जब कोई व्यक्ति अपने अनुभव, दर्द या किसी सामाजिक अन्याय के खिलाफ बोलता है, तो अक्सर उसके कहने के तरीके पर सवाल उठाए जाते हैं। पूछा जाता है—क्या ये बहुत गुस्से में हैं? क्या इनका लहजा ठीक है? क्या ये ज़रूरत से ज़्यादा भावुक हो रहे हैं? ऐसी प्रतिक्रियाएं दरअसल टोन पुलिसिंग का हिस्सा होती है। यह एक ऐसी प्रवृत्ति, जिसमें व्यक्ति की बातों की सच्चाई पर ध्यान देने के बजाय उसके बोलने के तरीके पर सवाल उठाए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, अगर कोई महिला अपने साथ हो रहे हिंसा के खिलाफ़ आवाज़ उठाती है, तो अक्सर उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है—“तमीज़ से बात करो।” या फिर, “क्या तुम्हें घर में कुछ नहीं सिखाया गया?” इस तरह से उसकी बात का असली मुद्दा दरकिनार कर दिया जाता है।
टोन पुलिसिंग का मतलब है, जब किसी व्यक्ति की बातें या उसके संदेश को उसकी आवाज़ या बोलने के तरीके से आंका जाता है। टोन पुलिसिंग घर, दफ्तर, स्कूल, सोशल मीडिया या किसी भी सार्वजनिक या निजी स्थान पर हो सकता है। यह तब होता है जब कोई व्यक्ति किसी अन्याय, भेदभाव या उत्पीड़न के खिलाफ़ कहने या सिर्फ अपनी बात रखने की कोशिश करता है और उसे यह कहकर रोका जाता है कि “इस तरह बात मत करो” या यह सही जगह और सही वक्त नहीं है।” नतीजतन, असली मुद्दा पीछे छूट जाता है और व्यक्ति की आवाज़ दबा दी जाती है। ये जरूरी है कि हम समझें कि कई बार जब कोई व्यक्ति अपने अनुभवों या समस्याओं के बारे में बोलता है, तो उसकी आवाज़, उसका गुस्सा, या उसकी भावनाएं उसकी बात की सच्चाई और प्रभावशीलता से ज्यादा मायने नहीं रखतीं। टोन पुलिसिंग इस बात को नज़रअंदाज करती है कि व्यक्ति का गुस्सा और आक्रोश उस उत्पीड़न का परिणाम है जिससे वह गुजर रहा है।
टोन पुलिसिंग का सबसे सामान्य उदाहरण तब देखने को मिलता है जब महिलाएं अपने अधिकारों या किसी मुद्दे के खिलाफ आवाज़ उठाती हैं। उदाहरण के तौर पर, अगर एक महिला अपने पति के घर में घरेलू हिंसा के खिलाफ़ बोलती है, तो उसे अक्सर यह कहकर चुप कर दिया जाता है, “क्या तुम्हें घर में अच्छे से बात करना नहीं सिखाया गया?”
टोन पुलिसिंग के उदाहरण
टोन पुलिसिंग का सबसे सामान्य उदाहरण तब देखने को मिलता है जब महिलाएं अपने अधिकारों या किसी मुद्दे के खिलाफ आवाज़ उठाती हैं। उदाहरण के तौर पर, अगर एक महिला अपने पति के घर में घरेलू हिंसा के खिलाफ़ बोलती है, तो उसे अक्सर यह कहकर चुप कर दिया जाता है, “क्या तुम्हें घर में अच्छे से बात करना नहीं सिखाया गया?” या “तमीज़ तो बिल्कुल नहीं है”। यह सवाल महिला के हिंसा के अनुभव, गुस्से और दर्द को नकारने की कोशिश करता है, जबकि असल में उसे इन मुद्दों पर खुलकर बात करने का पूरा अधिकार होना चाहिए। जहां महिलाओं के खिलाफ टोन पुलिसिंग की चर्चा अधिक होती है, वहीं पुरुषों को भी इस समस्या का सामना करना पड़ता है, हालांकि इसके रूप और कारण अलग हो सकते हैं। अक्सर यह देखा जाता है कि पुरुषों को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने पर यह कहकर रोका जाता है कि “तुम एक पुरुष हो, तुमको ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए।“

या “तुम बहुत भावुक हो रहे हो या क्या तुम कमजोर हो।” यह उनकी भावनाओं को नकारने और उनकी मनोवृत्तियों को लेकर एक खामियाजा पैदा करने का प्रयास होता है। इसी तरह, जेंडर बाइनरी से बाहर जब कोई भी अन्य व्यक्ति जातिवाद, लिंगभेद या धार्मिक इंटोलेरन्स के खिलाफ़ अपनी बात दर्ज करता है, तो उसे अक्सर यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि “तुम्हें ये चीज़ें इस समय या इस जगह पर नहीं बोलनी चाहिए” या वह सिचूऐशन को नहीं समझ रहे। इससे न सिर्फ उस व्यक्ति का विश्वास टूटता है, बल्कि असल मुद्दा भी दब जाता है।
जब महिलाएं अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती हैं या किसी अन्याय के खिलाफ बोलती हैं, तो अक्सर उनके बोलने के तरीके पर सवाल उठाए जाते हैं। उन्हें कहा जाता है कि “तुम इतनी ज़्यादा भावुक क्यों हो?” या “तुम्हें इतना गुस्सा क्यों या रहा है?”
पावर डायनामिक्स, सामाजिक अन्याय और टोन पुलिसिंग
पावर डायनामिक्स एक सामाजिक धारणा है जो यह समझने में मदद करती है कि किसी समुदाय, परिवार या समाज में लोग एक-दूसरे पर किस तरह सत्ता का प्रयोग करते हैं या किस तरह उसका असर होता है। भारतीय समाज में लगभग हर घर में महिलाओं को हमेशा संस्कारी बनने और घर के कामों से बंधे रहने के लिए प्रेरित किया जाता है। जब कोई लड़की या महिला धीरे-धीरे बात करती है और समाज के बनाए हुए सारे नियमों को मानती है, तब उसे अच्छी महिला, अच्छी माँ और अच्छी बेटी माना जाता है। वहीं दूसरी ओर, अगर कोई महिला समाज के बनाए हुए नियमों को न मानकर अलग रास्ता चुनती है, खुलकर अपनी बात सबके सामने रखती है, बाहर काम पर जाती है, तो समाज की नजरों में वह महिला अच्छी होने की श्रेणी से बाहर हो जाती है। यही वह बिंदु है जहां टोन पुलिसिंग की समस्या सामने आती है।

जब महिलाएं अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती हैं या किसी अन्याय के खिलाफ बोलती हैं, तो अक्सर उनके बोलने के तरीके पर सवाल उठाए जाते हैं। उन्हें कहा जाता है कि “तुम इतनी ज़्यादा भावुक क्यों हो?” या “तुम्हें इतना गुस्सा क्यों या रहा है?” हालांकि टोन पुलिसिंग केवल महिलाओं तक सीमित नहीं है। इसका असर उन व्यक्तियों पर भी पड़ता है, जो जेंडर बाइनरी से बाहर हैं। जब कोई लड़का नर्म आवाज में बात करता है और भावुक हो जाता है, तब हमारा समाज और परिवार कहता है कि “तुम लड़कियों की तरह क्यों बात कर रहे हो? मर्द बनो!” यहां टोन पुलिसिंग को सशक्त रूप से देखा जा सकता है, क्योंकि इसमें न केवल व्यक्ति की आवाज़ की आलोचना की जाती है, बल्कि उसकी भावनाओं और उनके व्यक्त करने के तरीके को भी नियंत्रित करने की कोशिश की जाती है।
टोन पुलिसिंग सेंसरशिप को बढ़ावा देती है। यह सीधे तौर पर विरोध को नहीं रोकती, बल्कि यह कहकर रोका जाता है कि “इस तरह मत कहो।” सेंसरशिप का यह रूप उस व्यक्ति की आवाज़ को दबा देती है, जो समाज में किसी अन्याय या असमानता के खिलाफ खड़ा होता है।
विरोध की भाषा पर सेंसरशिप और भावनाओं पर राजनीति
टोन पुलिसिंग सेंसरशिप को बढ़ावा देती है। यह सीधे तौर पर विरोध को नहीं रोकती, बल्कि यह कहकर रोका जाता है कि “इस तरह मत कहो।” सेंसरशिप का यह रूप उस व्यक्ति की आवाज़ को दबा देती है, जो समाज में किसी अन्याय या असमानता के खिलाफ खड़ा होता है। पुरुषप्रधान समाज में जिन लोगों के पास विशेषाधिकार नहीं होते, उन्हें अक्सर शोषण का सामना करना पड़ता है। अक्सर बात करने के तरीके पर व्यक्ति की जाति, धर्म, वर्ग और यौनिकता का अंदाजा लगाया जाता है या तय किया जाता है। लेकिन, असल में भावनाएं गलत नहीं होती।
खासकर तब जब ये किसी विशेष अनुभव से जुड़ी हों और गुस्से या झुंझलाहट के पीछे कोई कारण हो। हाशिये पर रह रहे व्यक्ति के लिए जरूरी नहीं है कि वह जीवन में लगातार संघर्ष के बावजूद नर्म मिजाज रहे। अक्सर हम सभी यह अपेक्षा करते हैं कि सामने वाला व्यक्ति अपनी बात को प्यार और शांति से सबके सामने रखे। लेकिन, ये दूसरे व्यक्ति को हमारा न समझ पाना भी कारण है कि हम लोगों से सिर्फ एक जैसी बात उम्मीद हैं। जब कोई व्यक्ति बहुत तकलीफ के साथ हिम्मत जुटाकर अपनी बात साझा करता है, तब हो सकता है कि उस व्यक्ति का ऊंची आवाज़ में बोलना और भावुक होना कोई गलत न हो।
हाशिये पर रह रहे समुदायों के लोग अक्सर मुख्यधारा में अपनी बात रखने से पहले कई बार सोचते हैं। आमतौर पर वे अपनी बातों को आसानी से नहीं बता पाते। उन्हें हमेशा यह डर लगा रहता है कि सामने वाला व्यक्ति उनकी बात को समझेगा भी या नहीं, और उनकी बात पर भरोसा भी करेगा या नहीं।
टोन पुलिसिंग क्यों हानिकारक है?

हाशिये पर रह रहे समुदायों के लोग अक्सर मुख्यधारा में अपनी बात रखने से पहले कई बार सोचते हैं। आमतौर पर वे अपनी बातों को आसानी से नहीं बता पाते। उन्हें हमेशा यह डर लगा रहता है कि सामने वाला व्यक्ति उनकी बात को समझेगा भी या नहीं, और उनकी बात पर भरोसा भी करेगा या नहीं। टोन पुलिसिंग के मनोवैज्ञानिक परिणाम बहुत गंभीर हो सकते हैं। इस वजह से बहुत से व्यक्ति अकेला रहना शुरू कर देते हैं और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करते हैं। टोन पुलिसिंग न केवल उनके आत्मविश्वास को कम करती है, बल्कि उन्हें अपनी पहचान और भावनाओं को दबाने पर मजबूर कर देती है। यह समाज में असमानता और भेदभाव को बढ़ावा भी दे सकती है।
टोन पुलिसिंग को कैसे रोका जा सकता है?
अगर कोई व्यक्ति तेज़ आवाज़ में बात कर रहा है, तो हमें पहले उसकी भावना और अनुभव को समझने की कोशिश करनी चाहिए। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि किसी व्यक्ति के दर्द और संघर्ष के पीछे क्या कारण हो सकते हैं। केवल उनकी आवाज़ के लहजे को जज करना हमेशा सही नहीं है। टोन पुलिसिंग को पहचानना और सवाल करना बहुत जरूरी है। जब हम किसी बातचीत में शामिल होते हैं और यह महसूस करते हैं कि कोई टोन पुलिसिंग कर रहा है, तो हमें उसे शांति से बताना चाहिए कि आपको उस व्यक्ति के बात करने का लहजा अच्छा नहीं लगा है। लेकिन, आप उनको अहमियत देते हुए उन्हें सुन रहे हैं। दूसरे व्यक्ति को भी यह समझने की जरूरत है कि महज भावनाओं में बह जाना कई बात सही नहीं। ग्रुप डिस्कशन (बातचीत), ट्रेनिंग, गांवों और कार्यस्थलों में टोन पुलिसिंग पर बात करना बहुत ज़रूरी है। लोगों को उदाहरणों के ज़रिए समझाया जाना चाहिए ताकि समाज में जागरूकता बढ़ सके। जागरूकता और संवेदनशीलता से ही इस व्यवहार को चुनौती दी जा सकती है, तभी हम समावेशी समाज की ओर कदम बढ़ा सकते हैं।