लोकतांत्रिक देश में सबसे अहम मूल्य इंसान की आजादी होती है। यह आजादी तभी संभव है जब समाज में सांप्रदायिकता और जातिवाद जैसी विघटनकारी ताकतों का वर्चस्व न हो। वर्तमान समय में समाज में हिंसा और नफरत का बढ़ना गंभीर चिंता का विषय है। यह समय मुड़कर देखने का है कि इतिहास और वर्तमान में ऐसी कौन सी गलतियाँ हुईं, जिनके कारण समाज इस स्थिति तक पहुँच गया। देश की आजादी के संघर्ष में सभी धर्मों और समुदायों के लोग एक साथ खड़े थे, उनके सपने भी एक थे। फिर ऐसी कौन सी ताकतें हैं जो स्त्रीद्वेष, सांप्रदायिकता और जातिवादी नफरत को समाज में एक मूल्य की तरह स्थापित करने में सफल हो गई हैं?
हिंसा और नफरत की घटनाएं: अल्पसंख्यक समुदायों पर हमले
देश में अल्पसंख्यक समुदायों और हाशिए पर खड़े लोगों के खिलाफ लगातार हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं। भारत एक मिली-जुली संस्कृति का देश है, फिर भी पिछले कुछ वर्षों में भाईचारे और मेल-जोल की परंपरा कमजोर होती जा रही है। नफरत की यह हिंसा समाज में विभिन्न रूपों में हो रही है। सार्वजनिक स्थानों से लेकर ट्रेन, बस जैसे यात्रा के साधन भी हिंसा के घटनाओं से अछूते नहीं रह गए हैं। एक साल पहले जयपुर-मुंबई एक्सप्रेस ट्रेन में चार लोगों की हत्या एक धार्मिक उन्मादी व्यक्ति द्वारा कर दी गई थी। यह घटना झकझोर देने वाली थी।
इसी तरह पिछले महीने महाराष्ट्र के नासिक में एक 72 वर्षीय बुजुर्ग मुसलमान को ट्रेन में कुछ लोगों ने पीट दिया, क्योंकि उन्हें शक था कि उनके पास गोमांस है। वे अपनी बेटी से मिलने मालेगांव जा रहे थे। पुलिस में भर्ती होने जा रहे कुछ युवकों ने उनका सामान चेक करने के बाद उन पर हमला कर दिया। बाद में इस घटना का वीडियो वायरल हुआ और आरोपियों को गिरफ्तार किया गया। ये घटना एक नजर देखने में जितनी तात्कालिक और चिंताजनक लगती है, उतनी है नहीं। गहराई से देखने पर बहुत भयावह स्थिति दिखती है क्योंकि पुलिस की परीक्षा देने जा रहे वे युवा बुजुर्ग का फोन छीनकर उसी से अपने इस घटना का वीडियो बनाते हैं और वायरल भी करते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि उन्हें प्रशासन का कोई डर नहीं था और उनके पीछे कुछ ताकतें हैं जो ऐसी घटनाओं को बढ़ावा दे रही हैं।
स्कूलों में बच्चों पर सांप्रदायिक हमले
यह नफरत अब स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों तक पहुँच गई है। उत्तर प्रदेश के अमरोहा के एक पब्लिक स्कूल का वीडियो वायरल हुआ, जिसमें प्रिंसिपल एक मुस्लिम बच्चे की माँ से कह रहा है कि वे उसके बच्चे को नहीं पढ़ाना चाहते, क्योंकि वे लोग हिंदुओं के मंदिर तोड़ते हैं और उनका बच्चा स्कूल में नॉनवेज लंच लाता है। यह वीडियो मार्मिक है। खासकर जिस तरह बच्चे की माँ घटना का प्रतिरोध करती है। लेकिन सत्ताधारी वर्ग ने उसकी दलीलों को नकार दिया। यह सवाल उठता है कि इस नन्हे से बच्चे ने किस मंदिर को तोड़ा? और यदि इतिहास में कभी किसी मुस्लिम शासक ने मंदिर तोड़े भी थे, तो उसकी सजा इस मासूम बच्चे को कैसे दी जा सकती है? यही कट्टरता और धर्मांधता समाज और राष्ट्र को खोखला करती है। इसी तरह पिछले साल अगस्त में मुजफ्फरनगर के एक स्कूल में ऐसी ही घटना घटी थी। महिला शिक्षक ने अल्पसंख्यक बच्चे को उसके सहपाठियों से थप्पड़ लगवाये थे।
बीफ खाने के शक में हत्या और सांप्रदायिक हिंसा
पश्चिम बंगाल के एक युवक की हरियाणा के चरखी दादरी में बीफ खाने के शक में पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। यह घटना दिल को दहला देने वाली है। सवाल उठता है कि क्या गरीब और कमजोर होना आज के समाज में अपराध हो गया है? इस मामले में हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी की प्रतिक्रिया बेहद अलोकतांत्रिक थी। ऐसे बयान हिंसा को बढ़ावा देते हैं, और यही हो रहा है कि धार्मिक और जातिगत आधार पर हत्याओं को जायज ठहराया जा रहा है। हरियाणा में 12वीं के छात्र आर्यन मिश्रा को गोतस्कर समझकर मार दिया गया। गोरक्षकों ने 30 किमी तक उसकी कार का पीछा किया और उसे गोली मार दी। इस तरह की घटनाओं से यह सवाल उठता है कि गोहत्या या गोतस्करी के नाम पर इस प्रकार की हिंसा कहाँ तक जायज है?
यह हिंसा सामान्य घटनाएं नहीं हैं, बल्कि यह समाज के लगातार आत्मघाती होने का प्रमाण हैं। सांस्कृतिक विविधता की धरोहर वाले समाज में यह हिंसक प्रवृत्तियां तेजी से बढ़ रही हैं। सवाल उठता है कि आखिर कौन लोग इस अपराध के लिए जिम्मेदार हैं? कौन हैं वे लोग जो समाज की सौहार्दपूर्ण संस्कृति को तहस-नहस कर रहे हैं? ऐसी हिंसक घटनाओं के बावजूद दोषियों को कोई शर्मिंदगी नहीं होती। वे न तो माफी मांगते हैं और न ही कोई पश्चाताप दिखाते हैं। इसका कारण यह है कि इस सांप्रदायिकता की जड़ें समाज में बहुत गहरी हो चुकी हैं।
सत्ता और नफरत की राजनीति
समाज में नफरत और हिंसा की यह राजनीति पिछले कुछ दशकों में तेज हुई है। एक धार्मिक और सांस्कृतिक गर्वबोध लोगों के मन में पनपने लगा है, जो उन्हें किसी स्वस्थ बहस की ओर नहीं ले जाता। इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ प्रायोजित तरीके से बहुसंख्यक आबादी में घृणा भरी जा रही है। महात्मा गांधी जैसे महान नेता को हिंदू-विरोधी बताने का प्रयास किया गया और नेहरू को मुस्लिम और फिर ईसाई बताया गया। आधुनिक भारत की नींव रखने वाले प्रगतिशील और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रणेता नेहरू के खिलाफ लगातार दुष्प्रचार किया जा रहा है। देश, जो कभी सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक था, अब बहुसंख्यक समुदाय का देश बनाने की राह पर है।
पिछले साल हरियाणा के मेवात में हुए दंगे इस बात का प्रमाण हैं कि सांप्रदायिकता की जड़ें कितनी गहरी हो चुकी हैं। मेवात, जो गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक रहा है, आज सांप्रदायिक नफरत की आग में जल रहा है। यह एक बड़ी त्रासदी है कि समाज को जोड़ने वाले संगठन कमजोर पड़ते जा रहे हैं, जबकि विभाजनकारी ताकतें मजबूत हो रही हैं। महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के बढ़ते मामलों का फायदा उठाकर सांप्रदायिक ताकतें अपने नफरत के एजेंडे को आगे बढ़ा रही हैं। बेरोजगार युवाओं को नफरत की राजनीति में फँसाना आसान हो गया है। इन ताकतों को एक ऐसी फौज की जरूरत होती है, जिसे नफरत के आधार पर प्रशिक्षित किया जा सके, और यह प्रक्रिया समाज में तेजी से चल रही है। समाज में बढ़ती नफरत और हिंसा का यह दौर बेहद खतरनाक है। इसका अंत जरूरी है, नहीं तो हमारा समाज और लोकतंत्र दोनों ही कमजोर होते जाएंगे। एक लोकतांत्रिक समाज में हर व्यक्ति के पास जीने, खाने और सोचने की आजादी होनी चाहिए। समाज को नफरत की राजनीति से बचाने के लिए हमें एकजुट होकर इसके खिलाफ आवाज उठानी होगी।