हिंदी सिनेमा में हालिया सालों में कई मुद्दों पर कहानियाँ दिखाई जा रही हैं। चाहे जातिवाद हो या आनर किलिंग, बुजुर्गों में अकेलापन हो या युवकों में सोशल मीडिया का लत, कई संवेदनशील मुद्दे सिनेमा में दस्तक दे रहे हैं। लेकिन ऐसी गिनी-चुनी फिल्में ही हैं, जो पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर बनी हैं। ऐसी ही एक फ़िल्म है ‘कौन कितने पानी में’। फिल्म ‘कौन कितने पानी में’ जल संकट की समस्या को उजागर करने वाली एक तरह से बॉलीवुड की पहली फिल्म है। ये वाटरएड इंडिया के सहयोग से वन ड्रॉप फाउंडेशन द्वारा निर्मित की गई थी। इस फिल्म का निर्देशन नीला माधब पांडा ने किया है। यह फिल्म पारंपरिक बॉलीवुड प्रेम कहानी की पृष्ठभूमि पर आधारित होते हुए पानी की कमी जैसे संवेदनशील और जरूरी मुद्दे को उजागर करती है। फिल्म दर्शकों का मनोरंजन भी करती है। साथ ही साथ थिएटर छोड़ने के बाद उन्हें जल संरक्षण के महत्व के बारे में सोचने पर मजबूर कर देती है। साल 2015 में रिलीज हुई इस फिल्म में राधिका आप्टे, कुणाल कपूर, सौरभ शुक्ला और गुलशन ग्रोवर ने अभिनय किया है।
क्या है कहानी
इस फ़िल्म की कहानी 1985 के आस-पास ओडिशा के अंदर कहीं एक काल्पनिक गांव की है, जिस पर हमेशा सिंहदेव का शासन रहा है। लेकिन दिक़्क़त तब सामने आती है जब राजा की बहन को एक कथित पिछड़ी जाति के लड़के से प्यार हो जाता है और प्रेमियों की बेरहमी से हत्या कर दी जाती है। यहां से चीजें इतनी खराब हो जाती हैं कि दो गांव, उपरी और बैरी दीवार खड़ी करके खुद को एक-दूसरे से अलग करने का फैसला करते हैं। जल्द ही यह दीवार इसके दोनों ओर रहने वाले दो वर्गों के बीच दुश्मनी का प्रतीक बन जाती है। उपरी अमीर, निर्दयी ग्रामीणों से संबंधित है, और बैरी उन किसानों को चिन्हित करता है जो अभी भी उन सभी यातनाओं के लिए गुस्से में हैं जो उनके साथ ‘उपरी’ द्वारा किए जाते थे।
पानी की समस्या ने कैसे लोगों को जोड़ा
समय के साथ उपरी लोग गंभीर जल संकट से जूझ रहे होते हैं। लेकिन बैरी से कोई मदद नहीं मांगते। दूसरी ओर, सिंचाई तकनीकों और जल संरक्षण विधियों के अपने ज्ञान के कारण बैरी ठीक-ठाक ज़िन्दगी जी रहे होते हैं। लेकिन अंत में ऊपरी अपनी जल समस्या से तंग आकर बैरी के साथ समझौता कर लेते हैं। इस फ़िल्म के माध्यम से ये दिखाया गया है कि प्यार में जातिवाद और ऊंच-नीच के नाम पर बंटे लोग जो सदियों तक एक-दूसरे के दुश्मन बने रहते हैं, कैसे पानी की संकट को दूर करने के लिए फिर से एक हो जाते हैं। जिस तरह इस फ़िल्म का हर क़िरदार अपने-अपने ढंग से पानी की कमी से जूझता नज़र आता है।
उसी तरह आज लगभग पानी की समस्या ने किसी न किसी तरह से पूरी दुनिया को अपने चपेट में ले लिया है। ये सच है कि जल संकट अब कोई भविष्य की बात नहीं रही। इसके दुष्परिणाम अब रोजमर्रा की ज़िंदगी में खुल कर सामने आने लगे हैं। फिल्म के इस पृष्ठभूमि में, बृज किशोर सिंहदेव (सौरभ शुक्ला) अपने बेटे प्रिंस राज (कुणाल कपूर) और एक महत्वाकांक्षी राजनेता खारू पहलवान (गुलशन ग्रोवर) की बेटी पारो को शामिल करके एक घातक योजना बनाते हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि राजा अपने पड़ोसियों को कम आंक रहे हैं।
बेहतरीन तरीके से फिल्म को आगे बढ़ाती है कहानी
यह राधिका आप्टे, कुणाल कपूर अभिनीत फिल्म जाति और वर्ग की बाधाओं के खिलाफ एक मजबूत रुख अपनाती है। यह फिल्म पानी की समस्या के माध्यम से राजनीति और सामंतवाद को मिलाया गया है। सामाजिक मूल्यों के प्रति निर्देशक की प्रतिबद्धता फिल्म में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है और उन्हें उनके प्रयासों के लिए तारीफ की जानी चाहिए। इस फिल्म की ताकत इसके प्रस्तुति में। पानी की समस्या सोचने पर सबसे पहले दिमाग में आती है शॉर्ट फिल्म या डाक्यूमेंट्री। लेकिन इस फिल्म की कहानी को इतनी अच्छी तरह से सोचा गया है कि आप पहले दृश्य से ही इससे जुड़ जाएंगे। एक मज़ाकिया लेकिन षडयंत्रकारी राजा का अपने आस-पास की किसी भी चीज़ पर बिल्कुल कोई नियंत्रण न होना, सांकेतिक भी है, जो कुछ लोगों को दूर की बात लग सकती है।
राजा के माध्यम से विभिन्न विषयों को दिखाते निदेशक
एक नैतिक रूप से भ्रष्ट राजा के रूप में सौरभ शुक्ला ने जबरदस्त अभिनय किया है। यह अपने विरोधियों पर कटाक्ष करने का मौका नहीं छोड़ते। फिल्म में वह कहते नजर आते हैं, “अगर हर यौन संबंध का अंत शादी होता, तो तुम्हारी मां एकलौती रानी ना होती।” 70 के दशक के बच्चों की तरह, इस राजा ने भी प्रौद्योगिकी और अर्थव्यवस्था के आगमन के साथ समाज में बदलाव देखा है। लेकिन उनकी विरासत उन्हें अपनी रूढ़िवादिता को छोड़ने की इजाजत नहीं देती। वह एक ऐसे राजा हैं जो दूरदर्शी नहीं हैं। देखा जाए तो हीरो हेरोइन के अलावा यह किरदार ‘कौन कितने पानी में’ की रीढ़ है।
वहीं बैरी में उनके समकक्ष स्थानीय नेता खारू हैं जो आधुनिक दृष्टिकोण रखते हैं। गुलशन ग्रोवर ने अपना किरदार प्रभावी ढंग से निभाया है। उन्हें देखना पुरानी यादें ताजा करती हैं। उनकी स्नेह भरी आँखें कुछ दृश्यों में कमाल कर जाती हैं। इसके अलावा, कुणाल कपूर और राधिका आप्टे ने भी अच्छा अभिनय किया है। उनकी केमिस्ट्री सजीव लगती है और वे बिल्कुल सहज दिखते हैं। इन दोनों अभिनेताओं को ऐसे प्रस्तुत किया गया है कि वे असल में भारतीय मध्यम वर्ग के लगते हैं। कुछ दृश्य पारंपरिक भारतीय मध्यम वर्ग के विशिष्ट स्वभाव से इतने मेल खाते हैं कि आप खुद ही इनसे जुड़ा हुआ महसूस करेंगे। इस फिल्म में पानी की समस्या को मूलधारा में लाने की कोशिश की गई है। फिल्म में कहीं कहीं बोझिल डायलॉग हैं पर ये आपको फिल्म देखने से नहीं रोकती।
संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रिपोर्ट 2023 के अनुसार दुनिया की लगभग 10 फीसद आबादी उन देशों में रहती है जो अत्यधिक पानी की कमी से जूझ रहे हैं। इसके अलावा 3.5 अरब लोगों को हर साल कम से कम एक महीने तक पानी की कमी की स्थिति का सामना करना पड़ता है। भारत सहित पूरे विश्व में जल संकट से निपटने के लिए किसी भी माध्यम से समाधान करने की ज़रूरत है। इसके लिए उचित बुनियादी ढाँचा और जल संसाधनों का प्रबंधन करना शामिल है। इसके अलावा पर्यावरणीय न्याय बहाल करना भी ज़रूरी है,जिसे किसी एक व्यक्ति या संगठन से हासिल नहीं किया जा सकता। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सभी को एक साथ आना होगा। प्रत्येक नागरिक सम्मान के साथ जीने और बुनियादी जरूरतों तक पहुंच के साथ आरामदायक जीवन जीने का हकदार है। इस प्रकार, प्रत्येक समुदाय को पानी उपलब्ध कराना इसे सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीका है। बहरहाल पानी की समस्या पर बनी यह फिल्म जरूर देखी जानी चाहिए।