जब जब भी किसी फिल्म का प्रयोग समाज के बढ़ती समस्याओं को दर्शाने के लिए प्रयोग किया जाता है, तब उस फिल्म के हर एक कलाकार या निर्देशक को यह डर लग सकता है कि क्या सच में लोग इस अहम मुद्दा जो आने वाले समय में हाहाकार मचा सकती है, लोगों का ध्यान केंद्रित कर पाएगी। या फिर सिनेमा सिर्फ मनोरंजन के लिए ही होता है? शायद आज के समय में हजारों लोग यह कहकर समस्याओं की ओर ध्यान न देकर फिल्म को सिर्फ मनोरंजन तक सीमित कर देते हैं। आने वाली समस्याओं के बारे में पता होने के बाद भी उसे नजरंदाज करते हैं। फिल्म लोगों तक पहुंचने का आसान और सशक्त रास्ता होता है। सिनेमा जो समाज को अत्याधिक प्रभावित करती है, समाज के लोगों की विचारधारा को गढ़ने में बहुत बड़ी भूमिका निभाती है। बॉलीवुड में ऐसे बहुत से कम निर्देशक या लेखक हैं जो मनोरंजन का पल्लू ना पकड़ कर असल समस्याओं पर बात करते हैं। उन पर काम करते हैं, फिल्में बनाते हैं और यह अपेक्षा करते हैं कि लोग वह फिल्म देखें।
निर्देशक नीला माधब पांडा की निर्देशन में बनी फिल्म ‘कड़वी हवा’ भी एक ऐसी ही फ़िल्म है, जिसमें मनोरंजन नही हैं। बहुत बड़े कलाकार भी नही हैं, कोई चमचमाता सेट का प्रयोग नहीं है पर सबसे अहम चीज़ जो फिल्म को एक बेहतरीन फिल्म बनाती है वह है फिल्म में दिखाई गई वास्तविकता। जलवायु परिवर्तन की थीम पर आधारित इस फिल्म में संजय मिश्रा, रणवीर शौरी और तिलोत्तमा शोम मुख्य भूमिका में हैं। यह फिल्म सूखाग्रस्त बुंदेलखंड क्षेत्र और राजस्थान के चंबल क्षेत्र के धौलपुर और ओडिशा के तटीय इलाकों में लुप्त हो रहे गांवों की सच्ची कहानियों पर आधारित है।
किसानों की कहानी
कहानी है किसानों की, किसानों से जुड़ी आत्महत्याओं की और जलवायु परिवर्तन से जन्मे सूखे की। इस फिल्म में कहानी सिर्फ किरदारों की नही हैं। कहानी है उन सारी समस्याओं की, जो किरदारों को कहानी का मुख्य बिंदु बनाते हैं। एक दृष्टिहीन आदमी, हेदू जिसका किरदार संजय मिश्रा निभाते हैं, जिसे भले ही आंखों से कुछ दिखाई ना देता हो पर अंतर्दृष्टि से महसूस सब होता है। जो बुंदेलखंड के एक ऐसे गांव में रहता है, जहां सालों से वर्षा नहीं हुई है। सुखा पड़ा हुआ है, जिसकी वजह से किसान आत्म हत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। फिल्म में एक डायलॉग है कि किसान कर्ज़ चुकाने से ज्यादा मौत को गले लगाना पसंद करते हैं।
दूसरी कहानी है एक बैंक से आए हुए एक रिकवरी एजेंट की जिनका नाम गुनू है, जिनका किरदार रणवीर शौरी ने निभाया है। वह बुंदेलखंड के इस गांव में किसानों के क़र्ज़ की रिकवरी करने आए हैं। बैंक के द्वारा उन्हें यह कहकर भेजा गया है कि हर रिकवरी पर उन्हें डबल कमीशन मिलेगा और इसीलिए वह अपने गांव से मीलों दूर बुंदेलखंड पहुंच जाते हैं। अब गांव के लोग उन्हें मौत के देवता यानी कि यमराज के तौर पर देखते हैं क्योंकि जब भी कोई रिकवरी एजेंट गांव में आता है, तभी कोई किसान की आत्माहत्या से मौत होती है। बारिश ना होने के कारण पूरी फसल खराब हो गई है। यही डर हेदु को भी सताए जाता है कि कहीं उसका बेटा भूपेश भी कर्ज़ चुकाने के तले दबकर आत्महत्या का कदम न उठा ले।
गुनू की परेशानी और ओडिशा में जलवायु पर्यावरण परिवर्तन का हाल
गुनू जोकि ओडिशा में अपने बीवी बच्चों के साथ रहता था, वह काम के सिलसिले में गांव आया था। ओडिशा में बाढ़ के कारण जान का खतरा उसे हमेशा सताता है। इसीलिए, वह चाहता है कि जल्दी से जल्दी पैसे कमा सके ताकि अपने परिवार को बाढ़ के चंगुल से बचाकर कहीं और रहने का इंतज़ाम कर सके। फिल्म में एक दृश्य में कक्षा में पढ़ रहे बच्चों को दिखाया जाता है। मास्टरजी के पूछने पर कि साल में कितने मौसम होते हैं, एक बच्चा जवाब देता है कि दो ही मौसम हैं। एक गर्मी और एक सर्दी। तभी मास्टरजी कहते हैं कि और बारिश का क्या? इस बात पर बच्चा जवाब डेटा है कि बारिश होती ही कहा हैं। वो तो कभी मुश्किल से 2 से 3 दिन गर्मियों में हो जाती है या कभी सर्दियों में।
एक तरफ बाढ़ एक तरफ सूखे की परेशानी
इससे यह बात तो साफ हो जाती है कि गांव की हालत इतनी खराब है कि पानी की समस्या के कारण फसल खराब होती है और फसल खराब होने के कारण जीवन मुश्किल हो जाता है। हेदू अपने बेटे से कभी सीधे बात नहीं करता। वह अपनी बहु के माध्यम से ही अपने बेटे का हालचाल जानता है। एक तरफ है हेदू, जो पानी के ना होने के कारण परेशानी झेल रहा है और दूसरी तरफ है गुनु जो पानी के अत्यधिक भयावह रूप बाढ़ से बचकर निकलना चाहता है। दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू या यूं कहे कि समस्या में हैं। निर्देशक ने दोनों एक-दूसरे की कैसे मदद करते हैं, इसे बखूबी दिखाया है। इसे जानने के लिए आपको फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए।
जलवायु परिवर्तन एक ऐसी समस्या है, जो धरती को धीरे-धीरे खत्म कर रही है। अगर हम ऐसे ही चीज़ों को चलते रहने दें, जैसे अभी चल रही है, तो आगे के सालों में कुछ भी हो सकता है। जिन लोगों ने यह पूर्वाग्रह बना दिया है कि सिनेमा सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए होती है, उन लोगों को मानव हित सोचना चाहिए। सिनेमा में सिर्फ मनोरंजन नहीं होता। सिनेमा में आर्ट होता है, निर्देशन, कहानी, कोई संदेश, किरदार सब कुछ मायने रखते हैं.। फिल्म के माध्यम से अगर जनता को जागरूक बनाने का काम हो सके, या हम जनता को ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर सोचने पर मजबूर कर सकें तो ये करना ही चाहिए।
हमेशा की तरह संजय मिश्रा का किरदार आपको अचंभित कर देगा। रणवीर शौरी से आपको शुरू में नफरत हो सकती है, पर बाद में जब आपको उनकी मजबूरियों का पता चलेगा तब आप उन्हें गलत नहीं मानेंगे। हो सकता हैं मनोरंजन वाली फिल्में आपको कुछ देर के लिए हँसाए या खूब लुभाए, पर कड़वी हवा जैसी फिल्में आपको सोचने पर मजबूर कर देंगी और यह सिर्फ कुछ समय के लिए नहीं होगा। समाज में हो रहे समस्याओं पर जब फिल्में बनती हैं, तब माना जाता है कि सिनेमा का जो समाज के प्रति कर्तव्य है, समाज के लोगों को समस्याओं से अवगत कराने का वह कर्तव्य सिनेमा पूरा कर रही है। लेकिन वह तब तक अधूरा है, जबतक हम और आप फिल्म को देखेंगे नहीं। या उसे सराहेंगे नहीं। सिनेमा का समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी बनती है, तो समाज की भी उतनी ही जिम्मेदारी बनती है कि वह बेहतरीन फिल्मों को बढ़ावा दे।