भारत एक ऐसा देश है जहां विचारों की भिन्नता है और सभी को अपने विचार खुलकर रखने की आज़ादी संविधान ने निश्चित की है। लेकिन हाल ही में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान जब युद्धविराम की अपील की गई, तो यह देखा गया कि ऐसे विचार व्यक्त करने वालों को ट्रोलिंग, धमकियों और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। इसका उदाहरण उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार विक्रम मिसरी हैं, जिन्हें केवल युद्ध रोकने की बात कहने भर के लिए जमकर ट्रोल किया गया। यहां तक कि सोशल मीडिया पर ट्रोलर्स ने उनकी बेटी और परिवार के बारे में भी अभद्र टिप्पणियां की। किसी भी युद्ध, अशांति या मतभेद के माहौल में महिलाओं को अमूमन यौन हिंसा की धमकी या इसका सामना करना पड़ता है। इसके अलावा उन्हें ट्रोलिंग और सार्वजनिक रूप से अपमानित भी किया जाता है। जब दो देशों के बीच सैन्य तनाव बढ़ता है, तो इसका असर सिर्फ सीमाओं तक नहीं होता है। यह तनाव समाज के हर हिस्से में फैल जाता है, खासकर डिजिटल दुनिया में। आज देश के मौजूदा माहौल में लोगों की भावनाएं जल्दी आहत हो रही हैं और लोग सोचने-समझने की अपनी क्षमता खो बैठते हैं।
ऐसी परिस्थिति में महिलाओं को अक्सर ‘सॉफ्ट टारगेट’ किया जाता है। हाल ही में भारत-पाकिस्तान संघर्ष के दौरान सोशल मीडिया पर नफरत और ट्रोलिंग की प्रवृत्ति खुलकर सामने आई है। जब महिलाएं अपनी बात खुलकर सबके सामने रखने की कोशिश करती हैं, तब उनका विरोध किया जाता है। चाहे फिर वो सोशल मीडिया हो या फिर अपना परिवार ही क्यों न हो। 22 अप्रैल को हुए पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गए लोगों में से, भारतीय नौसेना के लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी हिमांशी नरवाल ने जब सोशल मीडिया पर अपनी बात कही कि वे नहीं चाहती कि लोग कश्मीर में रहने वाले लोगों के खिलाफ जाएं। वह शांति चाहती हैं और केवल शांति। जो गलत करते हैं उन्हें सजा मिलनी चाहिए। इस बयान के बाद से सोशल मीडिया पर उन्हें लगातार ट्रोल किया गया और बहुत ज्यादा आपत्तिजनक बातें की गई।

यह घटना बताती है कि संवेदनशील हालात में जब कोई युद्ध नहीं, बल्कि शांति के लिए दलील या तर्क दे रहा हो तो उसका किस तरह विरोध किया जाता है। बहुत सी महिलाओं को सोशल मीडिया पर अक्सर इस्लामोफोबिक और आपत्तिजनक बातों का सामना करना पड़ता है। वहीं, हाल ही में भारतीय सेना अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी ने जब ऑपरेशन सिंदूर की ब्रीफिंग दी, तो जहां एक ओर उनकी सराहना हुई, वहीं दूसरी ओर उन्हें तुरंत भारतीय जनता पार्टी के ही नेता के ट्रोलिंग का भी सामना करना पड़ा। युद्धविराम की घोषणा के तीन दिन बाद, बीजेपी के ही नेता विजय शाह ने उनके लिए इस्लामोफोबिक और आपत्तिजनक बातें कही। हैरानी की बात है कि केंद्र सरकार ने इस घटना पर कोई टिप्पणी नहीं की।
युद्धविराम की घोषणा के तीन दिन बाद, बीजेपी के ही नेता विजय शाह ने उनके लिए इस्लामोफोबिक और आपत्तिजनक बातें कही। हैरानी की बात है कि केंद्र सरकार ने इस घटना पर कोई टिप्पणी नहीं की।
महिलाओं की ट्रोलिंग क्यों हो गई है आम
युद्ध के समय या राजनीति में महिलाओं को टारगेट किया जाना, कोई नहीं बात नहीं है। अमूमन उन्हें राजनीतिक टूल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। राजनीति में महिला नेताओं या नेतृत्व वाले पदों पर महिलाओं के लिए आपत्तिजनक टिप्पणियां, ट्रोलिंग आज आम बात है। आम तौर पर जब भी महिलाएं नेतृत्व के पद पर होती हैं, तब उनके लिए कामकाजी वातावरण और ज्यादा मुश्किल हो जाता है। हमारा समाज पुरुषवादी विचारधारा से जुड़ा है जहां हर क्षेत्र में चाहे राजनीति, शिक्षा, या फिर कोई दूसरा क्षेत्र, हर जगह पुरुषों का वर्चस्व है। इसलिए, एक महिला को खुद को साबित करना या यहां तक कि अपनी बात रखना भी ज्यादा मुश्किल होता है।
देश में आज जिस तरह की धार्मिक और राजनीतिक स्थिति है, महिलाओं को आसानी से ट्रोल किया जाता है या उनके ट्रोलिंग के सहारे किसी राजनीतिक मुद्दे की भरपाई की जाती है। इसी तरह यह चिंता तब स्पष्ट हुई जब भारत के वरिष्ठ सरकारी अधिकारी विक्रम मिसरी को युद्धविराम पर बयान देने के लिए उन्हें ट्रोल किया गया और राष्ट्रविरोधी कहा गया। यहीं नहीं दक्षिणपंथी विचारधारा रखने वाले लोगों ने उनकी बेटी को टारगेट बनाया और सोशल मीडिया पर उनकी निजी तस्वीरें साझा की और आपत्तिजनक टिप्पणी की। घटना के बाद मिसरी को अपना सोशल मीडिया अकाउंट प्रोटेक्ट मोड में रखना पड़ा।
युद्ध के समय या राजनीति में महिलाओं को टारगेट किया जाना, कोई नहीं बात नहीं है। अमूमन उन्हें राजनीतिक टूल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। राजनीति में महिला नेताओं या नेतृत्व वाले पदों पर महिलाओं के लिए आपत्तिजनक टिप्पणियां, ट्रोलिंग आज आम बात है।
जिस तरीके से यह घटनाएं हुई और मिसरी को सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया, इससे यह साफ है कि अशांति के माहौल में, युद्ध चाहने वालों या ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो युद्ध चाहने को ही देशभक्ति समझते हैं। भारत में देशभक्ति का मतलब कुछ लोग अपनी सोच के हिसाब से तय कर रहे हैं, जो बहुत सीमित नजरिया है। अगर कोई सेना की कार्रवाई का समर्थन करता है, तो उसे देशभक्त कहा जाता है। लेकिन जो लोग शांति, बातचीत या आम लोगों की मदद की बात करते हैं, उन्हें देश के खिलाफ़ बताया जाता है। इस तरीके की सोच से मेनस्ट्रीम मीडिया, मनोरंजन की दुनिया से जुड़े लोग और सामाजिक कार्यकर्ता ही नहीं, बल्कि बड़े-बड़े पदों पर काम करने वालों में भी हमें ऐसी सोच देखने को मिलती है।
हाशिये पर मौजूद महिलाओं के प्रति बढ़ती ऑनलाइन हिंसा
यह घटना इस बात का प्रमाण है कि अब सत्ता से जुड़े व्यक्ति भी सुरक्षित नहीं हैं, नीति बनाने से लेकर लोगों की बात-चर्चा तक, हर जगह सबको एक जैसा सोचने और बोलने को कहा जा रहा है। असहमति के लिए अब कोई जगह नहीं बची है, चाहे वह कितनी ही जरूरी और संवैधानिक क्यों न हो। एक लोकतांत्रिक समाज में असहमति स्वाभाविक है, लेकिन जब वह व्यक्तिगत हमलों तक पहुंच जाए, तो यह न केवल अमानवीय होता है, बल्कि लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों के लिए भी एक गंभीर खतरा बन जाता है। भारत में महिलाओं के खिलाफ ऑनलाइन ट्रोलिंग की यह कोई नई घटना नहीं है। इससे पहले भी कई महिला पत्रकारों, शिक्षकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को यौन हिंसा की धमकियों और आपत्तिजनक टिप्पणियों का सामना करना पड़ा है।
जो महिलाएं भारत में राजनीतिक या सामाजिक मुद्दों पर अपनी राय रखती हैं, उन्हें सबसे ज्यादा ऑनलाइन परेशान किया जाता है। हिन्दुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय महिला राजनेताओं को यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका की महिला नेताओं की तुलना में कहीं अधिक ऑनलाइन धमकियां और ट्रोलिंग का सामना करना पड़ता है। एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने मार्च से मई 2019 के बीच 95 महिला राजनेताओं के बारे में लगभग 1,15,000 ट्वीट्स का अध्ययन किया। यह समय अप्रैल-मई में चुनाव का था। उन्होंने पाया कि इन ट्वीट्स में से लगभग 14 फीसदी ट्वीट्स अपमानजनक और परेशान करने वाले थे। रिपोर्ट में पाया गया कि जिन महिलाओं की पहचान समाज में ज्यादा कमजोर या हाशिये पर होती है, उन्हें ज्यादा अपमानजनक और परेशान करने वाले ट्वीट्स मिलते हैं। 95 महिला नेताओं में से 7 मुस्लिम महिलाओं को बाकी महिलाओं की तुलना में 55.5 फीसदी ज्यादा अपमानजनक और समस्याग्रस्त ट्वीट्स मिले, इसके अलावा, हाशिये पर रहने वाली 19 जातियों की महिलाओं को सामान्य जाति की महिलाओं की तुलना में 59 फीसदी ज्यादा जातिवादी बातें या अपशब्द कहे गए।
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने मार्च से मई 2019 के बीच 95 महिला राजनेताओं के बारे में लगभग 1,15,000 ट्वीट्स का अध्ययन किया। यह समय अप्रैल-मई में चुनाव का था। उन्होंने पाया कि इन ट्वीट्स में से लगभग 14 फीसदी ट्वीट्स अपमानजनक और परेशान करने वाले थे।
यह बताता है कि अब ऑनलाइन ट्रोलिंग सिर्फ राजनीतिक मतभेद का नतीजा नहीं है बल्कि महिला राजनेताओं के लिए एक यह एक सोची-समझी रणनीति है। जब कोई बड़ा अधिकारी भी अपनी राय कहने पर परेशान हो और सरकार उसे साफ-साफ समर्थन न दे, तो सवाल उठता है कि क्या सरकार इन ट्रोलिंग को मंजूरी दे रही है? इस माहौल में जो लोग राज्य की सेवा में हैं, वे भी नैतिक जिम्मेदारी निभाने या अपने विचार खुलकर रखने से डरने लगते हैं। इसका असर सिर्फ हमारे लोकतंत्र की स्वतंत्रता पर ही नहीं पड़ता, बल्कि सरकार के फैसलों में समझदारी और अलग-अलग राय रखने का मौका भी कम होता जा रहा है।
क्या शांति की अपील देशविरोध है
यह ट्रेंड सिर्फ सोशल मीडिया तक नहीं है। कई बार टीवी चैनलों पर भी जो लोग शांति, बातचीत या युद्ध के खिलाफ़ बोलते हैं, उन्हें देशविरोधी कहकर ट्रोल किया जाता है। इससे लोकतंत्र की उस बुनियादी सोच पर भी चोट पहुंचती है, जिसमें हर किसी की राय का सम्मान होना चाहिए। किसी भी लोकतंत्र में शांति की बात करना सबसे बड़ी ताक़त मानी जाती है। लेकिन, जब शांति की अपील करने वालों को डराया जाए और आपत्तिजनक बातें की जाए, तो यह हमारे समाज के सोचने और महसूस करने की सेहत पर गंभीर सवाल खड़ा करता है। आज के भारत में शांति की बात करना आसान नहीं रहा। एक तरफ़ युद्ध और राष्ट्रवाद की भावनाएं बहुत तेज़ हैं, और दूसरी तरफ जब एक ज़िम्मेदार सरकारी अफसर को अपनी राय रखने पर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाए, यहां तक कि उसके परिवार को भी निशाना बनाया जाए तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक संकेत है।
भारत के वरिष्ठ सरकारी अधिकारी विक्रम मिसरी को युद्धविराम पर बयान देने के लिए उन्हें ट्रोल किया गया और राष्ट्रविरोधी कहा गया। यहीं नहीं दक्षिणपंथी विचारधारा रखने वाले लोगों ने उनकी बेटी को टारगेट बनाया और सोशल मीडिया पर उनकी निजी तस्वीरें साझा की और आपत्तिजनक टिप्पणी की।
भारत के लोकतंत्र में, जहां संवाद, बहस और असहमति को सम्मान मिलना चाहिए, हमें समझना होगा कि शांति की अपील करना कोई कमजोरी नहीं है। जब महिलाएं ट्रोलिंग या हिंसा का सामना करें, तो उनके अनुभवों को दबाया नहीं जाना चाहिए। उन्हें सुनना और समर्थन देना ज़रूरी है ताकि वह अपनी बात को आसानी से सबके सामने रख पाएं। अगर हम सब मिलकर डर, नफरत और ट्रोलिंग के खिलाफ आवाज़ उठाएं, तो बदलाव मुमकिन है। लोकतंत्र तब ही ज़िंदा रहता है जब हर आवाज़ को सुना जाए। क्या शांति की अपील करना सच में ग़लत है?
क्या युद्ध ही देशभक्ति का असली चेहरा बन गया है? विक्रम मिसरी जैसे बड़े अधिकारी को केवल युद्धविराम की बात कहने पर ट्रोल करना और चुप कराने की कोशिश करना, किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए चिंता की बात है। एक सच्चे लोकतंत्र में हर किसी को अपने विचार रखने का हक़ होना चाहिए, चाहे वह युद्ध के पक्ष में हो या शांति के। अब समय आ गया है कि हम सोचें क्या हम एक ऐसा भारत चाहते हैं जहां शांति की बात करना जुर्म माना जाए? या एक ऐसा भारत, जहां असहमति को सुना और समझा जाए? शांति की बात करना कोई कमजोरी नहीं, बल्कि सच्ची ताक़त और असली देशभक्ति है।