समाजख़बर आखिर सरकार लिव-इन रिश्तों को नियंत्रित क्यों करना चाहती है?

आखिर सरकार लिव-इन रिश्तों को नियंत्रित क्यों करना चाहती है?

यूसीसी के तहत लिव इन रिलेशनशिप में रहने वालों के लिए प्रावधान बनाया गया है कि जो भी लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे हैं, उन्हें ज़िले के संबंधित अधिकारी के समक्ष रजिस्ट्रेशन करवाना होगा। इसके साथ ही जो भी निवासी राज्य के बाहर रहता है, उसे अपने ज़िले में अपने रिश्ते के बारे में जानकारी देनी होगी।

सालों के राजनीतिक बहस और गहमागहमी के बाद बीते दिनों 27 जनवरी  2025 को उतराखंड में यूनिफ़ोर्म सिविल कोर्ड (यूसीसी) लागू कर दिया गया। उतराखंड भारत का पहला राज्य है जहां समान नागरिक संहिता लागू की गई और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने यूसीसी पोर्टल भी लॉन्च किया। पिछले साल 7 फ़रवरी को उत्तराखंड के विधानसभा में इससे संबंधित विधेयक पारित किया गया था और 12 मार्च को राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिलने के बाद इसने क़ानून का रूप ले लिया है। लेकिन, नियमों के तत्काल न बन पाने और इसे सही रूप से अमल में लाने में औपचारिक प्रशिक्षण न होने की वजह से इसे लागू नहीं किया जा सका था। इसके बाद से ही पूरे देश में ही यह एक चर्चा का विषय बना रहा।

भारतीय संविधान का आर्टिकल 44 कहता है कि राज्य भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा। चूंकि बहुत से क़ानून को पहले से ही सबके लिए एक समान मौजूद हैं, यहां ‘एक क़ानून’ से मतलब ऐसे कानूनों से है जो भिन्न-भिन्न समुदायों के लिए अलग है जैसेकि हिंदू विवाह अधिनियम, मुस्लिम विवाह अधिनियम आदि। यूसीसी  एक ऐसा प्रस्ताव है जिसके तहत सभी नागरिकों के पर्सनल लॉ को एक समान बनाया जा सके,  जो बिना किसी धार्मिक, जाति या भेदभाव के सभी पर बराबर लागू होगा। अगर किसी राज्य में सिविल कोड लागू होता है तो विवाह, तलाक़, बच्चा गोद लेना और सम्पत्ति के बँटवारे, जो अब तक पर्सनल लॉ के अंतर्गत आते थे, जैसे तमाम विषयों में हर नागरिकों के लिए एक क़ानून होगा।

कई राज्यों में प्रेमी जोड़ों को सामंती और धार्मिक कट्टरता से छिपकर रहना पड़ता है। सामाजिक हिंसा और जबरन विवाह जैसी घटनाएं आम हैं। यूसीसी की शर्तें इन जोड़ों की मुश्किलें बढ़ा सकती हैं, क्योंकि पंजीकरण न होने पर उन्हें अपराधी माना जा सकता है। यह न केवल सामाजिक बहिष्कार और भावनात्मक संकट को बढ़ाएगा बल्कि विवाह की औपचारिकता थोपने जैसा भी है। सवाल यह है कि पंजीकरण का असल लाभ क्या है।

पर्सनल लॉ क्या है?

हिंदू, मुस्लिम, ईसाई जैसे अलग-अलग धार्मिक समुदाय विवाह, तलाक़, उत्तराधिकार जैसे मामलों में अपने-अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं। हालांकि भारत में आपराधिक क़ानून एक समान है और सभी पर एक ही तरीक़े से लागू होते हैं, लेकिन बाकी कई मुद्दों के लिए सभी धर्म और जाति के लॉ बने हुए हैं। अब सभी नागरिकों और धर्मों के व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने के लिए समान क़ानून के रूप में यूसीसी लागू किया जा रहा है। गौरतलब हो कि संविधान के 7वीं अनुसूची के अनुसार अगर केन्द्र किसी विषय पर क़ानून बनाता है तो वो क़ानून पूरे देश में लागू होता है पर अगर कोई राज्य क़ानून बनाता है तो वो सिर्फ़ राज्य में ही लागू होता है। यानी यूसीसी क़ानून फिलहाल सिर्फ उत्तराखंड में लागू होगा। पर इस क़ानून में ऐसा क्या है जिस कारण पूरे देश में यह चर्चा का विषय बना हुआ है?


आखिर यूसीसी के माध्यम से निजी जीवन में दखल क्यों?

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यूसीसी के तहत लिव इन रिलेशनशिप में रहने वालों के लिए प्रावधान बनाया गया है कि जो भी लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे हैं, उन्हें ज़िले के संबंधित अधिकारी के समक्ष रजिस्ट्रेशन करवाना होगा। इसके साथ ही जो भी निवासी राज्य के बाहर रहता है, उसे अपने ज़िले में अपने रिश्ते के बारे में जानकारी देनी होगी और जो भी युवक-युवती एक महीने से अधिक समय से लिव इन में हैं, और उन्होंने इसके बारे में यदि सूचना नहीं दिया है, तो उनको तीन महीने तक की सजा या दस हज़ार रुपय तक का जुर्माना हो सकता है। पिछले कई सालों से इस बात पर बहस चल रही है कि क्या देश अभी ऐसी स्थिति में है कि यूनिफार्म सिविल कोड लागू किया जा सके।

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए यूसीसी का कार्यान्वयन एक प्रमुख एजेंडा रहा है। उत्तराखंड में यूसीसी लागू करके, पार्टी ने अपने कोर वादों में से एक को पूरा किया है। आलोचकों का यह भी कहना है कि यह कदम मुस्लिम समुदाय को हाशिए पर लाने और हिंदू बहुसंख्यक नीतियों को थोपने का भी एक प्रयास है। इससे पहले बीजेपी शासित राज्य जैसे उत्तर प्रदेश अपने ‘ऑपरेशन मजनू‘ प्रयासों के लिए जानी गई, जहां सीधे तौर पर लोगों के एजेंसी पर चोट की गई और मोरल पुलिसिंग का सहारा लिया गया। उत्तराखंड में यूसीसी का लागू होना राज्य में अविवाहित जोड़ों के लिए बहुत गंभीर और नकारात्मक परिणाम ला सकते हैं। इसे समझने के लिए, फेमिनिज़म इन इंडिया ने कुछ युवाओं से उनके विचार जानने का प्रयास किया।

यह लोकतांत्रिक नहीं है। हर व्यक्ति को अपनी मर्ज़ी से जीवन जीने का हक़ है। शादी करना या न करना, कब और किससे करना—ये व्यक्तिगत निर्णय हैं। पंजीकरण का नियम निजता और स्वतंत्रता पर चोट करता है।

अविवाहित जोड़ों पर प्रभाव 

उत्तराखंड के नए कानून के अनुसार एक साथ रहने वाले अविवाहित जोड़ों को अपने रिश्ते के बारे में अधिकारियों को सूचित करना होगा। इसका मतलब है कि हर वह अविवाहित जोड़े जो एक साथ रहे हैं, सरकार की निगरानी में होंगे। इस विषय पर मनीषा, जो पिछले दो साल से दिल्ली में काम कर रही हैं, मानती हैं, “यूसीसी क्वीयर समुदाय के लिए बिल्कुल भी यूनिफॉर्म नहीं है। किसके साथ रहना है, ये मेरा व्यक्तिगत निर्णय है और निजता का अधिकार संविधान से मिलता है। सरकार का इस जानकारी की मांग करना इसका उल्लंघन है।” मनीषा ने सवाल उठाया कि जब अंतरधार्मिक और अंतरजातीय लव मैरिज को न सामाजिक मान्यता मिलती है, न सरकारी सुविधा, तो पंजीकरण की अनिवार्यता पहले नहीं होनी चाहिए।

आखिर लिव-इन रीलैशन टैबू क्यों है

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मनीषा कहती हैं, “यह लोकतांत्रिक नहीं है। हर व्यक्ति को अपनी मर्ज़ी से जीवन जीने का हक़ है। शादी करना या न करना, कब और किससे करना—ये व्यक्तिगत निर्णय हैं। पंजीकरण का नियम निजता और स्वतंत्रता पर चोट करता है। भले ही जोड़े पंजीकृत हों, क्या समाज उन्हें सहजता से स्वीकार करेगा? उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी कौन लेगा? राज्य का रिश्तों में बढ़ता दखल व्यक्ति की स्वतंत्रता और सरकारी नियंत्रण के बीच खाई बढ़ाता है।” मई 2018 में इनशॉर्ट्स के 140,000 लाख नेटिज़न्स जिनमें से 80 फीसद 18-35 आयु वर्ग का सर्वेक्षण किया गया। 80 फीसद से अधिक मिलेनियल्स ने देश में लिव-इन रिलेशनशिप को टैबू माना, जबकि 47 फीसद ने शादी और लिव-इन के बीच शादी को प्राथमिकता दी। वहीं, लायंसगेट प्ले के 1,000 भारतीयों के बीच किए गए 2023 के सर्वेक्षण के अनुसार, दो में से एक भारतीय को लगता है कि अपने साथी को बेहतर ढंग से समझने के लिए साथ रहना महत्वपूर्ण है।

मई 2018 में इनशॉर्ट्स के 140,000 लाख नेटिज़न्स जिनमें से 80 फीसद 18-35 आयु वर्ग का सर्वेक्षण किया गया। 80 फीसद से अधिक मिलेनियल्स ने देश में लिव-इन रिलेशनशिप को टैबू माना, जबकि 47 फीसद ने शादी और लिव-इन के बीच शादी को प्राथमिकता दी।


क्या यूसीसी हाशिये के समुदायों को दरकिनार करेगा

कई लोगों को डर है कि उत्तराखंड में यूसीसी के कारण एक साथ रहने वाले जोड़े दूर हो सकते हैं। उनके बारे में रिपोर्ट करने को बढ़ावा मिल सकता है और मकान मालिक अपंजीकृत जोड़ों को किराए पर देने में हिचकिचाहट महसूस कर सकते हैं। उत्तराखंड की वेदिका यूसीसी पर अपनी चिंताओं को साझा करते हुए कहती हैं, “यह कानून क्वीयर और अन्य जेंडर समूहों के लिए नई चुनौतियां खड़ी करेगा। समाज पहले से ही ऐसे रिश्तों को अस्वीकार करता है और ये जोड़े हिंसा झेलते हैं। जबरन साथ रहने की जानकारी साझा करने की अपेक्षा से, उनकी सुरक्षा और स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है, जिससे निजी जीवन पर निगरानी और रूढ़िवादी सोच को बढ़ावा मिलेगा।”

क्या शादी का फैसला निजी नहीं

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हालांकि 2010 में, सुप्रीम कोर्ट ने एक अभिनेत्री से जुड़े मामले में अविवाहित जोड़ों के साथ रहने के अधिकार का समर्थन किया, जिस पर सार्वजनिक शालीनता का उल्लंघन करने का आरोप था। वहीं, 2013 में, कोर्ट ने संसद से लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए कानून बनाने का आग्रह किया, और फैसला सुनाया था कि ऐसे रिश्ते ‘न तो अपराध हैं और न ही पाप’। लेकिन, देश में सामाजिक रूप से ये आज भी अस्वीकार्य नज़र आते हैं। उत्तराखंड के निवासी निरंजन मानते हैं, “कई राज्यों में प्रेमी जोड़ों को सामंती और धार्मिक कट्टरता से छिपकर रहना पड़ता है। सामाजिक हिंसा और जबरन विवाह जैसी घटनाएं आम हैं। यूसीसी की शर्तें इन जोड़ों की मुश्किलें बढ़ा सकती हैं, क्योंकि पंजीकरण न होने पर उन्हें अपराधी माना जा सकता है। यह न केवल सामाजिक बहिष्कार और भावनात्मक संकट को बढ़ाएगा बल्कि विवाह की औपचारिकता थोपने जैसा भी है। सवाल यह है कि पंजीकरण का असल लाभ क्या है।”

एक तरफ़ तमाम प्रोग्रेसिव देश जैसे स्वीडन, नीदरलैंड, ओस्ट्रेलिया जैसे देशों में लिव-इन रेलेशनशिप के राइट को मान्यता दिया गया है, उसे लीगल माना जाता है। वहीं दूसरी ओर भारत में उसके लिए क़ानून बनाया जा रहा है और युवाओं के लिए हालात मुश्किल बनाया जा रहा है। सवाल है कि एक प्रगतिशील देश को आगे बढ़ने के लिए सुरक्षा सुनिश्चित करने के बदले लोगों के जीवन पर निगरानी क्या रूढ़िवादी सोच को बढ़ावा देने जैसा नहीं?

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