मैं जानती हूं कि नारीवाद के कई अलग-अलग प्रकार हैं। मुख्यधारा, उदारवादी, कट्टरपंथी, सांस्कृतिक, मार्क्सवादी/समाजवादी, उत्तर-आधुनिक और भी कई। स्कूल में किताबों में कहीं न कहीं यह सब पढ़ा था लेकिन ढंग से समझ नहीं आया। मेरे लिए नारीवाद का अर्थ सिर्फ यह था कि मुझे और मेरे आस-पास रहने वाली महिलाओं को उनके वो सब अधिकार दे दिए जायें जो प्रकृति ने उन्हें दिए हैं। किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि महिलाओं से उनके अधिकार केवल इस वजह से छीन लें या उनका हनन करें कि वे महिलायें हैं। बचपन में अपने आस-पास के वातावरण में महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए तरसते देखा। दुविधा भी यह कि वे अपने अधिकारों के लिए बोल नहीं पाती थी। तभी से ही मन में यह सोचा हुआ था कि बड़े होकर ऐसा नहीं बनना। कम से कम ऐसा बनना है कि अपने अधिकारों के लिए खड़ी हो सकूं।
रही सही कसर मेरे बाबा (पिताजी) के एक नुस्खे ने पूरी कर दी। बाबा हमेशा सिखाते थे कि तुमसे जब भी कुछ कहा जाए, तो उसपर सवाल पूछो। जबतक सवाल का संतोषजनक जवाब न मिले सवाल पूछते रहो। किशोरावस्था में पहुंचने पर पिताजी ने ज़िन्दगी में जीने का यह बड़ा ज़रूरी नुस्खा दिया। बाबा के अलावा माँ एक बात कहा करती थी कि बेटा, पढ़ लो, और कुछ बनो ताकि तुम ऐसी ज़िन्दगी न जियो जैसी हमने जी है। उनके बहुत से मौलिक अधिकारों को स्त्री होने के नाम पर कुचल दिया गया था। मेरी माँ एक हाउसवाइफ थीं। वो कभी स्कूल नहीं गयीं। घर पर ही उन्होंने धार्मिक शिक्षा ली। इसी धार्मिक शिक्षा के सहारे उन्होंने हमारी परवरिश की। बाबा का यही नुस्खा कि सवाल पूछो और माँ की बात कि हम जैसी ज़िन्दगी नहीं जीना ने मुझे नारीवादी बनाने में काफी मदद की।
लॉ करने का सबसे बड़ा फायदा मुझे यह हुआ कि मैं अपने आस-पास की महिलाओं को उनके अधिकारों से जागरूक करने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देती हूं। खासकर वहां जहां महिला के साथ हिंसा हो रही होती है। अपने आस-पास किसी महिला का अपमान देखकर बर्दाश्त नहीं हो पाता।
बचपन से लेकर किशोरावस्था तक जब भी बाबा हम बहनों को किसी भी काम से रोकना चाहते थे, तो सीधा बस एक बात कह देते थे कि यह काम मत करो। हम उस काम को न करने की वजह जब पूछते थे तो उनका जवाब होता था कि यह काम लड़कियों को करना इस्लाम में मना है। उस वक़्त तक हमें धर्म की अधिक समझ नहीं थीं। इसलिए हम लोग शांत हो जाते थे कि शायद ऐसा ही होगा। लेकिन मन में हमेशा एक ही प्रश्न होता था कि इस्लाम में ऐसा करना लड़कियों के लिए ही मना क्यों है। चूंकि उस समय उस सवाल के जवाब तक हमारी पहुंच नहीं थी तो हम मन मसोस कर रह जाते थे। लेकिन दिमाग में बस एक ही सवाल रहता था आखिर क्यों इस्लाम इस काम के लिए लड़कियों को मना करता है?
जब बाबा ने धर्म के सहारे मुझे रोकना चाहा
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इन जवाबों की तलाश के लिए दूसरों का सहारा लेने के बजाय हमने खुद ही इन सवालों के जवाबों को ढूंढना शुरू किया। इसी तलाश में पता चला कि बाबा बहुत से कामों को हमें इस्लाम के नाम पर खुद ही मना करते थे। इस्लाम में ऐसा कुछ भी नहीं है। वो बस हमें वो काम नहीं करने देना चाहते थे। तो इस्लाम के नाम का सहारा ले लेते थे। जैसे एक बार सीनियर सेकेंडरी स्कूल के दिनों में हमारा स्कूल पिकनिक पर जा रहा था। जब बाबा से एनओसी पर हस्ताक्षर करने को कहा तो उन्होंने मना कर दिया कि हमारे यहां लड़कियां घूमने नहीं जाती हैं। इस्लाम में मनाही है। बाद में पता चला कि इस्लाम में कहीं नहीं लिखा कि लड़कियां घूमने नहीं जा सकती। वो तो बाबा ने न भेजने के लिए धर्म के नाम का सहारा लिया था।
बाबा हमेशा सिखाते थे कि तुमसे जब भी कुछ कहा जाए, तो उसपर सवाल पूछो। जबतक सवाल का संतोषजनक जवाब न मिले सवाल पूछते रहो। किशोरावस्था में पहुंचने पर पिताजी ने ज़िन्दगी में जीने का यह बड़ा ज़रूरी नुस्खा दिया। बाबा के अलावा माँ एक बात कहा करती थी कि बेटा, पढ़ लो, और कुछ बनो ताकि तुम ऐसी ज़िन्दगी न जियो जैसी हमने जी है।
कैसे मैंने आर्थिक सशक्तिकरण का महत्व सीखा
इसी तरह की बहुत सी बातों ने मुझे नारीवादी बना दिया। बाद में, मैं उन सब फैसलों और बंदिशों को चुनौती देने लगी जोकि धर्म के नाम पर या महिला होने के कारण किए जाते थे। सबसे बड़ी कमी जो मैंने बचपन से अपने आस-पास महसूस की वो थी हमारे यहां की औरतों को पूरी इज़्ज़त नहीं मिल पाती थी। पूरी इज्जत से मेरा मतलब महिलाओं को केवल घर तक ही सीमित कर दिया गया था। बेटियों को कभी भी बेटों के बराबर नहीं रखा गया। बहुओं को ससुराल में कभी भी बेटियों वाला दर्जा नहीं मिल पाता था।उन्हें घर के कामकाज में इतना उलझा दिया गया था कि वे यही सोचती थीं कि ये काम उन्हें ही करने हैं।
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वही महिला अच्छी मानी जाती थी जो गोल रोटियां बना पाती थी या जो मज़ेदार स्वादिष्ट खाना बना पाती थी। इन कामों को करवाने के लिए उन्हें तरह-तरह के लालच दिए जाते थे। सुबह सवेरे उठना और घर के कामों में लग जाना और फिर रात गए बिस्तर पर लेटना उनकी रोज़ की दिनचर्या था। उन्हें अपने लिए कुछ भी सोचने का समय नहीं था। आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर होने के कारण उन्हें पुरुषों की बात माननी होती थी। इसी अजीब सी दिनचर्या, जहां अपने लिए समय न हो, के कारण मैंने आर्थिक सशक्तिकरण के महत्व को सीखा।
जब बाबा से एनओसी पर हस्ताक्षर करने को कहा तो उन्होंने मना कर दिया कि हमारे यहां लड़कियां घूमने नहीं जाती हैं। इस्लाम में मनाही है। बाद में पता चला कि इस्लाम में कहीं नहीं लिखा कि लड़कियां घूमने नहीं जा सकती। वो तो बाबा ने न भेजने के लिए धर्म के नाम का सहारा लिया था।
मुश्किलों के बावजूद आत्मनिर्भरता में मैंने खुशी पाई
शादी के बाद मेरे पास दो रास्ते थे। एक रास्ता था कि कहीं अच्छी जगह जॉब करना और दूसरा रास्ता था घर पर रहकर एक अच्छी गृहिणी का ख़िताब अपने नाम करना। चूंकि मैंने लॉ में मास्टर्स किया था तो मेरा दिल कभी भी दूसरे रास्ते को चुनना नहीं चाहता था। लेकिन पहले रास्ते को चुनने की वजह से मेरे सामने बहुत सी चुनौतियां आ रही थीं। इसमें सबसे बड़ी चुनौती मेरा खराब स्वास्थ्य था। घर में रहकर केवल घर के काम करने को मेरा दिल और दिमाग गवाही नहीं दे रहा था।
घर में रहकर केवल घर के काम करने को मेरा दिल और दिमाग गवाही नहीं दे रहा था। अगर मैं ऐसा करती तो मुझे अपने वित्तीय खर्चों के लिए अपने पति या उनके संबंधियों पर निर्भर रहना पड़ता। मैं यह अच्छी तरह से जानती थी कि आर्थिक निर्भरता अपने साथ महिलाओं के लिए बेज़्ज़ती भी लाती है।
अगर मैं ऐसा करती तो मुझे अपने वित्तीय खर्चों के लिए अपने पति या उनके संबंधियों पर निर्भर रहना पड़ता। मैं यह अच्छी तरह से जानती थी कि आर्थिक निर्भरता अपने साथ महिलाओं के लिए बेज़्ज़ती भी लाती है। ऐसे में मैंने एक तीसरा रास्ता चुना। इस रास्ते में मैं अपना ज्यादातर काम घर से करती हूँ। अपना शोध का काम, लीगल काउंसलिंग, लेखन जैसे काम मैं घर से करती हूँ। इस तरह आत्मनिर्भर बनकर मैंने अपने जीवन का एक मुश्किल फैसला किया।
जब मैंने पितृसत्तातमक मानसिकता के खिलाफ़ महिलाओं को बताया
इसके आलावा अपने आस-पास की पितृसत्तात्मक सोच को भी बदलना शुरू किया। अपने आस-पास की महिलाओं को उनके अधिकारों की जानकारी देना शुरू किया। शुरू-शुरू में महिलाएं मेरी बात को सीरियसली नहीं लेती थी। उनके अनुसार मेरी बातें उनका घर बिगाड़ देंगी। लेकिन जब उनको समझाया गया कि ये तुम्हारा घर बिगाड़ने के लिए नहीं बल्कि तुम्हें गरिमा के साथ जीवन जीने में मदद करेगा, तो उन्हें कुछ-कुछ समझ आने लगा। शिक्षा, शादी, मेहर, दहेज़, उलटी-सीधी प्रथाएं आर्थिक सशक्तिकरण आदि जैसे महिला केंद्रित मामलों में उन्हें जागरूक करना शुरू किया।
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इन सबका यह नतीजा हुआ कि ऐसे मामलों में जहां महिलाओं की राय नहीं ली जाती थी उनमें अब महिलाओं की राय ली जाने लगी। घर के अहम् फैसलों में महिलाओं का साथ दिया जाने लगा। लड़कियों का रिश्ता तय करते समय उनसे उनकी मर्ज़ी और मेहर की राशि तय करने के बारे में भी लड़कियां बोलने लगीं। गलत प्रथाओं के खिलाफ़ लड़कियां अपनी आवाज़ उठाने लगीं। शादी के बाद, माँ-बाप के यहां से आने वाले सामान की प्रथा को बंद कर दिया या कम कर दिया।
अपने आस-पास की महिलाओं को उनके अधिकारों की जानकारी देना शुरू किया। शुरू-शुरू में महिलाएं मेरी बात को सीरियसली नहीं लेती थी। उनके अनुसार मेरी बातें उनका घर बिगाड़ देंगी। लेकिन जब उनको समझाया गया कि ये तुम्हारा घर बिगाड़ने के लिए नहीं बल्कि तुम्हें गरिमा के साथ जीवन जीने में मदद करेगा, तो उन्हें कुछ-कुछ समझ आने लगा।
मेरी लड़ाई और खुशी में साथ देती शिक्षा
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लॉ करने का सबसे बड़ा फायदा मुझे यह हुआ कि मैं अपने आस-पास की महिलाओं को उनके अधिकारों से जागरूक करने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देती हूं। खासकर वहां जहां महिला के साथ हिंसा हो रही होती है। अपने आस-पास किसी महिला का अपमान देखकर बर्दाश्त नहीं हो पाता। महिला को उस अपमानजनक रिश्ते से बाहर निकलने के उपायों को बताने में मैं समय नहीं लगाती। यह सब हुआ शिक्षा के कारण हुआ। यदि मैं भी अशिक्षित रह जाती या फिर सेकेंडरी या सीनियर सेकेंडरी तक ही शिक्षा ग्रहण कर पाती तो मैं कभी भी पितृसत्ता को चुनौती न दे पाती और न ही अपने आस-पास मजबूत हो चुकी पितृसत्ता की जड़ों को हिला पाती। यह सच है कि समय के साथ सब बदल सकता है, लेकिन यह भी एक सच है कि इस सब को बदलने का हुनर और हिम्मत आनी चाहिए। इस सबका श्रेय जाता है मेरे माता-पिता को जिन्होंने मुझे शिक्षा दिलवाई और हमेशा हमारा साथ दिया।
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