इतिहास आईए जानें सशस्त्र बलों में भारतीय महिलाओं का इतिहास

आईए जानें सशस्त्र बलों में भारतीय महिलाओं का इतिहास

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अब महिलाओं को भारतीय सशस्त्र बलों में स्थायी कमीशन अधिकारी के रूप में सेवा करने की अनुमति मिल गई है, जिससे महिलाओं के लिए सेना की चुनिंदा शाखाओं में सेवा करने का रास्ता साफ हो गया है।

हाल ही में भारत ने पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में मौजूद आतंकवादी ढांचे पर एक बड़ा हमला किया। सरकार ने इस अभियान का नाम ‘ऑपरेशन सिंदूर’ दिया। यह कार्रवाई जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के बाद की गई, जिसमें 26 लोगों की जान चली गई थी। पीआईबी के अनुसार भारतीय सशस्त्र बलों ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत पाकिस्तान और पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी बुनियादी ढांचे को निशाना बनाया गया, जहां से भारत के खिलाफ आतंकवादी हमलों की योजना बनाई गई और निर्देशित किया गया। इस ऑपरेशन के बाद, भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री के साथ दो महिला सैन्य अधिकारियों ने पूरी दुनिया को इसकी जानकारी दी। ये दो अधिकारियां भारतीय थीं सेना की कर्नल सोफिया कुरैशी और भारतीय वायु सेना की विंग कमांडर व्योमिका सिंह। इन दोनों महिलाओं ने न सिर्फ ऑपरेशन की जानकारी दी, बल्कि यह भी दिखाया कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नेतृत्व में महिलाएं भी अब अहम जिम्मेदारियां निभा रही हैं।

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कर्नल सोफिया कुरैशी को सैन्य संचार और सूचना प्रणाली के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए जाना जाता है। 35 वर्षीय कर्नल कुरैशी पहले भी कई मिसालें कायम कर चुकी हैं। वह एक्सरसाइज फोर्स 18 नामक एक बहुराष्ट्रीय सैन्य अभ्यास में भारतीय सैन्य टुकड़ी की कमान संभालने वाली पहली महिला अधिकारी बनी थीं। इस अभ्यास में 18 देशों ने हिस्सा लिया था और उन्होंने 40 सदस्यीय भारतीय दल का नेतृत्व किया था। वहीं विंग कमांडर व्योमिका सिंह की कर्नल कुरैशी के साथ संयुक्त भूमिका, भारतीय सेना की संचार रणनीति में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को दिखाती है। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान महिलाओं की यह प्रमुख भूमिका यह भी बताती है कि भारत की सैन्य शक्ति अब केवल युद्ध कौशल तक सीमित नहीं है, बल्कि वह रणनीति, संचार और वैश्विक स्तर पर प्रभाव बनाने में भी महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा दे रही है।

साल 1943 में बनी रानी झांसी रेजिमेंट, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आज़ाद हिंद फौज का हिस्सा थी और यह पहली बार था जब महिलाएं युद्ध के मोर्चे पर सक्रिय रूप से दिखाई दीं। आज़ादी के बाद भी सशस्त्र बलों में महिलाओं को लंबे समय तक सहायक भूमिकाओं तक ही सीमित रखा गया।

सशस्त्र बलों में भारतीय महिलाओं का इतिहास

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भारतीय सशस्त्र बलों में महिलाओं की भागीदारी का इतिहास लंबे संघर्ष और बदलावों से भरा रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही महिलाएं भारत की सुरक्षा और सेवा में अप्रत्यक्ष रूप से योगदान देती रही हैं। लेकिन सेना में औपचारिक तौर पर उनकी नियुक्ति का रास्ता बहुत बाद में खुला। साल 1943 में बनी रानी झांसी रेजिमेंट, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आज़ाद हिंद फौज का हिस्सा थी और यह पहली बार था जब महिलाएं युद्ध के मोर्चे पर सक्रिय रूप से दिखाई दीं। आज़ादी के बाद भी सशस्त्र बलों में महिलाओं को लंबे समय तक सहायक भूमिकाओं तक ही सीमित रखा गया। इससे पहले भारतीय सशस्त्र बलों में महिलाओं की भागीदारी का पता साल 1888 में ‘भारतीय सैन्य नर्सिंग सेवा’ की स्थापना से लगाया जा सकता है।

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इस इकाई की महिलाओं ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान विशिष्टता के साथ सेना में सेवा की। साल 1942 में ‘महिला सहायक कोर’ के निर्माण ने सेना में महिलाओं की भागीदारी के दायरे को और बढ़ा दिया, जिससे उन्हें संचार, लेखा, प्रशासन और अन्य जैसी गैर-लड़ाकू भूमिकाओं में सेवा करने की अनुमति मिली। महिला सहायक कोर (WAC) के निर्माण की घोषणा 9 अप्रैल 1942 को भारत के राजपत्र में प्रकाशित की गई थी। यह पहली बार था जब महिलाओं को युद्ध के प्रयास में योगदान देने के लिए कहा गया था और साल 1992 में एक बड़ा बदलाव आया जब महिलाओं को शॉर्ट सर्विस कमीशन (SSC) के तहत गैर-चिकित्सा शाखाओं में शामिल होने की अनुमति दी गई। इसके बाद वायुसेना, नौसेना और थलसेना में महिलाओं की भर्ती धीरे-धीरे बढ़ने लगी।

शुरुआती दौर में इसके बनाने के पीछे विचार पुरुषों को ‘डेस्क ड्यूटी’ से मुक्त करना था, ताकि वे युद्ध के दौरान ‘सक्रिय सेवा’ कर सकें। WAC में शामिल होने वाली महिलाओं को भारतीय सेना और वायु सेना दोनों के साथ काम करना था, जबकि ब्रिटिश समकक्ष के पास सेना के लिए सहायक प्रादेशिक सेवा और रॉयल एयर फोर्स के साथ सेवा के लिए महिला सहायक वायु सेना थी।

WAC की शुरुआत और कारण

शुरुआती दौर में इसके बनाने के पीछे विचार पुरुषों को ‘डेस्क ड्यूटी’ से मुक्त करना था, ताकि वे युद्ध के दौरान ‘सक्रिय सेवा’ कर सकें। WAC में शामिल होने वाली महिलाओं को भारतीय सेना और वायु सेना दोनों के साथ काम करना था, जबकि ब्रिटिश समकक्ष के पास सेना के लिए सहायक प्रादेशिक सेवा और रॉयल एयर फोर्स के साथ सेवा के लिए महिला सहायक वायु सेना थी। कोर की एक उल्लेखनीय सदस्य नूर इनायत खान ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक जासूस के रूप में काम किया, जिसने अपनी सेवा के लिए पौराणिक दर्जा प्राप्त किया। फरवरी 1944 में, एक नौसेना अनुभाग का गठन किया गया ताकि महिलाएं रॉयल इंडियन नेवी में सेवा कर सकें।

पहले चार महीनों के लिए कोर में भर्ती केवल ‘स्थानीय सेवा’ तक ही सीमित थी, जिसका मतलब था कि महिला सैनिक अपने निवास स्थान के आसपास काम कर सकती थीं। लेकिन, जैसे-जैसे युद्ध का दबाव बढ़ता गया, अन्य स्थानों पर विभिन्न पदों पर भर्ती के लिए महिला सैनिकों की मांग बढ़ती गई। इससे भर्ती प्रक्रिया में बदलाव आया और सितंबर 1942 तक भारत में महिलाओं को सामान्य सेवा के साथ-साथ स्थानीय सेवा के लिए भी भर्ती किया जाने लगा। कोर में शामिल होने के लिए महिलाओं की पात्रता मानदंड उनकी आयु और अंग्रेजी भाषा के ज्ञान पर केंद्रित थे। शुरू में निर्धारित आयु सीमा 18-50 वर्ष थी; बाद में इसे घटाकर 17 वर्ष कर दिया गया ताकि कई क्षेत्रों में भर्ती की कमी की भरपाई के लिए अधिक महिलाएं इसमें शामिल हो सकें।

1950 के सेना अधिनियम ने महिलाओं को केंद्र सरकार के निर्दिष्ट कुछ अपवादों के साथ नियमित कमीशन के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। महिलाओं को इस क्षेत्र में पहली सफलता 1 नवंबर, 1958 को मिली, जब सेना चिकित्सा कोर महिलाओं को नियमित कमीशन देने वाली पहली भारतीय सेना इकाई बन गई।

भारतीय सशस्त्र बलों में महिलाओं का वर्तमान परिदृश्य

1950 के सेना अधिनियम ने महिलाओं को केंद्र सरकार के निर्दिष्ट कुछ अपवादों के साथ नियमित कमीशन के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। महिलाओं को इस क्षेत्र में पहली सफलता 1 नवंबर, 1958 को मिली, जब सेना चिकित्सा कोर महिलाओं को नियमित कमीशन देने वाली पहली भारतीय सेना इकाई बन गई। इसके बाद, 80 और 90 के दशक में, महिलाएं भारतीय सेना में शॉर्ट सर्विस कमीशन के लिए पात्र हो गईं। उच्चतम न्यायालय ने महिलाओं की भर्ती और पदों को लेकर सरकार और रक्षा बलों को अपने फैसलों में आड़े हाथों लिया। 17 फरवरी 2020 को एक मामले में शॉर्ट सर्विस कमीशन (एसएससी) महिला अधिकारियों को उनके पुरुष सहकर्मियों की तरह ही स्थायी कमीशन (पीसी) प्रदान करने के अधिकार को बरकरार रखा। सुप्रीम कोर्ट ने साल 2020 के फैसले में सेना में महिला अधिकारियों के लिए स्थायी कमीशन (पीसी) का आदेश दिया था।

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भारतीय सशस्त्र बलों में एक शॉर्ट सर्विस कमीशन (एसएससी) अधिकारी का कार्यकाल आमतौर पर 14 साल तक सीमित होता है, जबकि एक स्थायी कमीशन अधिकारी (पीसीसी) सेवानिवृत्ति तक सेवा कर सकता है। 10 साल की सेवा के बाद, एक एसएससी अधिकारी के पास तीन विकल्प होते हैं:

  • स्थायी कमीशन का विकल्प चुनें
  • सेवा से इस्तीफा दें
  • अतिरिक्त चार साल के लिए सेवा बढ़ाएं

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अब महिलाओं को भारतीय सशस्त्र बलों में स्थायी कमीशन अधिकारी के रूप में सेवा करने की अनुमति मिल गई है, जिससे महिलाओं के लिए सेना की चुनिंदा शाखाओं में सेवा करने का रास्ता साफ हो गया है। हालांकि महिलाओं को अभी भी भारतीय सेना और पैराशूट और आर्टिलरी रेजिमेंट जैसे विशेषज्ञ ब्रिगेड में लड़ाकू भूमिकाओं में अनुमति नहीं है। हालांकि गैर-लड़ाकू भूमिकाएं उनके लिए खुली रहती हैं।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अब महिलाओं को भारतीय सशस्त्र बलों में स्थायी कमीशन अधिकारी के रूप में सेवा करने की अनुमति मिल गई है, जिससे महिलाओं के लिए सेना की चुनिंदा शाखाओं में सेवा करने का रास्ता साफ हो गया है। हालांकि महिलाओं को अभी भी भारतीय सेना और पैराशूट और आर्टिलरी रेजिमेंट जैसे विशेषज्ञ ब्रिगेड में लड़ाकू भूमिकाओं में अनुमति नहीं है।

वे सिग्नल कोर, इंजीनियर और अन्य जैसी कुछ गैर-लड़ाकू शाखाओं में शामिल हो सकती हैं। मार्च 2023 में, कैप्टन दीक्षा सी. मुदादेवन्नावर भारतीय सेना की पैराशूट रेजिमेंट के शीर्ष विशेष बल संगठन में तैनात होने वाली पहली महिला अधिकारी बन गई हैं। रिपब्लिक के साथ एक विशेष इंटरव्यू में, इस सवाल पर कि क्या भारतीय सेना में महिलायें पैराशूट रेजिमेंट में शामिल हो सकती हैं, तब उन्होंने कहा था कि भारत में, महिलाओं को अभी भी रेजिमेंट में शामिल होने की अनुमति नहीं है। लेकिन, सेना की कुछ शाखाओं में महिलाओं के लिए कई भूमिकाएं खुली हैं।

भारतीय रक्षा बलों में महिलाओं की भूमिकाएं

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महिलाएं सशस्त्र बलों की सभी शाखाओं में विभिन्न चुनौतीपूर्ण और आवश्यक भूमिकाओं में काम करती हैं। उनका योगदान युद्ध समर्थन, रसद और यहां तक कि उच्च-दांव वाले ऑपरेशनों में भी है। रक्षा बालों के तीनों क्षेत्रों में महिलाएं ये कुछ पदों पर काम कर सकती हैं। भारतीय सेना में वे इंजीनियर, सिग्नल और रसद संचालन ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं जहां उत्कृष्ट प्रदर्शन कर सकती हैं। महिला अधिकारी चुनौतीपूर्ण इलाकों में हेलीकॉप्टर चलाती हैं। 2020 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद महिलाएं अब कई शाखाओं में लंबे समय तक सेवा दे सकती हैं, जिससे पहले की बाधाएं खत्म हो गई हैं।

महिलाएं साल 2016 से लड़ाकू विमान उड़ा रही हैं, जो एक ऐतिहासिक बदलाव है। वे आपदा राहत और महत्वपूर्ण मिशनों में परिवहन और हेलीकॉप्टर पायलट के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं। फ़्लाइट लेफ्टिनेंट अवनी चतुर्वेदी और फ़्लाइट लेफ्टिनेंट शिवांगी सिंह जैसे अधिकारियों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

भारतीय वायु सेना और भारतीय नौसेना

महिलाएं साल 2016 से लड़ाकू विमान उड़ा रही हैं, जो एक ऐतिहासिक बदलाव है। वे आपदा राहत और महत्वपूर्ण मिशनों में परिवहन और हेलीकॉप्टर पायलट के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं। फ़्लाइट लेफ्टिनेंट अवनी चतुर्वेदी और फ़्लाइट लेफ्टिनेंट शिवांगी सिंह जैसे अधिकारियों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वे पायलट के तौर पर P-8I Poseidon जैसे उन्नत विमान उड़ाती हैं। महिलाएं अब पनडुब्बी चालक दल का हिस्सा हैं, जो एक हालिया और उल्लेखनीय विकास है। महिलाएं नौसेना मिशनों के लिए आवश्यक प्रमुख तकनीकी और रसद कामों को संभालती हैं।

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यह मान लेना कि केवल पुरुष ही देश की सुरक्षा और सीमाओं की रक्षा कर सकते हैं, एक पूर्वग्रहपूर्ण सोच है। महिलाओं को पारंपरिक रूप से रसोई और घर की देखभाल तक सीमित रखा गया। लंबे समय तक महिलाओं को सीधे युद्ध या रक्षा से जुड़े कामों में शामिल नहीं किया गया। जब महिलाएं सशस्त्र बलों में शामिल होती हैं, तो उन्हें ऐसे माहौल का सामना करना पड़ता है जो पुरुषों के और पुरुषों के लिए तैयार किया गया होता है। आज भी रक्षा क्षेत्र में महिलाएं बहुत कम संख्या में हैं और उन्हें कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। सेना को अब भी एक पुरुष-प्रधान पेशा माना जाता है। महिलाओं के लिए ऊंचे पदों तक पहुंचना कठिन होता है और करियर की राह में कई रुकावटें होती हैं। इसके अलावा, सैन्य ढांचे और नीति-निर्माण में महिलाओं की भागीदारी भी सीमित रहती है।

निर्णय लेने की भूमिका में उनकी अनुपस्थिति से उनके मुद्दों और ज़रूरतों की अनदेखी होती है। कई बार मातृत्व, परिवार की ज़िम्मेदारियों और लचीलापन न होने के कारण भी महिलाओं को सशस्त्र बलों से बाहर रखा जाता है। हालांकि हाल के वर्षों में कुछ सकारात्मक बदलाव आए हैं—महिलाओं को युद्ध भूमिकाओं में शामिल करने, स्थायी कमीशन देने और प्रशिक्षण में समानता की दिशा में कदम उठाए गए हैं। लेकिन अभी भी सामाजिक मानसिकता, संस्थागत ढांचे और पितृसत्तात्मक सोच में गहरा बदलाव लाना ज़रूरी है। सेना और अन्य सुरक्षा बलों को एक समावेशी, सुरक्षित और लिंग-संवेदनशील वातावरण बनाने की दिशा में काम करना होगा, ताकि महिलाएं बिना भेदभाव के पूरी तरह से अपनी भूमिका निभा सकें।

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