समाजराजनीति देश में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को भी किया जाए सुनिश्चित| #लोकतंत्र, चुनाव और मैं

देश में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को भी किया जाए सुनिश्चित| #लोकतंत्र, चुनाव और मैं

हमारे देश में बहुत सारे धर्म के लोग रहते हैं। मुस्लिम धर्म भारतीय जनसंख्या का लगभग 15 फीसद हिस्सा है। लेकिन भारत का यह अल्पसंख्यक समुदाय आज के समय में हाशिये पर डाल दिया गया है। हाशिये पर डाल देने से मेरा अभिप्राय यह है कि देश कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें अपने इस अल्पसंख्यक समुदाय की पीड़ाओं को लेकर चिंतित नज़र नहीं आ रही हैं।

बचपन से ही हमें अपने देश पर गर्व करना सिखाया गया। हमें सिखाया गया कि जितना हमारे लिए हमारा धर्म आवश्यक है उतना ही हमारे लिए हमारा वतन। बचपन से ही मेरे बाबा (पिता) ने हमें धर्म के साथ-साथ वतन से लगाव की सीख दी। हमें यही सिखाया गया कि हम हिंदुस्तान में रहते हैं जो कि एक लोकतांत्रिक देश है। हम यहाँ बहुत सुरक्षित हैं, उन देशों की तुलना में जोकि धर्म के नाम पर बने और अभी तक फल-फूल नहीं पाए। बचपन में लोकतंत्र क्या है? ये उतना समझ नहीं आया। लेकिन जब बड़ी हुई, स्कूल-कॉलेज गई और लोकतंत्र को समझना शुरू किया तो इसके असल मायने समझ आये। बतौर नागरिक खुद के अधिकार और ताकत का पता चला। 

लोकतंत्र को सरकार के एक ऐसे रूप के रूप में परिभाषित किया गया है जिसमें उस देश के नागरिकों के पास समान अधिकार हो, चुनाव में भाग लेने और संसद के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करने की सीधी शक्ति होती है। लोकतंत्र सरकार की एक प्रणाली है जिसमें कानून, नीतियां, नेतृत्व और राज्य या अन्य राजनीति के प्रमुख उपक्रम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ‘लोगों’ द्वारा तय किए जाते हैं। लोकतंत्र का एक विचार यह है कि समाज के सभी लोग समान हैं। लोकतांत्रिक सरकार को चुनने के लिए प्रत्येक नागरिक को वोट का बराबर अधिकार होता है। देश के लोग अपने वोट डालने की शक्ति के द्वारा अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। वह चुना हुआ प्रतिनिधि आने वाले कुछ साल उन लोगों के लिए कार्य करता है। भारत में वोट डालने का अधिकार सभी नागरिकों के पास है। यह अधिकार हमें संविधान ने दिया है। धर्म, नाम, रंग, जाति, नस्ल आदि से परे सबको वोट डालने का अधिकार है और अपने प्रतिनिधि को चुनने का अधिकार है। वैसे ही चुने हुए प्रतिनिधि को धर्म, नाम, जाति, रंग, नस्ल देखें बिना लोगों के पक्ष में, उनके फायदे के लिए नीतियां बनाने और उनके विकास के लिए भरसक प्रयत्न करना होता है। 

हमारे देश में बहुत सारे धर्म के लोग रहते हैं। मुस्लिम धर्म भारतीय जनसंख्या का लगभग 15 फीसद हिस्सा है। लेकिन भारत का यह अल्पसंख्यक समुदाय आज के समय में हाशिये पर डाल दिया गया है। हाशिये पर डाल देने से मेरा अभिप्राय यह है कि देश कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें अपने इस अल्पसंख्यक समुदाय की पीड़ाओं को लेकर चिंतित नज़र नहीं आ रही हैं। उनके ख़िलाफ़ राजनीतिक तौर पर हिंसा का माहौल बनाया जा रहा है। पिछले एक दशक में मुस्लिम समुदाय काफी प्रभावित हुआ है। उसके बावजूद सरकार की ओर से इन मुद्दों को निपटाने की कोशिश भी नहीं हुई। आने वाली सरकार से उम्मीदें है कि वह इन मुद्दों पर संज्ञान लेते हुए अल्पसंख्यक समुदाय का भी विकास करेगी।

जीवन स्तर की गुणवत्ता में सुधार

मुस्लिम भारतीयों की अल्पसंख्यक आबादी अन्य धार्मिक समूहों के भारतीयों की तुलना में अधिक आर्थिक रूप से वंचित और असंतुष्ट है। नैशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च इन इंडिया के अनुसार, कुल मिलाकर भारतीय आबादी की तुलना में मुसलमानों के गरीबी रेखा से नीचे रहने की संभावना 26 फीसद की तुलना में 31 फीसद अधिक है। GALP डेटा से पता चलता है कि देश के मुसलमानों (51 फीसद) के अपने जीवन स्तर से संतुष्ट होने की संभावना हिंदुओं (63फीसद) या अन्य (66फीसद) की तुलना में कम है। इसी तरह, मुसलमानों (65फीसद) में हिंदुओं (53फीसद) और अन्य (51फीसद) की तुलना में यह कहने की अधिक संभावना है कि उनका जीवन स्तर वही बना हुआ है या खराब हो रहा है। 

लोकतांत्रिक सरकार का कार्य अपने देश के सभी नागरिकों का ध्यान रखना और उनके जीवन स्तर में सुधार करना होता है। मुस्लिम समुदाय को हाशिये पर छोड़ देने से उनके जीवन का स्तर ओर गिर जाएगा। इसको सुधरने के लिए आवश्यक है उनके हक़ में नीतियां बनाना और उनका कार्यान्वन करना। महामारी के बाद से मुस्लिम समुदाय की एक बड़ी आबादी का काम ठप्प हो गया। बहुत से लोगों के पास काम नहीं है। आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के कारण घर में परेशानियां बढ़ गई है। बच्चों की शिक्षा प्रभावित होने लगी। लेकिन सरकार की ओर से कुछ भी मदद हाथ न आई।

भेदभाव से हो आज़ादी 

भारत का संविधान अपने नागरिकों को धर्म, जाति, रंग, भाषा आदि के आधार पर भेदभाव से आज़ादी देता है। लेकिन भारत की वर्तमान सामाजिक स्थिति में भेदभाव की बू चारों ओर फ़ैल रही है। धर्म के नाम पर खासकर मुस्लिम धर्म के नाम पर बहुसंख्यक धर्म वालों की भौवें तन जाती हैं। धर्म की पहचान पर लोगों की मॉब लिचिंग हो रही है। मेरे खुद के निजी अनुभव में पिछले एक दशक में मैंने बहुत भेदभाव सहा है। स्कूल, कॉलेज, नौकरी देने वाली कंपनियां, मेट्रो, बस सभी जगह धार्मिक पहचान से भेदभाव किया जा रहा है। दुविधा यह है कि दूसरे लोग इसे भेदभाव भी नहीं मान रहे हैं बल्कि वे इसे अपनी बोलने की और चुनने की आज़ादी मानते हैं। स्कूल के टीचर छोटे बच्चों के साथ उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर भेदभाव कर रहे हैं।

श्रम बाजार में मुस्लिम महिलाओं के योगदान को मिले बढ़ावा

संस्था लेड बाय फाउंडेशन के एक अध्ययन में पिछले साल पाया गया था कि भारत में नौकरी के लिए कॉलबैक प्राप्त करनेवाली हिंदू और मुस्लिम महिलाओं के बीच भारी भेदभाव मौजूद है। शोध के अनुसार, हिंदू महिलाओं की तुलना में भारतीय मुस्लिम महिलाओं के लिए भेदभाव दर 47.1 प्रतिशत है।  इसके अलावा, एक हिंदू महिला को नौकरी के लिए हर दो कॉलबैक के लिए, भारत में एक मुस्लिम महिला को केवल एक कॉलबैक मिलता है। पितृसत्तात्मक मानदंडों के कारण महिलाओं की गिरती श्रम भागीदारी दर के साथ, मुस्लिम महिलाओं को महिला और मुस्लिम होने के दोहरे नुकसान का सामना करना पड़ता है। मेरी निजी ज़िन्दगी में मेरे हिजाब पहनने के कारण श्रम बाजार में मुझे काफी अधिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। मेरे हिजाबी मुस्लिम महिला होने के कारण मुझे एम्प्लायर की ओर से नौकरी के लिए कॉलबैक बहुत कम प्राप्त होती हैं। एक तो हम मुस्लिम लडकियां अपने समाज की पितृसत्तात्मक सोच से लड़ कर उच्च शिक्षा हासिल करती हैं। फिर उसके बाद एम्प्लायर की ओर से अपनी धार्मिक वेशभूषा को छोड़ने के लिए विवश किया जाना हमें अंदर से तोड़ देता हैं। कई बार ऐसा लगता है जैसे कोई कान में कह रहा हो, “देखा! मैंने कहा था न इतना न पढ़ो। यह पढ़ना तुम्हारे काम नहीं आएगा।”

शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव एवं सुधार 

तस्वीर साभारः Al Jazeera

मुसलामानों को हमेशा पंक्चर वाला, रिक्शा वाला आदि छोटे कामों को करने वाला जाना जाता है। लेकिन क्या कभी यह सोचा गया है कि ऐसा क्यों है? मुसलमानों को आगे बढ़ने वाले रास्ते में डालीं गयीं रुकावटें इसका महत्वपूर्ण कारण हैं। शिक्षा का आभाव, आर्थिक तंगी, रोज़गार की कमी आदि ऐसे कारण हैं जो कि मुस्लिम समुदाय के लोगों को छोटे-छोटे काम करने के लिए विवश कर देती हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट “भारत के मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति” के अनुसार, मुस्लिम भारतीयों के बीच शिक्षा के निम्न स्तर के लिए आंशिक रूप से अत्यधिक गरीबी जिम्मेदार है। रिपोर्ट में शिक्षा को देश के मुस्लिम समुदाय के लिए “गंभीर चिंता” बताया गया है, “न केवल प्राप्त शिक्षा का निम्न स्तर, बल्कि ऐसी शिक्षा की निम्न गुणवत्ता भी इसका मुख्य कारण हैं । पूरे भारत में शैक्षिक उपलब्धि विशेष रूप से उच्च नहीं है, लेकिन मुस्लिम भारतीयों (88फीसद) की शिक्षा के स्तर को प्राथमिक या उससे कम के रूप में सूचीबद्ध करने की संभावना हिंदुओं (84फीसद) की तुलना में थोड़ी अधिक है; अन्य सभी भारतीय (72फीसद) इस मामले में स्पष्ट रूप से आगे हैं। 

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बाद के वर्षों में, भारत ने प्राथमिक विद्यालयों में राष्ट्रव्यापी सुधार लागू किए। स्कूलों में प्राथमिक और उच्च-प्राथमिक स्तरों पर नामांकन में वृद्धि हुई है, जिसमें प्राथमिक और उच्च-प्राथमिक विद्यालयों में नामांकित मुस्लिम छात्रों की संख्या में वृद्धि भी शामिल है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हिजाब मुद्दे ने यह आंकड़ा फिर नीचे की ओर गिरा दिया है। शिक्षा एक ऐसा हथियार है जो मनुष्य को कभी गिरने नहीं देता। हमारे देश में शिक्षा संबंधी बहुत सारे ऐसे क़ानून है जो यह सुनिश्चित करते हैं कि कोई भी बच्चा शिक्षा के क्षेत्र में पीछे न रहे। पिछले कुछ वर्षों में भारत में मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा से संबंधित काफी सारे मुद्दे उठे। जिनमें एक मुद्दा उनके स्कार्फ़ का था। मुझे अपने जीवन का वो समय याद है जब बाबा ने कहा था कि बेटा तुम्हे जहाँ तक पढ़ना है पढ़ो। जैसे पढ़ना है पढ़ो। लेकिन हिजाब लगा कर जाओगी। इस्लाम में हिजाब महिलाओं के लिए अनिवार्य है। बहुत सारे मुस्लिम परिवार अपनी बेटियों को शिक्षा की अनुमति हिजाब लगाने की शर्त पर ही देते हैं। उनका मानना है कि दुनिया के आगे दीन को पीछे न छोड़ा जाए। मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा का प्रतिशत अब पहले के मुक़ाबले में काफी सुधरने लगा था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उनके साथ स्कूल-कॉलेज में हिजाब हटाने के दबाव के कारण यह प्रतिशत फिर गिरने लगा है।

मेरी निजी ज़िन्दगी में मेरे हिजाब पहनने के कारण श्रम बाजार में मुझे काफी अधिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। मेरे हिजाबी मुस्लिम महिला होने के कारण मुझे एम्प्लायर की ओर से नौकरी के लिए कॉलबैक बहुत कम प्राप्त होती हैं। एक तो हम मुस्लिम लडकियां अपने समाज की पितृसत्तात्मक सोच से लड़ कर उच्च शिक्षा हासिल करती हैं।

दिल्ली की रहने वाली सबा (बदला हुआ नाम) कहती हैं, “मेरी बेटी स्कूल जाती है। मैंने उसे हिजाब लगा कर जाने को कहा हुआ है। लेकिन कर्नाटक के हिजाब मुद्दे के बाद वो काफी डर गयी है। वो अब स्कूल की छुट्टियां अधिक करने लगी है। स्कूल न जाने के लिए बहाने बनती है। पता नहीं इन लोगों को क्या सूझी थी कि हिजाब को ही मुद्दा बना लिया।” एक कपड़ा जिसे गले में डाल दिया जाए तो ठीक लगता है लेकिन वही कपड़ा अगर सिर पर डाल लिया जाता है तो कैसे रूढ़िवादी सोच को दर्शाता है यह समझ से परे है। नेहा, दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका हैं। उन्हें नौकरी करते हुए लगभग पांच साल हो गए हैं। वह नौकरी के शरुआती दिनों से ही हिजाब लगा कर स्कूल जाती हैं। लेकिन इन पांच साल में नेहा को अपने साथियों से और अन्य लोगों से कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है। इसके बावजूद वो अपने इस फैसले से टस से मस नहीं हुई हैं। उनका कहना है कि हिजाब पहनना मेरी खुद की चॉइस है। मेरे कपड़े मेरी बुद्धिमत्ता को नहीं दर्शाते हैं। 

हमारी पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल भी हमेशा अपनी साड़ी का पल्लू अपने सिर पर ढ़कती थी। इसका मतलब भी यही हुआ कि वो रूढ़िवादी और पिछड़ी थी। किसी के सिर ढ़कने से दूसरों को ख़तरा कैसे हो सकता हैं यह आज तक मेरी समझ नहीं आया हैं। यह सिर्फ राजनीति चालें हैं जो बांटने का कार्य करती हैं। निशा एक डॉक्टर हैं और वे हिजाब के मुद्दे पर कहती है, “कुछ भी पहनने की आज़ादी एक ऐसा विषय है जिस पर सालों से चर्चा होती आ रही है। अपनी मनमर्ज़ी का कपड़ा पहनने का अधिकार एक मनुष्य का निजी अधिकार है। यदि कोई आधे कपड़े पहन कर संतुष्ट है तो कोई पूरे कपड़े पहन कर, तो कोई सर पर हिजाब लगा कर तो कोई बुर्का पहन कर। कुछ भी पहनने का अधिकार एक मनुष्य का निजी अधिकार है। किसी मनुष्य को केवल उसके पहने गए कपड़ों के आधार पर टोकना ओर उसको आंकना अकलमंदी का सबूत नहीं है।” वहीं नजमा, दिल्ली की एक मल्टी लेवल कंपनी में काम करती हैं। वो अपनी मर्ज़ी से हिजाब लेती है। लेकिन उसको अपने हिजाब के कारण दूसरों की आलोचना का सामना करना पड़ता है। लोग मुस्लिम महिलाओं के हिजाब पहनने को रूढ़िवादी और पिछड़ी सोच मानते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। हिजाब पहनना इस्लाम धर्म में महिलाओं के लिए अनिवार्य है।

मंदिर-मस्जिद वाली राजनीति से छुटकारा

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

विश्व भर तमाम रिपोर्ट और भारत में होने वाली घटनाएं साफ करती है कि पिछले एक दशक में भारत में धर्म की राजनीति का बहुत विस्तार हुआ है। इस धर्म की राजनीति के कारण लोगों में ज़हर भर दिया गया है और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभाई है। इसका सबसे बड़ा नुकसान आम लोगों को हुआ है। खास कर दिल्ली दंगों के बाद से एक खौफ लोगों के दिलों में बैठ गया है। हिन्दू, मुस्लिम बहुल इलाक़ों में जाने से डरने लगे हैं और मुस्लिम, हिन्दू बहुल इलाक़ों में जाने से डरने लगे हैं। दो पड़ोसी-पड़ोसी की आपसी बहस भी कब धार्मिक रूप लेने लगती है कह नहीं सकते। ऐसे नेता जो अपनी ही देश के सह नागरिकों को गोली मारने को कहते हैं और लोगों को दूसरे धर्म के खिलाफ भड़काते हैं और उन्हें मारने के लिए उकसाते हैं, उन नेताओं को सरकार अपने मंत्रिमंडल में उच्च स्थान देती है।

इस पर दिल्ली के रहने वाले असग़र कहते हैं, “दंगों के बाद हमारे यहाँ का हाल काफी बुरा हो गया है। हिन्दू, मुस्लिम बहुल इलाक़ों से घर छोड़ के भाग रहे हैं और मुस्लिम हिन्दू बहुल इलाक़ों से। दंगों से पहले मेरे अधिकतर साथी हिन्दू थे। लेकिन दंगों में मैंने अपने उन्हीं साथियों को हाथों में हथियार ले कर रोड पर हमारे समुदाय के लोगों के खिलाफ़ खड़ा देखा। पिछले कुछ सालों में देश में जो नफरत फैलाई जा रही है उसका परिणाम तो निकलेगा ही। मेरे स्कूल और कॉलेज के समय के लगभग सभी दोस्त हिन्दू हैं। लेकिन पिछले एक दशक में राजनीति माहौल ने बहुत कुछ बदल दिया है। इस राजनीति ने मुझसे मेरे आधे से अधिक दोस्तों को दूर कर दिया है। सरकार को हमेशा ऐसे क़दम उठाने चाहिए जो देश के नागरिकों में भेद न करे।” अपने देश में मंदिर-मस्जिद वाली राजनीति ने लोगों में बहुत भेदभाव कर दिया है। मॉब लिंचिंग की बहुत घटनाएं सामने आ चुकी हैं। न जाने कितने निर्दोष लोगों को धर्म के नाम पर मार दिया गया है। मुस्लिम विरोध में आरम्भ हुई यह मॉब लिंचिंग अब किसी का धर्म नहीं देखती। भीड़ गुनाह देखे बिना खुद ही अपनी अक़ल के अनुसार सजा देने लगती है।

स्कॉलरशिप में भेदभाव 

तस्वीर साभारः Scroll.in

देश में इस्लामोफोबिया का माहौल दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। इस माहौल से दिमाग में एक डर हमेशा रहने लगा है कि न जाने कब क्या हो जाए? अधिकांश स्थानों पर मिश्रित बस्तियों में मुसलमानों को आवास से वंचित किया जा रहा है। धार्मिक पहचान की वजह से लोगों को किराये पर घर नहीं मिल रहे हैं। उनकी शैक्षिक और आर्थिक स्थिति में गिरावट आई है। इसका एक उदाहरण मौलाना आज़ाद फ़ेलोशिप को ख़त्म करना है, जिसके प्रमुख लाभार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त करने की कोशिश कर रहे मुस्लिम छात्र रहे हैं। ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे वाली सरकार से ऐसे कदम की  उम्मीद नहीं थी। 

देश की मुस्लिम आबादी का बड़ा हिस्सा आर्थिक रूप से कमज़ोर है। ऐसे में उनसे उच्च शिक्षा के लिए मिलने वाली स्कॉलरशिप का वापस ले लेना उनके उच्च शिक्षा में हिस्सा लेने को कम कर देगा। उत्तर प्रदेश की रहने वाली शाइस्ता (बदला हुआ नाम) एक ऑटो ड्राइवर की बेटी है। उसने 2020 में अपनी बारहवीं कक्षा पास की। उसका सपना किसी मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने का था। इसके लिए उसने एंट्रेंस टेस्ट भी पास कर लिया था। आगे की उच्च शिक्षा के लिए वह सरकार से मिलने वाली स्कॉलरशिप पर निर्भर थी क्योंकि उसके पिता की आर्थिक स्थिति उसे उच्च शिक्षा नहीं दिला सकती थी। आरम्भ के दो साल उसको स्कॉलरशिप मिलने में कठिनाई नहीं हुई। लेकिन पिछले दो वर्षों से उसे सरकार की ओर से स्कॉलरशिप नहीं मिल पा रही है। ऐसे में उसे अपनी पढ़ाई के लिए आर्थिक तंगी हो रही है। यह स्थिति उसकी शिक्षा को बाधित कर रही है और इन सब चीजों का तनाव हर वक्त रहता है। शाइस्ता कहती हैं, “पता नहीं सरकार ने स्कॉलरशिप में कमी क्यों कर दी है। सरकार को कोई भी निर्णय लेने से पहले उसके लाभार्थियों से फीडबैक ज़रूर लेना चाहिए।” 

मुस्लिम भारतीयों की अल्पसंख्यक आबादी अन्य धार्मिक समूहों के भारतीयों की तुलना में अधिक आर्थिक रूप से वंचित और असंतुष्ट है। नैशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च इन इंडिया के अनुसार, कुल मिलाकर भारतीय आबादी की तुलना में मुसलमानों के गरीबी रेखा से नीचे रहने की संभावना 26% की तुलना में 31% अधिक है।

बजट में अल्पसंख्यकों का ध्यान

पिछले वर्ष वित्तमंत्री ने अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के बजट में भरी कटौती की। अल्पसंख्यक समुदाय में शिक्षा सशक्तिकरण के लिए पिछले साल बजट में 2,515 करोड़ रुपये का प्रावधान था। जिसे इस साल घटाकर 1,689 करोड़ रुपये कर दिया गया। अल्पसंख्यकों के लिए अनुसंधान योजनाओं का बजट पिछले साल के 41 करोड़ रुपये से घटाकर 20 करोड़ रुपये कर दिया गया। अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों के लिए ‘पेशेवर और तकनीकी पाठ्यक्रमों (स्नातक और स्नातकोत्तर)’ के लिए मिलने वाली छात्रवृत्ति के बजट में 87फीसद की बड़ी कटौती की गई है। मदरसों और अल्पसंख्यकों के लिए शिक्षा योजना में बड़ी कटौती की गई है। 2023-24 के वित्तीय वर्ष के लिए 10 करोड़ रुपये का आवंटन हुआ, जो पिछले वित्त वर्ष 2022-23 के मुकाबले 93 फीसदी कम है। पिछले साल इन्हें 160 करोड़ रुपये आवंटित हुए थे। केंद्र सरकार द्वारा अल्पसंख्यक क्षेत्र में बजट की यह कटौती यह दर्शाती है कि अल्पसंख्यकों की शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए वर्तमान सरकार की कितनी कम दिलचस्पी है। 

समाज के सभी समुदायों का विकास उस शासन के लिए महत्वहीन प्रतीत होता है जिसका नारा है “सबका साथ, सबका विकास” या यह कहना भी सही रहेगा कि सरकार की नीतियों से यह कहीं नहीं नज़र आता कि अल्पसंख्यक समुदाय शैक्षिक रूप से आगे बढ़ सकें। पिछले एक दशक में अल्पसंख्यक समुदाय को वर्तमान सरकार से बहुत अधिक निराशा हाथ लगी है। उपर्युक्त मुद्दे कुछ ऐसे मुख्य मुद्दे हैं जिन पर सरकार की ओर से अगर कुछ अच्छे कदम उठा लिए जाएं तो एक समावेशी समाज की नींव मजबूत होगी। सरकार तोड़ो वाली राजनीति को छोड़कर जोड़ने वाली राजनीति पर ध्यान दे तो बहुतों का भला हो जायेगा। किसी को तोड़ने में जितनी मशक़्क़त तोड़ने वाला लगता है अगर उतनी ही मशक़्क़त वो किसी को जोड़ने में लगाए तो क्या ही अच्छा हो। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ही हमारी उम्मीद है। देखना यह है कि आने वाली सरकार उम्मीदों पर खरी उतरती है या फिर टूटे हुए लोगों को ओर तोड़ती है।


नोट – सभी लोगों के नाम बदल दिए गए हैं।

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