इंटरसेक्शनलजेंडर बाउंस बैक कल्चर: आराम करने वाली माँ से ज़्यादा रेज़िलिएंट माँ का जश्न क्यों?

बाउंस बैक कल्चर: आराम करने वाली माँ से ज़्यादा रेज़िलिएंट माँ का जश्न क्यों?

समाज ऐसी महिलाओं को बढ़ावा देने के बजाय आराम करने वाली माँ का भी एक समान सम्मान करना चाहिए। प्रसव के बाद आराम और रिकवरी किसी भी महिला के शारीरिक और मानसिक सेहत के लिए बेहद ज़रूरी होता है।

सोशल मीडिया में आए दिन अक्सर ऐसी वायरल तस्वीरें देखने को मिलती हैं जिसमें बीमार होने के बावजूद कोई माँ अपने बच्चों और परिवार के लिए खाना बना रही है। मुश्किल यह है कि ऐसी घटनाओं को बहुत रोमांटिसाइस किया जाता है। हमारे समाज में महिला ख़ासतौर पर माँ को त्याग, समर्पण और सेवा का पर्याय बना दिया गया है। ऐसे में अगर कोई महिला इन पैमानों पर खरी नहीं उतरती तो उसे स्वार्थी समझा जाता है। ऐसे में परिवार और समाज की स्वीकृति पाने के लिए महिलाओं पर ज़रूरत से ज़्यादा काम करने का एक अनदेखा दबाव रहता है। यहां तक कि बच्चों को जन्म देने के बाद जब इन्हें कुछ महीनों तक आराम की ज़रूरत होती है तब भी आराम नहीं मिल पाता है। 

आज की तेज रफ़्तार ज़िंदगी में जहां महिलाओं पर घर और बाहर दोनों की ज़िम्मेदारी है, ऐसे में प्रेगनेंसी के बाद इन्हें रिकवरी का समय मिल पाना और भी मुश्किल होता जा रहा है। बच्चे के जन्म के बाद जल्द से जल्द प्रेगनेंसी से पहले के शरीर और जीवनशैली में वापस आ जाने को ही ‘बाउंस बैक कल्चर’ कहते हैं। आम तौर पर समाज आराम करने वाली माँ के बजाय बाउंस बैक करने वाली माँ को ज़्यादा महत्त्व देता है। इस तरह की सामाजिक अपेक्षाओं के चलते महिलाओं में यह कंडीशनिंग बैठ जाती है और वह ख़ुद से भी इस तरह की अवास्तविक उम्मीदें करने लगती हैं।

तस्वीर साभार: The Hindu

इन कारणों से पोस्टपार्टम डिप्रेशन का जोख़िम और भी बढ़ जाता है। कई बार तो महिलाओं की सेहत पर इसका बुरा असर पड़ता है और उन्हें अतिरिक्त देखभाल की ज़रूरत भी पड़ जाती है। समस्या ये भी है कि कामकाजी महिलाओं के लिए नौकरी में आगे बढ़ने के लिए, माँ बनने के बाद नौकरियों से ज्यादा छुट्टी नहीं ले पाती जो उनकी जरूरत ही नहीं अधिकार है।

मैंने बच्चे के जन्म के बाद 6 महीने की छुट्टी ली जिससे मुझे आराम और रिकवरी का समय मिल जाए। साथ ही मैं बच्चे की देखभाल भी कर सकूं। लेकिन, इस दौरान लोगों ने मुझ पर जल्दी से काम पर आने का दबाव डाला। इसके अलावा, डायरेक्ट और इनडायरेक्ट दोनों तरीकों से वजन कम करने के लिए एक्सरसाइज करने और डाइट प्लान करने की बिन मांगी सलाहें भी मिलती रहीं।

बाउंस बैक कल्चर की जड़ें

बाउंस बैक कल्चर की जड़ें सदियों से हमारे समाज में मौजूद है, भले ही यह नाम बहुत बाद में प्रचलित हुआ। आज भी घरों में मौजूद बुजुर्ग महिलाएं नई माँओं को अपनी मिसाल देती हैं कि किस तरह वह प्रेगनेंसी और डिलीवरी के समय तक लगातार काम किया करती थीं। इस प्रकार की बातों से महिलाओं पर एक तरह का दबाव बन जाता है। आज के सोशल मीडिया के जमाने में सेलिब्रिटीज और इनफ्लुएंसर्स अपने पोस्ट प्रेगनेंसी  ट्रांसफॉर्मेशन को जिस तरह से दिखाते हैं, इसका असर भी महिलाओं पर पड़ता है। सोशल मीडिया ने बॉडी इमेज को लेकर आम लोगों की सोच को काफ़ी ज़्यादा प्रभावित किया है। पहले जहां फ़िल्म और फैशन इंडस्ट्री से जुड़ी महिलाओं पर ही फिगर को लेकर इस तरह का दबाव रहता था, वहीं आज आम महिलाओं की ज़िंदगी में भी इसका असर देखा जा सकता है। मीडिया में ऐसी महिलाओं को प्रमुखता से जगह दी जाती है जो प्रसव के तुरंत बाद स्लिम फिट दिखती हैं। इससे आम महिलाओं के मन में भी यह बात घर कर जाती है कि उन्हें भी इनकी तरह जल्द से जल्द फिट होना है।

नई माँ को क्या आराम का अधिकार नहीं?

छत्तीसगढ़ के भिलाई की रहने वाली अफिलिएट मार्केटर दीपाली सिंह अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, “सोशल मीडिया की पोस्ट प्रेगनेंसी परफेक्ट फिगर वाली इमेज को हाईलाइट करने में अहम भूमिका है। ख़ासतौर पर इनफ्लुएंसर्स के ट्रांसफॉर्मेशन से हमारे ऊपर भी अतिरिक्त दबाव पड़ता है कि जब वह कर सकती हैं, तो हम क्यों नहीं? प्रेगनेंसी के बाद अपने फिगर को लेकर ख़ुद में भी अच्छा महसूस नहीं होता। इसके अलावा घर-परिवार में भी जल्द से जल्द अपना पुराना रूटीन और घर की ज़िम्मेदारी संभाल लेने का दबाव रहता ही है। मायके में तो फिर भी आराम मिल जाता है पर ससुराल में आराम करने पर एक अतिरिक्त दबाव सा महसूस होता है।”

सोशल मीडिया की पोस्ट प्रेगनेंसी परफेक्ट फिगर वाली इमेज को हाईलाइट करने में अहम भूमिका है। ख़ासतौर पर इनफ्लुएंसर्स के ट्रांसफॉर्मेशन से हमारे ऊपर भी अतिरिक्त दबाव पड़ता है कि जब वह कर सकती हैं, तो हम क्यों नहीं? प्रेगनेंसी के बाद अपने फिगर को लेकर ख़ुद में भी अच्छा महसूस नहीं होता।

बाउंस बैक कल्चर का मानसिक प्रभाव

बाउंस बैक कल्चर का नई माँओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पहले जैसा शरीर जल्दी से वापस पाने के दबाव के चलते महिलाएं अपने ऊपर अतिरिक्त बोझ डाल लेती हैं। इसके लिए कई बार ग़लत तरीके से डाइटिंग और एक्सरसाइज करने की वजह से उनकी सेहत पर बुरा असर पड़ता है। इसके अलावा जब मनचाहा नतीजा नहीं मिलता तो इनमें असंतोष और अपराधबोध भी होता है। परिवार, दोस्त और रिश्तेदार बहुत बार जाने-अनजाने में बॉडी शेमिंग भी करते हैं जिससे इन्हें शर्मिंदगी महसूस होती है। सोशल मीडिया पर ज़्यादा सक्रिय रहने वाली महिलाएं अक्सर अपनी तुलना सेलिब्रिटीज और इनफ्लुएंसर्स से करके और दुखी हो जाती हैं। इसके अलावा बाउंस बैक पर जोर देने से आराम और रिकवरी कहीं ना कहीं पीछे छूट जाती है।

तस्वीर साभार: Telegraph

प्रसव के बाद महिलाओं का शरीर बहुत सारे बदलावों से होकर गुज़रता है और इसे ठीक होने में समय लगता है। ऐसे में आराम की सख़्त ज़रूरत होती है। जल्दबाजी करने से सेहत संबंधी जटिलताएं जैसे कि पेल्विक फ्लोर डिस्फंक्शन जैसी समस्याएं होने का जोख़िम बढ़ जाता है। मानसिक सेहत के लिहाज से भी यह हानिकारक साबित हो सकता है। मां को जब आराम और अपनी देखभाल का मौका नहीं मिलता तो यह पोस्टपार्टम डिप्रेशन और तनाव को बढ़ा देता है।

बाउंस बैक कल्चर का नई माँओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पहले जैसा शरीर जल्दी से वापस पाने के दबाव के चलते महिलाएं अपने ऊपर अतिरिक्त बोझ डाल लेती हैं। इसके लिए कई बार ग़लत तरीके से डाइटिंग और एक्सरसाइज करने की वजह से उनकी सेहत पर बुरा असर पड़ता है।

पहले जैसा जीवन जीने का दबाव

उत्तर प्रदेश के चित्रकूट की 35 वर्षीय नम्रता बताती हैं, “हालांकि मेरे परिवार में सीधे तौर पर तो बाउंस बैक का किसी भी तरह का कोई दबाव महसूस नहीं हुआ। लेकिन ख़ुद में ही वापस पहले जैसे होने का दबाव रहता है। पुराने कपड़ों में फिट होना एक टारगेट सा बन जाता है। बच्चे के जन्म के बाद 2 साल तक ढंग से खाना, पीना, सोना सब मुश्किल हो जाता है। ऐसे में अपने लिए समय निकालना, डाइट प्लान करना, एक्सरसाइज करना बेहद चुनौती भरा होता है। ऊपर से सुपरवुमन का कॉन्सेप्ट और भी थका देने वाला होता है। सोशल मीडिया इस तरह के दबाव में और भी ज्यादा इज़ाफ़ा करता है।”

आराम और रिकवरी का महत्त्व 

समाज ऐसी महिलाओं को बढ़ावा देने के बजाय आराम करने वाली माँ का भी एक समान सम्मान करना चाहिए। प्रसव के बाद आराम और रिकवरी किसी भी महिला के शारीरिक और मानसिक सेहत के लिए बेहद ज़रूरी होता है। जब इन्हें ख़ुद को ठीक होने का समय मिलता है, तो वो अपनी शारीरिक और भावनात्मक ज़रूरतों को बेहतर तरीके से पूरा कर सकती हैं। इससे न केवल वे ख़ुद बेहतर महसूस करती हैं बल्कि बच्चों पर भी इसका अच्छा असर पड़ता है। एक निश्चित समय तक आराम करने से पोस्टपार्टम डिप्रेशन का जोख़िम भी कम होता है। इसके साथ ही किसी भी तरह की सेहत संबंधी जटिलता होने के चांसेस भी कम होते हैं। नई माँओं को वापस से पुरानी जीवन शैली में लौटने के दबाव से छुटकारा मिलना बेहद ज़रूरी है। इसके अलावा किसी भी तरह की तुलना करने से बचना चाहिए क्योंकि सबका शरीर और परिस्थितियां अलग होती हैं। 

हालांकि मेरे परिवार में सीधे तौर पर तो बाउंस बैक का किसी भी तरह का कोई दबाव महसूस नहीं हुआ। लेकिन ख़ुद में ही वापस पहले जैसे होने का दबाव रहता है। पुराने कपड़ों में फिट होना एक टारगेट सा बन जाता है। बच्चे के जन्म के बाद 2 साल तक ढंग से खाना, पीना, सोना सब मुश्किल हो जाता है।

दिल्ली की रहने वाली सरकारी अधिकारी काव्या (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “मैंने बच्चे के जन्म के बाद 6 महीने की छुट्टी ली जिससे मुझे आराम और रिकवरी का समय मिल जाए। साथ ही मैं बच्चे की देखभाल भी कर सकूं। लेकिन, इस दौरान लोगों ने मुझ पर जल्दी से काम पर आने का दबाव डाला। इसके अलावा, डायरेक्ट और इनडायरेक्ट दोनों तरीकों से वजन कम करने के लिए एक्सरसाइज करने और डाइट प्लान करने की बिन मांगी सलाहें भी मिलती रहीं। इसके साथ ही जल्द से जल्द घर की ज़िम्मेदारी फिर से वापस लेने की अपेक्षा और दबाव हमेशा ही महसूस हुआ।”

कैसे करें दोनों परिस्थितियों में बैलन्स

तस्वीर साभार: BBC

नई माँ के लिए एक समावेशी और मददगार माहौल बनाने के लिए बाउंस बैक कल्चर को चुनौती देना ज़रूरी है। इसके लिए मीडिया में ऐसे मॉडल्स और सेलिब्रिटीज तो बढ़ावा दिया जाना चाहिए जिन्होंने प्रेगनेंसी के बाद परफेक्ट फिगर के मिथक को तोड़ा हो। या ऐसी महिलाएं जिन्होंने नौकरियों पर वापस आने के लिए जल्दबाजी नहीं की है। डॉक्टर्स का भी रिकवरी और आराम के महत्त्व को बताया जाना चाहिए जिससे आम लोगों की धारणाओं को बदला जा सके। कामकाजी महिलाओं के लिए प्रेगनेंसी और चाइल्ड केयर लीव की सुविधा को आसान बनाया जाना चाहिए जिससे ये नौकरी की चिंता के बजाय अपनी सेहत और देखभाल को प्राथमिकता दे सकें। बाउंस बैक कल्चर किसी भी तरह से न तो माँ के लिए लाभदायक है न ही बच्चे के लिए। इसलिए महिलाओं पर इस तरह का अनावश्यक दबाव डालने से बचना चाहिए, तभी एक स्वस्थ और समावेशी समाज का सपना साकार हो पाएगा।

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