जब भी हम युद्ध की बात करते हैं, तो ज़हन में सबसे पहले फौजियों की तस्वीर उभरती है — और ऐसा होना स्वाभाविक भी है। वे देश की सीमाओं की रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डालते हैं। लेकिन इस चर्चा में हम अक्सर महिलाओं को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। महिलाओं को हमने ज़्यादातर घर संभालने, बच्चों की देखभाल करने और ‘संस्कारी’ बहू-बेटी जैसी पारंपरिक भूमिकाओं में देखा है। उनकी दुनिया को अक्सर सिर्फ़ घर की चारदीवारी तक ही सीमित मान लिया जाता है।
लेकिन सच यह है कि देश के लिए लड़ाई सिर्फ़ सरहदों पर ही नहीं लड़ी जाती। कभी-कभी गांव की साधारण महिलाएं भी ऐसा काम कर जाती हैं, जिसे कई लोग मिलकर भी नहीं कर पाते। ऐसा ही एक प्रेरणादायक और सच्चा किस्सा है 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध का। उस समय पाकिस्तान ने गुजरात के भुज में स्थित भारतीय वायुसेना के एयरबेस पर बमबारी की थी, जिससे एयरबेस का रनवे पूरी तरह नष्ट हो गया। इससे भारतीय वायुसेना के लिए कोई भी लड़ाकू विमान उड़ाना असंभव हो गया — और यह भारत की सुरक्षा के लिए एक बड़ा संकट बन गया।
उन्होंने बिना किसी सैन्य प्रशिक्षण के, जान जोखिम में डालते हुए, रनवे को दोबारा बनाने का बीड़ा उठाया। इन महिलाओं ने लगातार 72 घंटे — यानी तीन दिन और तीन रात — बिना थके, बिना डरे मेहनत की और रनवे को फिर से तैयार कर दिया।
बिना सैन्य प्रशिक्षण के 300 महिलाओं ने बनाया रनवे
ऐसे कठिन समय में माधापुर गांव की करीब 300 आम ग्रामीण महिलाएं आगे आईं। उन्होंने बिना किसी सैन्य प्रशिक्षण के, जान जोखिम में डालते हुए, रनवे को दोबारा बनाने का बीड़ा उठाया। इन महिलाओं ने लगातार 72 घंटे — यानी तीन दिन और तीन रात — बिना थके, बिना डरे मेहनत की और रनवे को फिर से तैयार कर दिया। इन साधारण लेकिन साहसी महिलाओं के इस असाधारण काम ने भारतीय वायुसेना को दोबारा ताकतवर बनने का मौका दिया और भारत को युद्ध में जीत की ओर आगे बढ़ाया। यह कहानी इस बात का प्रमाण है कि देशभक्ति सिर्फ़ बंदूकें उठाने में नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी उठाने और मिलकर आगे बढ़ने में भी होती है — और इसमें महिलाएं भी बराबरी की भागीदार हैं।
1971 का युद्ध और भुज एयरबेस की भूमिका
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान पाकिस्तान ने भारत के कई इलाकों पर हवाई हमले किए। गुजरात राज्य के भुज में स्थित एयरबेस भी उन्हीं अहम ठिकानों में से एक था, जिसकी युद्ध में रणनीतिक भूमिका थी। 8 दिसंबर 1971 को, पाकिस्तान की वायुसेना ने भुज एयरबेस पर एक के बाद एक 14 नेपाम बम गिराए, जिससे पूरा एयरबेस बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। इस हमले के बाद भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमानों की उड़ानें बंद हो गईं, क्योंकि रनवे पूरी तरह नष्ट हो चुका था। एयरबेस की अनुपस्थिति में विमान उड़ान नहीं भर सकते थे, जिससे भारत की वायु शक्ति का उपयोग असंभव हो गया था। इस समय पूरे क्षेत्र में तनाव और अनिश्चितता का माहौल बन गया। युद्ध जारी था, लेकिन भारत अपनी सबसे बड़ी ताकत — वायुसेना का प्रयोग नहीं कर पा रहा था। केवल दो सप्ताह के भीतर पाकिस्तान ने 35 बार हमले किए। दुश्मन नजदीक आ रहे थे, और भारत की वायु शक्ति धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही थी। उस समय भारतीय सेना की संख्या भी सीमित थी।
माधापुर गांव की करीब 300 ग्रामीण महिलाएं बिना किसी झिझक इस काम में जुट गईं। ये महिलाएं खेतों में काम करने वाली, घर संभालने वाली और बच्चों की देखभाल करने वाली आम महिलाएं थीं। उनके पास न युद्ध का कोई अनुभव था, न तकनीकी प्रशिक्षण और न ही कोई सुरक्षा उपकरण, लेकिन उनके पास था अटूट साहस, आत्मबल और देशभक्ति की भावना।
भुज एयरबेस का रनवे क्षतिग्रस्त होने के कारण उसकी उपयोगिता लगभग समाप्त हो गई थी। यदि रनवे की मरम्मत समय रहते नहीं होती, तो पाकिस्तान को रणनीतिक बढ़त मिल सकती थी और भारत की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती थी। इस संकट की घड़ी में, एयरबेस के प्रभारी स्क्वाड्रन लीडर विजय कार्णिक ने एक महत्वपूर्ण और साहसिक निर्णय लिया। उन्होंने महसूस किया कि यदि रनवे को तुरंत ठीक नहीं किया गया, तो भारत के हवाई हमले की क्षमता प्रभावित होगी और राष्ट्रीय सुरक्षा पर गंभीर खतरा मंडरा सकता है।

भुज एयरबेस की मरम्मत 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान एक बेहद ज़रूरी लेकिन चुनौतीपूर्ण कार्य था। स्क्वाड्रन लीडर विजय कर्णिक ने जब एयरबेस को फिर से चालू करने की जिम्मेदारी उठाई, तो सबसे बड़ी समस्या थी – इसे तेजी से और सुरक्षित रूप से कैसे मरम्मत किया जाए। ऐसे हालात में उन्होंने स्थानीय समुदाय की मदद लेने का निर्णय लिया। यह निर्णय उस वक्त और भी खास बन गया जब माधापुर गांव की करीब 300 ग्रामीण महिलाएं बिना किसी झिझक इस काम में जुट गईं। ये महिलाएं खेतों में काम करने वाली, घर संभालने वाली और बच्चों की देखभाल करने वाली आम महिलाएं थीं। उनके पास न युद्ध का कोई अनुभव था, न तकनीकी प्रशिक्षण और न ही कोई सुरक्षा उपकरण, लेकिन उनके पास था अटूट साहस, आत्मबल और देशभक्ति की भावना।
हमले के दौरान महिलाएं बंकरों या खेतों में छिप जाती थीं। यह काम बेहद जोखिम भरा था, लेकिन इन महिलाओं का मकसद स्पष्ट था। कनाबाई आगे बताती हैं कि हम सब हरे रंग की साड़ी या कपड़ा पहनती थीं ताकि खेतों में छिपने पर दुश्मन न देख सके।
300 महिलाओं का साहस और देश प्रेम
कर्णिक और जिला कलेक्टर की प्रेरणा से ये महिलाएं बिना किसी शर्त, दिन-रात मेहनत करने लगीं। उन्होंने मलबा हटाने, पत्थर उठाने और गारा मिलाने जैसे कठिन कार्य अपने हाथों से किए। युद्ध के दौरान भुज एयरबेस पर पाकिस्तानी वायुसेना द्वारा लगातार बमबारी होती रही, फिर भी इन महिलाओं ने न तो डर दिखाया और न ही हिम्मत हारी। उन्होंने वही लगन और मेहनत दिखाई, जैसी वे अपने घरों में करती थीं। यह सिर्फ एक मरम्मत काम नहीं था, बल्कि साहस, समर्पण और देशभक्ति की मिसाल थी। इन महिलाओं ने साबित कर दिया कि युद्ध केवल मोर्चे पर ही नहीं, बल्कि देश के हर कोने में लड़ा जाता है। उनका यह योगदान भारतीय इतिहास के पन्नों में आज भी गर्व के साथ दर्ज है।
भेष बदलने के लिए हरे रंग की साड़ी का सहारा लिया
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान हालात बेहद गंभीर हो चुके थे। पाकिस्तान लगातार हवाई हमले कर रहा था। ऐसे में भुज एयरबेस की मरम्मत में जुटी महिलाएं अपनी सुरक्षा के लिए हरे रंग की साड़ियां पहनती थीं। यह रंग उन्हें खेतों और झाड़ियों में छिपने में मदद करता था ताकि वे दुश्मन की नजरों से बच सकें। रनवे की मरम्मत में मदद करने वाली महिलाओं में से एक, कनाबाई शिवजी हिरानी ने एक साक्षात्कार में बताया, “उस समय मैं 24 साल की थी। हमारे लीडर ने हमसे कहा कि भारत खतरे में है और हमें यह काम करना है। हमने तुरंत हामी भर दी और कहा कि अगर भारत को बचाना है, तो हम जरूर साथ चलेंगे।”

कनाबाई बताती हैं कि इस काम में 300 से भी ज्यादा महिलाओं ने भाग लिया। “पहले दिन हमें पीने का पानी तक नहीं मिला। खाना भी बहुत मुश्किल से मिलता था। हम सुबह 7 बजे घर से निकलते और शाम 7 बजे तक काम करते। वह कहती हैं कि कर्णिक साहब ने हमें पहले से समझा दिया था कि जब सायरन पहली बार बजे तो तुरंत छिप जाना है, और जब दूसरी बार बजे तो फिर से बाहर आकर काम शुरू करना है। हमले के दौरान महिलाएं बंकरों या खेतों में छिप जाती थीं। यह काम बेहद जोखिम भरा था, लेकिन इन महिलाओं का मकसद स्पष्ट था। कनाबाई आगे बताती हैं कि हम सब हरे रंग की साड़ी या कपड़ा पहनती थीं ताकि खेतों में छिपने पर दुश्मन न देख सके। वह कहती हैं कि उनके पास 5 रुपये तक नहीं थे, इसलिए उन्होंने इधर-उधर से एक-एक रुपये जोड़कर हरा कपड़ा खरीदा। इन महिलाओं की मेहनत रंग लाई। उन्होंने मात्र 72 घंटों में हवाई पट्टी की मरम्मत पूरी कर दी, जिसके बाद विमान फिर से उड़ान भरने लगे। भारत ने साहस के साथ पाकिस्तान का सामना किया और आखिरकार, 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने भारत के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और युद्ध समाप्त हो गया।
कनाबाई बताती हैं कि इस काम में 300 से भी ज्यादा महिलाओं ने भाग लिया। पहले दिन हमें पीने का पानी तक नहीं मिला। खाना भी बहुत मुश्किल से मिलता था। हम सुबह 7 बजे घर से निकलते और शाम 7 बजे तक काम करते।
गुमनाम वीरांगनाओं की मिसाल
भुज एयरबेस की मरम्मत में मदद करने वाली इन महिलाओं का योगदान आज भी समाज में बहुत कम पहचाना गया है। देश में शांति और सुरक्षा बनाए रखने में इनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इन वीरांगनाओं की सराहना की और खुद माधापुर गांव जाकर उन्हें तोहफे देकर सम्मानित किया। वर्ष 2018 में मोदी सरकार ने इन महिलाओं की स्मृति में वीरांगना स्मारक बनवाया। इसके बाद 2021 में आई बॉलीवुड फिल्म ‘भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया’ ने इनके अद्भुत कार्य को व्यापक पहचान दिलाई। अजय देवगन ने इस फिल्म में विजय कार्णिक की भूमिका निभाई, जिन्होंने इन महिलाओं के साथ मिलकर हवाई पट्टी की मरम्मत करवाई थी।
इस फिल्म ने उन गुमनाम नायिकाओं की वीरता और समर्पण को पूरे देश तक पहुंचाया। इन महिलाओं ने अपने व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठकर देश की रक्षा के लिए योगदान दिया। इनका बलिदान सिर्फ एक युद्ध की कहानी नहीं, बल्कि महिला सशक्तिकरण का प्रतीक भी है। इन्होंने यह सिद्ध किया कि महिलाएं किसी भी चुनौती का सामना करने में सक्षम हैं। भुज की महिलाओं ने सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ा और यह दिखाया कि महिलाएं सिर्फ घर तक सीमित नहीं हैं। उनका साहस और समर्पण आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है। इनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि जब देश संकट में हो, तो हर नागरिक—चाहे महिला हो या पुरुष—अपना योगदान दे सकता है। यह इतिहास की वह मिसाल है जो हर पीढ़ी को साहस, एकता और देशभक्ति की राह पर चलने के लिए प्रेरित करती रहेगी।