्या प्रावधान है? मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोजगार पर प्रतिबंध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 के अनुसार कोई भी व्यक्ति गटर में प्रवेश नहीं कर सकता है।
दलित महिलाएं बड़ी संख्या में सफाई कर्मचारी के रूप में कामकरती हैं। उनकी सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति भी बेहद कमजोर होती है। अक्सर इन परिवारों में देखा जाता है कि पुरुष नशे में लिप्त होते हैं, जिससे इन महिलाओं पर घर और बच्चों की जिम्मेदारी भी आ जाती है।
सफाई के कामों के लिए क्यों नहीं हो रहा है मशीनीकरण
देखने को मिलता है कि गटर में जाने वाले लोग एक माचिस की तिल्ली का उपयोग करते हैं। गटर में जाने से पहले यदि तिल्ली की आग जलती है तो माना जाता है कि उसमें जहरीली गैस है, किंतु कई बार ऐसा होता है कि माचिस की तिल्ली बुझ जाती है, जिससे लोगों को लगता है कि इसमें जहरीली गैस नहीं है और वह उस गटर में प्रवेश कर जाते हैं। अक्सर देखने को मिलता है कि गटर में उतरे हुए आदमी के साथ उसे बचाने के लिए गए लोग भी मौत का शिकार हो जाते हैं। सवाल यह है कि अगर गटरों की सफ़ाई में मशीनीकारण नहीं होगा तो सफ़ाई कर्मचारी इस तरह से मरते ही रहेंगे।
मंजुला संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहती हैं कि भारत में दलित महिलाओं की उम्र औसत महिलाओं की उम्र से 16.4 साल कम पाई गई है। अक्सर सफाई कर्मचारी समुदाय के लोग स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहे होते हैं। यह भी देखने को मिलता है कि नगर निगम में बाल कर्मचारी भी काम करते हैं। और क्या प्रिवेंशन ऑफ सेक्सुअल हैरेसमेंट इन वर्कप्लेस (POSH) को नगर निकाय में लागू किया जाता है?
देखने को मिलता है कि गटर में जाने वाले लोग एक माचिस की तिल्ली का उपयोग करते हैं। गटर में जाने से पहले यदि तिल्ली की आग जलती है तो माना जाता है कि उसमें जहरीली गैस है, किंतु कई बार ऐसा होता है कि माचिस की तिल्ली बुझ जाती है, जिससे लोगों को लगता है कि इसमें जहरीली गैस नहीं है और वह उस गटर में प्रवेश कर जाते हैं।
जातिवाद, पितृसत्ता और महिला सफाई कर्मचारियों की स्थिति
सुनील चौहान महाराष्ट्र के सामाजिक कार्यकर्ता हैं और मानव मुक्ति संग्राम नामक एक संस्था चलाते हैं। वह बताते हैं कि सफाई कर्मचारी शब्द अपने आप में पितृसत्ता को समेटे हुए है, क्योंकि इससे ऐसा आभास होता है कि जैसे केवल पुरुष ही इस कार्य को करते हैं, जबकि तथ्य यह है कि महिलाओं का अनुपात पुरुषों के मुकाबले अधिक है। अक्सर इन परिवारों में देखा जाता है कि यह कर्ज से दबे होते हैं और उनकी आर्थिक व सामाजिक स्थिति बेहद खराब होती है। हमें समुदाय, नगर निगम और सरकार के स्तर पर काम करने की आवश्यकता है।
अक्सर देखने को मिलता है सफाई कर्मचारी समाज में पुरुषों का वर्चस्व होता है। इसके अलावा हमें कुछ जातियों का वर्चस्व भी देखने को मिलता है, जैसे कि जाट। हमें अंदरुनी रूप से देखना चाहिए कि सफाई कर्मचारी समुदाय में महिलाओं को किस तरीके से देखा जाता है। कुछ सफ़ाई कर्मचारी ठाकुर समुदाय से आते हैं जबकि उनकी सामाजिक स्थिति ऊंची मानी जाती है। जाति और पितृसत्ता ने महिला सफाई कर्मचारियों के लिए स्थिति को और खराब कर रखा है। हमें इस समुदाय के साथ हो रहे वित्तीय शोषण को भी देखना चाहिए।
कुछ सफ़ाई कर्मचारी ठाकुर समुदाय से आते हैं जबकि उनकी सामाजिक स्थिति ऊंची मानी जाती है। जाति और पितृसत्ता ने महिला सफाई कर्मचारियों के लिए स्थिति को और खराब कर रखा है। हमें इस समुदाय के साथ हो रहे वित्तीय शोषण को भी देखना चाहिए।
कामगारों के काम की स्थिति और ज़मीनी हक़ीक़त
सुनील कहते हैं, “सफाई कर्मचारियों में कांट्रेक्चुअल वर्कर्स की हमेशा तादाद बहुत ज्यादा है पर उनकी तनख्वाह बेहद कम है, और ये कर्मचारी हमेशा इस आस में रहते हैं कि उनकी नौकरी पक्की कर दी जाएगी। यह तो देखने को मिलता है कि सफाई कर्मचारियों को रेनकोट या गम बूट्स प्रदान कर दिए जाते हैं, लेकिन महिलाओं या पुरुषों के लिए कोई भी वस्त्र बदलने के लिए कमरा या शौचालय की व्यवस्था उनके कार्य स्थल पर देखने को नहीं मिलती है। किसी दुर्घटना या चोट लगने की स्थिति में कोई फर्स्ट एड बॉक्स भी नहीं होता है। अटेंडेंस रूम तो होता है लेकिन चेंजिंग रूम नहीं, या इसके लिए कोई अन्य व्यवस्था देखने को नहीं मिलती है। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त एवं विकास निगम (एनएसकेएफडीसी) के तहत महिलाओं के लिए तरह-तरह के कोर्स प्रदान करने की व्यवस्था है, जैसे कि ब्यूटीशियन, कंप्यूटर क्लास या फिर सिलाई-कढ़ाई कोर्स।”
वह आगे कहते हैं, “यह स्कीम एक फ्लॉप स्कीम है, क्योंकि देखने में अक्सर यह आता है कि सफाई कर्मचारी समुदाय का युवा भी, जिन्होंने उच्च शिक्षा ग्रहण की है, सफाई कर्मचारी के रूप में काम को करना पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें उम्मीद होती है कि यदि उनकी सरकारी नौकरी पक्की हो गई, तो इसमें उनका अधिक लाभ है। हम अक्सर देखते हैं कि इस समुदाय का शोषण होता है। हम क्यों नहीं पोस्टर या फिर अन्य तरीकों का इस्तेमाल करके सफाई कर्मचारियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करते हैं। सरकार इन्हें 350 स्क्वायर फीट का घर रहने के लिए देती है, लेकिन अक्सर ये झुग्गियों में रहते हैं क्योंकि 350 स्क्वायर फीट की जमीन उनके परिवारों के लिए कम होती है। मुझे लगता है हमें सोशल मीडिया का उपयोग करते हुए और अन्य लोगों को भी इन मुद्दों की प्रति जागरूक बनाकर इस समस्या पर गंभीरता से कार्य करने की आवश्यकता है।”
एनएसकेएफडीसी के तहत महिलाओं के लिए तरह-तरह के कोर्स प्रदान करने की व्यवस्था है, जैसे कि ब्यूटीशियन, कंप्यूटर क्लास या फिर सिलाई-कढ़ाई कोर्स। यह स्कीम एक फ्लॉप स्कीम है, क्योंकि देखने में अक्सर यह आता है कि सफाई कर्मचारी समुदाय का युवा भी, जिन्होंने उच्च शिक्षा ग्रहण की है, सफाई कर्मचारी के रूप में काम को करना पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें उम्मीद होती है कि यदि उनकी सरकारी नौकरी पक्की हो गई, तो इसमें उनका अधिक लाभ है।
क्यों सफाई कर्मचारियों की समस्या जटिल मुद्दा है
मंजुला कहती हैं कि हमें यह देखने की आवश्यकता है कि जनसंख्या की तुलना में सफाई कर्मचारी किस अनुपात में है। दूसरा, सामुदायिक शौचालय में और पब्लिक शौचालयों में जो सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं, क्या वह काफी है लोगों के लिए और यदि वह काफी है, तो क्यों आज भी लोग खुले में शौच करने जाते हैं ? यदि सफाई कर्मचारियों के साथ कोई जाति आधारित भेदभाव होता है, तो वह किस प्रकार कानूनी रूप से कार्यवाही कर सकते हैं? सफाई कर्मचारी समुदायों के पुरुषों में नशा एक बहुत बड़ी समस्या है और यह नशा उनकी मानसिक सेहत को प्रभावित करता है और उनके घरों में घरेलू हिंसा का भी एक कारण है।
क्रिया की जेंडर एंड वॉश टीम की प्रोग्राम डायरेक्टर पद्मा देवस्थली ने बताया कि यह मुद्दा बेहद ही जटिल है। उन्होंने कहा, “महाराष्ट्र सरकार की एक पॉलिसी है, जिसके अनुसार वह केवल कुछ जाति के लोगों को ही सफाई कर्मचारी के रूप में काम करने की अनुमति देती है। यह नीति दिखाती है कि हम किस तरीके से सोचते हैं कि कुछ जाति के लोग ही इस काम को कर सकते हैं। यह गंभीर मामला है। इसकी बेहद आवश्यकता है कि लोग सफाई कर्मचारियों के अधिकारों के प्रति जागरूक हो। ओडिशा सरकार की एक गरिमा स्कीम है जो कि ओडिशा राज्य में चलाई जा रही है। इसके अंतर्गत सफाई कर्मचारियों के हितों का ध्यान रखा गया है, जैसे कि कार्य स्थल पर शौचालय को बनवाया गया है और उनके लिए मेडिकल इंश्योरेंस की व्यवस्था भी की गई है। यह भी योजना है कि पूरे देश में गरिमा स्कीम को नमस्ते स्कीम के नाम से लागू किया जा सकता है। लेकिन अभी हम वाकिफ नहीं हैं कि गरिमा स्कीम से किस तरीके से ज़मीनी स्तर पर ओडिशा में बदलाव आया है।”