भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जहां एक ओर पुरुषों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वहीं अनेक महिलाओं ने भी अपार साहस और दृढ़ता के साथ इस आंदोलन में भाग लिया। दुर्भाग्यवश, आज भी कई ऐसी महिला स्वतंत्रता सेनानियों के नाम इतिहास के पन्नों में छिपे रह गए हैं। ऐसी ही एक प्रेरणादायक नायिका थीं – अन्नपूर्णा महाराणा। उन्होंने न केवल भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष किया, बल्कि स्वतंत्रता के बाद भी अपना पूरा जीवन समाज सेवा, बच्चों और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा में समर्पित कर दिया। अन्नपूर्णा महाराणा एक साहसी स्वतंत्रता सेनानी और प्रतिबद्ध महिला अधिकार कार्यकर्ता थीं। वे महात्मा गांधी की करीबी सहयोगी मानी जाती थीं। उनका जन्म 3 नवंबर 1917 को ओडिशा में हुआ था।
वे एक राजनीतिक और सामाजिक रूप से सक्रिय परिवार से थीं। उनके पिता, गोपबन्धु चौधरी, और माता, रामादेवी चौधरी—दोनों ही स्वतंत्रता आंदोलन से गहराई से जुड़े थे। विशेष रूप से उनकी माता रामादेवी एक प्रसिद्ध समाजसेविका थीं, जिन्होंने महिलाओं को संगठित कर आज़ादी के संघर्ष में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। अन्नपूर्णा को बचपन से ही देशभक्ति, सेवा और सादगी जैसे मूल्य अपने माता-पिता से विरासत में मिले। यही संस्कार आगे चलकर उनके सामाजिक और राजनीतिक कामों की नींव बने।
अन्नपूर्णा महाराणा एक जानी-मानी स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिन्होंने बेहद कम उम्र में भारत की आज़ादी की लड़ाई में भाग लेना शुरू कर दिया था। वे ओडिशा की रहने वाली थीं और केवल 14 वर्ष की आयु में उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनकर ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दी।
आज़ादी की लड़ाई में भूमिका
अन्नपूर्णा महाराणा एक जानी-मानी स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिन्होंने बेहद कम उम्र में भारत की आज़ादी की लड़ाई में भाग लेना शुरू कर दिया था। वे ओडिशा की रहने वाली थीं और केवल 14 वर्ष की आयु में उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनकर ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दी। वे महात्मा गांधी की करीबी सहयोगी थीं और गांधीवादी विचारधारा को अपनाकर अनेक आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया। साल 1934 में उन्होंने पुरी से भद्रक तक निकाली गई हरिजन पथ यात्रा में भाग लिया, जिसका उद्देश्य समाज में व्याप्त छुआछूत और जातिगत भेदभाव को खत्म करना था। इस यात्रा में भाग लेने के कारण उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी भी हिम्मत नहीं हारी।

अन्नपूर्णा न केवल हरिजन यात्रा में, बल्कि सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे कई बड़े आंदोलनों में भी आगे रहीं। वे लगातार महिलाओं के अधिकारों और उनकी समान भागीदारी के लिए भी संघर्ष करती रहीं। उन्होंने महिलाओं को शिक्षा, आत्मनिर्भरता और सामाजिक बराबरी दिलाने के लिए हमेशा आवाज़ उठाई। स्वतंत्रता के बाद भी अन्नपूर्णा महाराणा ने समाज सेवा का रास्ता नहीं छोड़ा। उन्होंने गरीबों, महिलाओं और जरूरतमंदों की मदद करना जारी रखा। उनका जीवन सादगी, सेवा, साहस और नारी शक्ति का जीवंत उदाहरण रहा।
अन्नपूर्णा न केवल हरिजन यात्रा में, बल्कि सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे कई बड़े आंदोलनों में भी आगे रहीं। वे लगातार महिलाओं के अधिकारों और उनकी समान भागीदारी के लिए भी संघर्ष करती रहीं।
रूढ़िवादी सोच को चुनौती
अन्नपूर्णा उस दौर में स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनीं, जब भारतीय समाज में महिलाओं के लिए कठोर पाबंदियां थीं। उस समय लड़कियों को घर से बाहर जाने तक की इजाज़त नहीं होती थी। शिक्षा, नौकरी या सामाजिक काम में भाग लेना तो दूर की बात थी। ऐसे समय में जब किसी महिला ने राष्ट्रहित में आवाज़ उठाई या आंदोलन में भाग लिया, तो समाज के रूढ़िवादी लोग उसे नकारात्मक दृष्टि से देखते थे। लेकिन अन्नपूर्णा ने इन सामाजिक बंधनों को तोड़ा और साबित किया कि महिलाएं भी देश की आज़ादी और समाज की भलाई में अहम भूमिका निभा सकती हैं।
जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, तब समाज की यह आम सोच थी कि महिलाएं केवल घर की चारदीवारी तक सीमित रहें। माना जाता था कि अगर कोई महिला सड़कों पर उतरेगी, झंडा उठाएगी, नारे लगाएगी या पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलन में शामिल होगी, तो समाज उसे हेय दृष्टि से देखेगा। कई बार लोग ताने देते थे। आलोचनात्मक सवालों और सामाजिक दबावों के बीच भी अन्नपूर्णा ने हार नहीं मानी। उन्होंने तय कर लिया था कि वे देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करेंगी और समाज में बदलाव की राह चुनेंगी। उन्होंने यह साबित किया कि महिलाएं भी स्वतंत्रता संग्राम में पुरुषों के बराबर भूमिका निभा सकती हैं।
अन्नपूर्णा उस दौर में स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनीं, जब भारतीय समाज में महिलाओं के लिए कठोर पाबंदियां थीं। उस समय लड़कियों को घर से बाहर जाने तक की इजाज़त नहीं होती थी। शिक्षा, नौकरी या सामाजिक काम में भाग लेना तो दूर की बात थी।
स्वतंत्रता के बाद भी सेवा जारी रही
अन्नपूर्णा महाराणा सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी नहीं थीं, बल्कि एक संवेदनशील समाजसेविका और बच्चों को बहुत चाहती थी। आज़ादी के बाद भी उन्होंने सामाजिक काम को नहीं छोड़ा। उन्होंने महिलाओं और बच्चों के कल्याण के लिए कई पहलें शुरू कीं। रायगढ़ में उन्होंने बच्चों के लिए एक स्कूल की स्थापना की ताकि गरीब और वंचित बच्चों को शिक्षा मिले और अपने भविष्य को बेहतर बना सकें। अन्नपूर्णा विनोबा भावे के नेतृत्व में शुरू हुए भूदान आंदोलन से जुड़ीं। यह आंदोलन भूमिहीनों को ज़मीन दिलाने के लिए चलाया गया था। वे यह सुनिश्चित करना चाहती थीं कि कोई भी व्यक्ति, विशेष रूप से महिलाएं और बच्चे, समाज में पीछे न रह जाएं। उनका सामाजिक काम केवल ओडिशा तक सीमित नहीं रहा। वे देश के अन्य हिस्सों और यहां तक कि विदेशों में भी ज़रूरतमंदों की सहायता करने गईं। साल 1971 में जब बांग्लादेश (तत्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान) में मानवीय संकट उत्पन्न हुआ, तो अन्नपूर्णा ने वहां राहत सामग्री पहुंचाई। उसी तरह ओडिशा में आए भीषण तूफान के दौरान उन्होंने राहत कामों में भाग लिया और पीड़ितों की मदद की। वे सर्वोदय आंदोलन से भी गहराई से प्रभावित थीं और इस विचार को देश-विदेश में फैलाने का काम किया।
इतिहास से जुड़ने की कोशिश
अन्नपूर्णा मानती थीं कि आने वाली पीढ़ियों को अपने इतिहास से जुड़ाव होना चाहिए। इसी उद्देश्य से उन्होंने अपने आंदोलनों और अनुभवों को लिखना शुरू किया। उन्होंने महात्मा गांधी और विनोबा भावे की कई पुस्तकों का उड़िया भाषा में अनुवाद किया, ताकि ओडिशा के लोग भी इन महान विचारकों के संदेशों को समझ सकें। उन्होंने अपने जीवन की कुछ झलकियां पुस्तकों में दर्ज की हैं, जो आज भी हमें उनके विचारों, साहस और कामों से प्रेरित करती हैं। अन्नपूर्णा महाराणा का जीवन सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी का नहीं, बल्कि एक ऐसी महिला का उदाहरण है, जिसने समाज की रूढ़िवादी सोच को चुनौती दी और जीवनभर दूसरों की सेवा में लगी रहीं। उनका संघर्ष, संवेदना और दृष्टिकोण आज भी हमारे लिए प्रेरणास्रोत है। वे हमें यह सिखाती हैं कि बदलाव की शुरुआत साहस और प्रतिबद्धता से होती है, चाहे वह स्वतंत्रता संग्राम हो या समाज में समानता के लिए लड़ाई।