FII Inside News साल 2024 के 24 बेहतरीन नारीवादी लेख, जिन्हें आपने सबसे ज़्यादा पसंद किया

साल 2024 के 24 बेहतरीन नारीवादी लेख, जिन्हें आपने सबसे ज़्यादा पसंद किया

हर साल की तरह इस साल भी फेमिनिज़म इन इंडिया आपके लिए लेकर आया है उन बेहतरीन 24 लेखों की सूची जिन्हें आपने सबसे ज्यादा पसंद किया और पढ़ा।

साल 2024 बस खत्म होने को है। हर साल की तरह इस साल भी फेमिनिज़म इन इंडिया आपके लिए लेकर आया है उन बेहतरीन 24 लेखों की सूची जिन्हें आपने सबसे ज्यादा पसंद किया और पढ़ा।

1. बात हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श के महत्व और उसके इतिहास की– चित्रा राज

हिन्दी कथा-साहित्य में नारी-मुक्ति को लेकर स्त्री – विमर्श की गूंज 1960 के दशक में सुनाई दी। इस दौरान चार नाम सबसे चर्चित रहे। उषा प्रियम्वदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी एवं शिवानी जैसे लेखिका नारी मन के अंतर्द्वंद्व को समझा और नारी की दिशाहीनता, दुविधाग्रस्तता, समस्याओं और चुनौतियों आदि का विश्लेषण किया। लेकिन हिन्दी साहित्य में स्त्री – विमर्श की शुरूआत छायावाद काल से माना जाता है। आधुनिक काल के छायावाद युग (1918) में प्रवेश लेने के बाद हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श का जन्म होता है। इसकी शुरुआत छायावाद युग की लेखिका महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान से होती है। महादेवी वर्मा की रचना “श्रृंखला की कड़ियां” और सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता “झांसी की रानी” नारी सशक्तिकरण का सुंदर उदाहरण है।

2. आखिर सहज प्रेम विकलांग लोगों के लिए क्यों नहीं– ज्योति कुमारी

आमतौर पर हम देखते हैं कि समाज में हमेशा विकलांग लोगों को कई प्रकार के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें हमेशा ही कमतर आंका जाता है। न तो कभी भी उन्हें उनके जीवन में आगे बढ़ने या प्रेम को लेकर प्रोत्साहित किया जाता है और न ही उनके किसी के साथ होने पर उस बात को आसानी से स्वीकार किया जाता है। समाज के रूढ़िवादी रवैये के कारण लोगों की सोच बनी हुई है कि विकलांगता का मतलब जीवन का खत्म होना है। उन्हें हमेशा यह एहसास दिलाया जाता है कि उनका जीवन किसी काम का नहीं है। लेकिन इसके बावजूद भी कई लोग हैं जो समाज के रूढ़िवादी विचारधारा और चुनौतियों के आगे जीवन को न सिर्फ स्वीकार करते हैं बल्कि आत्मनिर्भर बनने का सपना देखते हैं, बनते भी हैं और सामान्य जीवन जीते हैं।

3. बात निर्माण महिला श्रमिकों और मैटरनिटी लीव की– रूपम मिश्रा

अन्य क्षेत्रों की महिला श्रमिकों की तरह उनके लिए यह कानून कोई मदद नहीं करता क्योंकि निजी सेक्टरों में , खेत-मजदूरी में , ईंट-भट्टे जैसे जगहों पर काम करती महिलाओं को जमीन पर इसका कोई लाभ नहीं मिल रहा है। महिला मजदूर सीमा इलाहाबाद के छोटा बघाड़ा में रहती हैं। सीमा कंट्रक्शन साइट पर काम करती हैं। सीमा बताती हैं कि उनके छोटे-छोटे बच्चे हैं तो उनको कोई भी ठेकेदार जल्दी काम नहीं देना चाहता क्योंकि सीमा साइट पर अपने बच्चों को लेकर आएंगी और काम के बीच अपने रोते बच्चों को बहलाने के लिए जा सकती हैं। सीमा ने इसी तरह और अनदेखी की बात बतायी जिससे ये पता चलता है कि ठेकेदार और मालिक दोनों ही मजदूर को मनुष्य होने की जरूरत और गरिमा में नहीं देखता। 

4. भारतीय कैंपस में एक ट्रांस महिला होने का संघर्ष!– शोनाली सामर्थ

“जब मैं कॉलेज की प्रवेश प्रक्रिया पूरी करने के लिए एक टीचर के पास गई, तब उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम लड़का हो कि लड़की? मेरे जवाब देने के बाद वो ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। मेरी लैंगिक पहचान का वो मजाक उड़ा रही थी। उस समय मैं अंदर से बिल्कुल टूट गई थी। जिस जगह शिक्षा को लेकर मैं समाज का अपने प्रति प्रति पूर्वाग्रह दूर करना चाहती थी, वहां मेरी लैंगिक पहचान का मज़ाक उड़ाया जाना मेरे लिए बहुत ही असहज करने वाला अनुभव था। यह अनुभव एक ट्रांस महिला का है जिन्होंने अपने कॉलेज में अपनी लैंगिक पहचान की वजह से अनेक परेशानियों और अपमान का सामना किया है।  

5. नारीवादी फिल्म सिद्धांत और भारतीय फिल्में– आशिका शिवांगी सिंह

नारीवादी फिल्म सिद्धांत एक सैद्धांतिक फिल्म आलोचना है, जो नारीवादी राजनीति और नारीवादी सिद्धांत से ली गई है। यह दूसरी लहर के नारीवाद से प्रभावित है और संयुक्त राज्य अमेरिका में 1970 के दशक के आसपास लाई गई थी। प्रोफेसर एनेके स्मेलिक, लिखती हैं, “नारीवादी फिल्म सिद्धांत ने एक ओर शास्त्रीय सिनेमा को उसके महिलाओं के रूढ़िवादी प्रस्तुतिकरण के लिए आलोचना की दूसरी ओर ऐसे महिला सिनेमा की संभावनाएं जताई जो स्त्री इच्छा, और महिला विषयपरकता का प्रतिनिधित्व कर सकता है।” 

6.इज़राइल का नहीं रुक रहा जनसंहार, ग़ज़ा में मारे गए लोगों में 72 प्रतिशत महिलाएं और बच्चे रोकैया बसरी

इजरायल-फ़िलिस्तीनी संघर्ष अब तक चल रहा एक सैन्य और राजनीतिक संघर्ष है। इजरायल-फ़िलिस्तीनी संघर्ष ने हजारों लोगों की जान ले ली है और लाखों लोगों को विस्थापित कर दिया है।  अक्टूबर 2023 में सशस्त्र फ़िलिस्तीनी समूह हमास द्वारा हमले के बाद, इज़राइल ने ग़ज़ा पट्टी पर युद्ध की घोषणा कर दी और तब से महिलाओं और बच्चों समेत हजारों फ़िलिस्तीनी की जान जा चुकी है। इससे पहले भी इजरायल ने चार बार ग़ज़ा पट्टी पर सशस्त्र हमले किए हैं। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक अक्टूबर 2023 की सुबह हमास के बंदूकधारियों ने ग़ज़ा की सीमा पार करके इज़रायल में धावा बोल दिया, जिसमें करीब 1,200 लोग मारे गए थे।

7. औरत: सामाजिक मानदंडों के बीच ‘औरत’ के अस्तित्व की झलकियां– सरला अस्थाना

औरत’ लेखिका अमृता प्रीतम द्वारा लिखा गया उपन्यास है। अमृता प्रीतम किसी पहचान की मोहताज नहीं है। वह सिर्फ एक लेखिका ही नहीं बल्कि नारी जीवन की अवधारणा का मुक्कमल उदाहरण हैं। लेखिका अमृता प्रीतम के स्वछन्द ख्याल जो कल्पना को पोषते हैं, उन्हें अमृता ने जीवंत किया है। उनके उपन्यास,कहानी और कविताएं इसी अवधारणा के प्रतिबिंब हैं। अमृता की इन्हीं विशेषताओं के कारण पाठक खुद को उनके करीब पाते हैं और जीवन को देखने का एक अलग नजरिया मिलता है। इस उपन्यास में अमृता ने विभिन्न किरदारों के माध्यम से महिला जीवन के अलग-अलग पहलुओं को बड़ी मजबूती से उकेरा है।

8. गाँव-गाँव तक प्रत्येक वर्ग के नागरिक को मिले उनके अधिकार| #लोकतंत्र, चुनाव और मैं-आर्यांशी यादव

मैं अपनी परिवार की पहली लर्नर हूं जो दिल्ली आकर पढ़ रही हूं। आज भी हमारे गाँवों में महिलाओं के साथ उनकी लैंगिक पहचान की वजह उनके लिए अलग-अलग मानदंड तय किये हुए हैं। कुछ लोगों की जातिगत पहचान को सर्वोपरि माना जाता है। इसी भेदभाव के चलते चुनावी बहस ने इन वर्गों को बाहर कर दिया जाता है। अगर आंकड़ों को देखें तो औरतों का मतदान प्रतिशत अब धीरे-धीरे बढ़ रहा है। ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं का मतदान प्रतिशत ज्यादा ही है। वोट देने के लिए घूंघट ओढ़े अलग पंक्ति में खड़े होने से लेकर, संसद भवन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने तक, महिलाओं के अनुभव पुरुषों से बेहद भिन्न हैं। अगर बात ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं की भी करे तो उनके अनुभवों को समझने के लिए कोई एक समीकरण नहीं है। अलग-अलग जातीय और वर्गीय समूहों की महिला मतदाताओं के अनुभव अलग हैं।

9. कैसे यूजीसी-नेट परीक्षाओं का रद्द होना लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा का मौका छीन रहा है– श्वेता

19 जून की देर रात केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने प्रवेश स्तर की शिक्षण नौकरी पाने और पीएचडी कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए महत्वपूर्ण यूजीसी-नेट की परीक्षा रद्द कर दी। घटना के बाद, परीक्षा को आयोजित करने वाली संस्था नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) के महानिदेशक सुबोध कुमार को पद से हटा कर उनकी जगह रिटायर्ड आईएएस प्रदीप सिंह खरोला एनटीए का महानिदेशक बना दिया गया है। त्तर प्रदेश के अयोध्या की रहने वाली अशिंका दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से परास्नातक कर रही है। इस बार नेट की परीक्षा के लिए उनका दूसरा प्रयास था। अंशिका बताती है कि पहली बार उन्होंने सिर्फ अनुभव के लिए परीक्षा दिया था। लेकिन, इस बार पूरी तैयारी के साथ परीक्षा में बैठी थीं। पिछले तीन चार महीने से उन्होंने खुद को इसकी तैयारी में झोंक दिया था। पढ़ाई के लिए कड़ी धूप में हॉस्टल से लाइब्रेरी आना-जाने के कारण वह इस बीच कई बार बीमार भी पड़ गई थीं।  

10. आगामी लोकसभा चुनाव को कैसे प्रभावित कर सकती है एआई?– मालविका धर

जैसे-जैसे भारत दुनिया के सबसे बड़े चुनावों की तैयारी कर रहा है, पार्टियां नई और खतरनाक रणनीतियों के लिए एआई की ओर रुख कर रही है। बीते फरवरी आगामी लोकसभा चुनाव से ठीक पहले गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, ओपनएआई, ऐमज़ान और मेटा सहित 20 प्रौद्योगिकी दिग्गजों ने ‘2024 चुनावों में एआई के भ्रामक उपयोग से निपटने के लिए तकनीकी समझौते’ पर हस्ताक्षर किए। 7 सिद्धांतों के एक स्वैच्छिक ढांचे के रूप में, यह समझौता 60 से अधिक देशों में चुनावों से भरे एक असाधारण वर्ष में, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के चुनावी लोकतंत्र के लिए बढ़ती खतरनाक चुनौती के संदर्भ में आता है।

11. पटना यूनिवर्सिटी में हिंसा का असर और शैक्षिक माहौल में लगातार गिरावट– सौम्या सिन्हा

पटना यूनिवर्सिटी की छात्रा रिया बताती हैं, “बीते साल अक्टूबर में नवरात्रि को लेकर पटना के मिलर ग्राउंड स्कूल में डांडिया का आयोजन हुआ था। डांडिया को पटना यूनिवर्सिटी के छात्र नेता ने आयोजित कराया था। डांडिया नाइट में स्टेज पर चढ़ने को लेकर दो गुटों के बीच में विवाद हुआ और ग्राउंड में हंगामा मचने के बाद, हम सभी वहां से निकल गए थे। लेकिन पूरे यूनिवर्सिटी में यह खबर फैल गई थी कि डांडिया नाइट में हंगामा और मारपीट हुई थी। कैंपस में असुरक्षित माहौल होने के कारण कई बार लड़कियों को क्लास आने में परेशानी होती है। मुझे कई बार कॉलेज में हुई हिंसा की घटनाओं से डर लगता है, जिसके कारण मैं थोड़े शोर-शराबे से भी सहम जाती हूं। मैं बहुत इंट्रोवर्ट हूं इसलिए भी थोड़ा डर लगा रहता है। अगर मुझे कैंपस में हिंसा की खबर मिलती है, तो मैं तुरंत घर जाना चाहती हूं, क्योंकि  कॉलेज में विद्यार्थियों की सिक्योरिटी बड़ा मुद्दा है।”

12. सेल्फ लव की बदौलत किस तरह जीवन के प्रति बदला मेरा नज़रिया– अतिका सईद

मेरे जीवन में सेल्फ लव की खोज कुछ बेहद अवसादग्रस्त होने के बाद सामने आई। मेरी सेल्फ़ लव की खोज से पहले मैं बहुत दिनों तक अवसादग्रस्त रही। कक्षा 12वीं की परीक्षा के समय मेरे पड़ोस में आत्महत्या से हुई मौत ने मुझे बहुत अधिक निराश कर दिया जिसके फलस्वरूप मुझे नींद आने में मुश्किलें होने लगी। इसके बाद स्कूल में बुली होने के बावजूद मैं कभी इस तथ्य को समझ नहीं पायी कि मुझे बुली किया जा रहा है। मेरे साथ ऐसा होता रहा लेकिन मैं इसे महसूस नहीं कर पा रही थी। जब मैं 10वीं कक्षा में थी हमारी नीति शिक्षा के आख़िरी अवधि में हमें एक खेल खिलाया गया था। जहां हमें अपने दोस्तों के नाम लिखकर उन्हें टीचर की मेज पर रखना था, लेकिन मेरा नाम किसी पर्चे में नहीं था। इससे मुझे पहली बार अकेलेपन का एहसास हुआ और यह एहसास बारह सालों के स्कूल के बाद भी रहा।

13. परिवार में यौन स्वास्थ्य के मुद्दे पर बात करना एक चुनौती के समान क्यों है?– रीतिका नेगी

“अरे चुप करो, कितनी बेशर्म लड़की हो तुम”, जब मैंने पहली बार कक्षा 10 में अपनी टीचर के सामने पीरीयड शब्द का इस्तेमाल किया, तो टीचर ने मुझे इस पर काफी गुस्सा किया था। उस दिन मैं समझ नहीं पाई थी कि आखिर टीचर ने ऐसा क्यों बोला? इसके बाद कही न कही मुझे यह लगने लग गया था कि पीरीयड, यौन स्वास्थ्य या फिर सेक्स जैसे शब्दों का प्रयोग करना उचित नहीं होता है। इस पर हम सबसे सामने बात नहीं कर सकते है। लेकिन यौन स्वास्थ्य के बारे में चर्चा करना कितना जरूरी है, बढ़ती उम्र के साथ समझ आने लगा। 

14. मेरा फेमिनिस्ट जॉय: परिवार में पितृसत्ता के खिलाफ़ मेरी सोच और लड़ाई!– सुंदरम कुमार

दिवाली के मौके की बात है। तब तक मैं थोड़ा-बहुत खाना बनाना सीख चुका था। मेरी कोशिश रहती है कि जितना हो सके, अपने काम खुद करूँ। घरों में आमतौर पर खाना बनाना महिलाओं का काम समझा जाता है। एक दिन दीदी सब्जी बना रही थीं, और मेरे आग्रह पर उन्होंने मुझे रोटी बनाने के लिए कहा। मैं आराम से रोटियाँ बना रहा था, तभी पापा आए और बोले, “चलो, गाय का दूध निकालने चलना है।” मैंने उन्हें कहा, “रोटी बनाकर आता हूँ, तब तक रुक जाइए।” इस पर उन्हें बहुत गुस्सा आया और बोले, “ये औरतों वाला काम करने में इतना मन क्यों लगा रहा है? चल, ये काम उनका है।” माँ ने भी आकर मुझे किचन से हटा दिया। इस घटना के बाद मेरे मन में कई सवाल उठे।

15. डी वाई चंद्रचूड़ के कार्यकाल के हिट और मिस: न्यायिक प्रगति के प्रयास कितने हुए सफल?मासूम कमर

मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में अपने दो साल के कार्यकाल में एक अमिट छाप छोड़ी है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने साल 2022 में 50वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ लेने के बाद देश की सेवा को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता देने का वादा किया था। उन्होंने न्यायिक प्रणाली में पारदर्शिता में सहायता के लिए तकनीकी सुधार किए। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कई नवोन्मेषी पोर्टल शुरू किए हैं, जिनमें ‘सुस्वागत’, ‘ई-फाइलिंग 2.0,’ ‘सुप्रीम कोर्ट मोबाइल ऐप 2.0,’ ‘एडवोकेट अपीयरेंस पोर्टल,’ और ‘ई-एससीआर प्रोजेक्ट’ शामिल हैं। उन्होंने न्याय तक पहुंच बढ़ाने के लिए व्हाट्सएप के साथ आईटी सेवाओं को भी एकीकृत किया है। हालांकि चंद्रचूड़ सर्वोच्च न्यायालय की कॉलेजियम प्रणाली में कोई संरचनात्मक परिवर्तन करने में विफल रहे हैं। चंद्रचूड़ अपने प्रगतिशील निर्णयों और भारत के संविधान को बनाए रखने की प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते हैं। उन्हें व्यापक रूप से सुप्रीम कोर्ट के सबसे प्रभावशाली और सम्मानित न्यायाधीशों में से एक माना जाता है।

16. सामाजिक भेदभाव और चिकित्सकीय असमानताओं के बीच क्वीयर समुदाय की स्वास्थ्य चुनौतियां– सविता चौहान

ट्रांसजेंडर और अन्य गैर-बाइनरी व्यक्तियों के लिए अलग से कोई सुविधा नहीं होती। डॉक्टर और अन्य स्वास्थ्यकर्मी अक्सर क्वीयर समुदाय के प्रति संवेदनशील नहीं होते, और कभी-कभी उनकी समस्याओं को हल्के में लेते हैं। इस विषय पर दिल्ली की रहने वाली गीत जो क्वीयर समुदाय से ताल्लुक रखती हैं कहती हैं, “जब भी मैं अस्पताल जाती हूं और जब पेशेंट की पर्ची बनाई जाती है तो उस समय जेन्डर  पुछा जाता है कि किस जेंडर को बिलॉन्ग करते हो। पर्ची में अमूमन महिला या फिर पुरुष  लिखा होता है। तब खुद के लिए बहुत बुरा महसूस होता है। उस समय मुझे सोचना पड़ता है कि मैं क्या जबाब दूँ। कई बार इस डर की वजह से भी मैं हॉस्पिटल नहीं जा पाती।”

17. महिलाओं और क्वीयर समुदाय के लिए एक साधारण ट्रेन यात्रा भी क्यों मुश्किल है?– त्रयी शक्ति

भारत में प्रतिदिन लगभग 23 मिलियन लोग ट्रेन से यात्रा करते हैं, जिनमें से लगभग 4.6 मिलियन महिलाएं होती हैं। राजधानी दिल्ली में 50 फीसद से अधिक महिलाओं ने पब्लिक ट्रांसपोर्ट, विशेषकर ट्रेन में, यौन उत्पीड़न का सामना किया है। क्वीयर समुदाय और महिलाओं दोनों को ट्रेन यात्रा के दौरान यौन हिंसा, शोषण, अपमानजनक टिप्पणियां और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा, ट्रेनों में दरवाजे और खिड़कियों का ठीक से बंद न होना, शौचालयों की साफ-सफाई की कमी, जैसी समस्याएं भी आम है, जिससे महिलाएं और क्वीयर समुदाय का प्रभवित होने की संभावना ज्यादा है। भारतीय रेल में सुरक्षा का अभाव भी एक बड़ा मुद्दा है।

18. दलित ग्राम विकास अधिकारी की आत्महत्या से मौत और सवाल ग्राम पंचायत की लचर व्यवस्था के– राहुल यादव

हाल ही में राजस्थान के थानागाजी जिले की चिपलटा ग्राम पंचायत के दलित ग्राम विकास अधिकारी ललित बेनीवाल की आत्महत्या से मौत की ख़बर सामने आई है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार भ्रष्टाचार और राजनीतिक दबाव के चलते ईमानदारी से काम ना कर पाने के कारण ललित ने यह कदम उठाया है। वह गरीब दलित परिवार से आते थे, उन्होंने आईआईटी कानपुर से बीटेक किया था और सिविल सर्विस परीक्षा की मुख्य परीक्षा में दो बार भाग ले चुके थे। तैयारी के बीच जब उनका ग्राम विकास अधिकारी के पद पर चयन हुआ तो आर्थिक स्थिति बेहतर न होने के कारण इस पद पर ज्वाइन किया था। सरकार, भष्ट्राचार के ख़िलाफ़ जीरो टॉलरेंस के बड़े-बड़े पोस्टर लगवाती है, प्रचार करती दिखती है वहीं सरकार के जमीनी स्तर पर काम करने वाले अधिकारी इस समस्या का सामना बड़े स्तर पर कर रहे हैं। यह एक गंभीर मामला है जहां हमें सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, ग्रासरूट पर काम करने वाले चेंज मेकर्स के रास्ते में आने वाली समस्याओं और इन सबके समाधान पर गंभीर चर्चा करनी चाहिए। 

19. खेलों में महिलाओं के पहनावे की स्वतंत्रता: संघर्ष और बदलाव की कहानी– फूलजहां खातून

19वीं शताब्दी और वर्तमान समय के बीच खिलाड़ियों के कपड़ों में काफी बदलाव आया है। लेकिन अधिकांश पोशाकें महिलाओं के सेक्सुअलाइजेशन की ओर विकसित हुई हैं, जो अक्सर उनके शारीरिक रूप पर ध्यान केंद्रित करती हैं। इस बदलाव में महिला एथलीटों के लिए छोटे और तंग कपड़े, जैसेकि शॉर्ट्स और टॉप्स, शामिल हैं, जो अक्सर उनके शरीर को प्रदर्शित करते हैं। 19वीं सदी में, महिला खिलाड़ी विभिन्न खेलों जैसे घुड़सवारी, शिकार, और टेनिस के लिए लंबी पोशाकें, जूते और टोपी पहनती थीं। उन्हें शिष्टाचार के नियमों का पालन करना होता था, जिसका अर्थ था कि वे बहुत ज़्यादा कामुक कपड़े नहीं पहन सकती थीं। लेकिन वे पुरुषों की तरह कपड़े भी नहीं पहन सकती थीं। उन्हें अपने पहनावे में संतुलन बनाना होता था ताकि वे शालीन दिखें और साथ ही खेल के लिए उपयुक्त भी दिखें।

20. 2 अप्रैल का इतिहास: दलित-बहुजनों का संघर्ष और समाज की सच्चाई– रवि संबरवाल

2 अप्रैल के इतिहास को डॉक्यूमेंट किया जाना चाहिए। डॉ. आंबेडकर की कही बात याद आती है कि जुल्म करने वाले से ज्यादा जुल्म सहने वाला गुनाहगार होता है। इस बार समाज ने जुल्म न सहने की ठानी। कुछ जानें गई, लेकिन उन्हें इतिहास में याद रखा जाएगा। भारत बंद के दौरान शहीद होने वाले सभी बहुजन योद्धाओं को नमन। उन तमाम दलित, आदिवासी कार्यकर्ताओं, समाजसेवियों को सलाम जिन्होंने अपने समाज के खिलाफ हो रहे अत्याचार का डटकर विरोध किया और सुप्रीम कोर्ट को अपना फैसला बदलने पर मजबूर किया। जब कभी भी इस देश का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसमें यह लिखा जाएगा कि जब दलित-आदिवासियों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ हो रहा था, तो संपूर्ण समाज अपनी एकता का परिचय देते हुए सड़कों पर जमा हो गया था और पूरे देश को बंद कर यह संदेश दिया था कि वे अपने अधिकार के लिए लड़ते रहेंगे।

21. किराए का घर ढूंढते समय सिंगल महिलाओं का संघर्ष और चुनौतियां– शहनाज़

25 साल की मनीषा मूल रूप से उत्तर प्रदेश के मऊ की रहनेवाली हैं। उन्होंने हाल ही में कानपुर के एक प्राइवेट कॉलेज में एक व्यावसायिक कोर्स में दाख़िला लिया है। वैसे तो उनके कॉलेज का ख़ुद का हॉस्टल भी है, लेकिन जिस इलाक़े में हॉस्टल है वहां पावर कट की समस्या बहुत ज़्यादा होने की वजह से उन्होंने किराए पर घर लेने का फ़ैसला लिया। वे बताती हैं, “मैं जब घर ढूंढ रही थी, तो मेरे साथ मेरी एक मुस्लिम दोस्त भी थी, वो घर ढूंढने में मेरी मदद कर रही थी। उस दौरान हम एक घर देखने पहुंचे, घर के मालिक ने मुझसे मेरा नाम और फिर मेरी जाति पूछी। इस पर मैंने भी उनसे सवाल कर लिया कि क्या वो कुछ ख़ास जाति के लोगों को ही घर किराए पर देते हैं। इस पर वे बोले कि अब तुम्हारा नाम तो मनीषा है, तुमको तो दे ही देंगे, हां अगर शबाना होता तो न देते। मुसलमान नॉन वेज खाते हैं इसलिए।”

22. दांव पर मांगेः लोकसभा चुनाव में खेती-किसानी से जुड़े लोगों के क्या हैं मुद्दे– पूजा राठी

स्वामीनाथन रिपोर्ट की सिफारिश लागू करना, फसल की एमएसपी पर खरीद, बिजली के दामों में कमी, खुले आवारा पशु, खाद पर सब्सिडी आदि वर्तमान में किसानों की मुख्य मांगे हैं जिनको लेकर किसान वर्ग राष्ट्रीय स्तर पर बातचीत चाहता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुटबी के रहने वाले अनुराग एक किसान है। आगामी चुनाव को लेकर उनका कहना है, “इस सरकार का किसानों पर शोषण लगातार बढ़ता ही जा रहा है। सरकार ने हमें आंतकवादी बताया है, हम पर लाठियां बरसाई, सिर्फ इस वजह से कि हम अपनी फसल का सही दाम मांग रहे थे। हमें इस देश में खेती की परंपरा को बचाए रखना है। सड़कों पर किसान अपनी मर्जी से नहीं बल्कि अपने हक के लिए हैं। लेकिन सरकार का दमन हम पर बढ़ता जा रहा हैं। वोट की ताकत ही हमारा सबसे बड़ा अधिकार है जिसे किसान समझ गया है और समझदारी से वोट करेगा। हम हर उस राजनीतिक शख्सियत के ख़िलाफ़ हैं जो किसानों के साथ नहीं है।”

23. बेबी कांबले और उर्मिला पवार की आत्मकथाओं के माध्यम से दलित नारीवाद की बात– वर्षा प्रकाश


बेबी कांबले और उर्मिला पवार ने अपनी रचनाओं में इस बात पर ध्यान केंद्रित किया है कि कैसे जाति और लिंग दोनों के आधार पर दलित महिलाओं को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। वह निडर और स्पष्ट भाषा में उच्च जाति के लोगों द्वारा किए जाने वाले अमानवीय व्यवहार और सामाजिक जहालत को अपनी भाषा में लिखती हैं। उन्होंने अपने समुदाय के भीतर अपने उत्पीड़न को तथ्यों और साफ़-गोई से पेश किया। 1986 में प्रकाशित बेबी कांबले द्वारा मराठी भाषा में लिखी गई ‘जीना अमुचा’  ऐसा ही एक प्रयास है जो दलित साहित्य में दलित महिलाओं के अनुभवों और संघर्षों को केंद्रित करने का महत्वपूर्ण स्थान रखता है। साल 1988 में लिखी गई प्रमुख रचना उनकी अपनी आत्मकथा ‘आयदान’ है। उर्मिला पवार ने अपनी आत्मकथा ‘आयदान’ मूल रूप से मराठी में लिखी थी जिसका अनुवाद माया पंडित ने ‘द वीव ऑफ माई लाइफ: ए दलित वुमन मेमॉयर्स’ नाम के शीर्षक से किया।

24. प्रेम में पेड़ होना: प्रेम के अलग-अलग मायनों को सामने रखता एक कविता संग्रह– आयुषमान

जसिंता केरकेट्टा आदिवासी कवयित्री हैं। वह लगातार आदिवासी हक़ के लिए लिखती, बोलती रहीं हैं। इस साल उनका नया काव्य संग्रह ‘प्रेम में पेड़ होना’ प्रकाशित हुआ। यह संग्रह प्रेम का एक अलग स्वर तलाशने की कोशिश करता है। वह ख़ुद इसे प्रेम कविताओं का संकलन मानती हैं। यह प्रेम निर्वात में नहीं हो रहा है। जसिंता आदिवासियत के इस प्रेम-दर्शन को प्रेम के रूपक के सहारे गढ़ती हैं। एक कविता में वह लिखती हैं -“सोचती हूँ, आदिवासी दुनिया में कैसे, प्रेम भी पेड़ हो जाता है।” इस संग्रह में बहुत सवाल उठाये गए हैं, चिंता जाहिर की गई है। सवाल जो जो बहुत छोटे हैं पर उतने ही ज़रूरी है। क्यों हमारी पहचान आपको स्वीकार नहीं?, चिंता सबको एक जैसा बना देने की और हिंसा के ख़िलाफ़ प्रतिरोध है। एक छोटी-सी इच्छा कि सब से प्रेम किया जाए। पेड़-पौधे, पत्तियों, नदियों से आत्मीयता हो। 



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