जब हम पर्यावरण की रक्षा, संसाधनों की बचत और स्थायित्व या सस्टेनेबिलिटी की बात करते हैं, तो अक्सर बड़ी-बड़ी तकनीकी पहलें ग्रीन एनर्जी, या वृक्षारोपण जैसे समाधान हमारे सामने आते हैं। लेकिन क्या कभी हमने यह सोचा है कि एक मां का अपने बच्चे को ब्रेस्टफीडिंग या स्तनपान कराना भी पर्यावरण की रक्षा में उतना ही महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है? ब्रेस्टफीडिंग केवल एक जैविक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह एक प्राकृतिक, स्थायी और संसाधन-संरक्षण करने वाली प्रक्रिया है, जो ना केवल शिशु और मां के स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है, बल्कि पर्यावरण पर पड़ने वाले बोझ को भी कम करता है।
आज, जब दुनिया जलवायु संकट, प्लास्टिक प्रदूषण और जल की कमी जैसी समस्याओं से जूझ रही है, ऐसे में ब्रेस्टफीडिंग एक ऐसा विकल्प बनकर उभरता है, जो सहज भी है और टिकाऊ भी। यह एक ऐसा साधन है जो बिना किसी अतिरिक्त संसाधन के, बिना कार्बन उत्सर्जन के और बिना किसी कचरे के पोषण, देखभाल और संरक्षण तीनों का संतुलन बनाए रखता है। पर्यावण में संतुलन बनाये रखने के लिए हमें केवल तकनीकी समाधानों की नहीं, बल्कि ऐसे स्थानीय, सुलभ और मानवीय विकल्पों की ज़रूरत है जो हर घर, हर गांव और हर समुदाय में अपनाए जा सकें। ब्रेस्टफीडिंग उसी परिवर्तन का हिस्सा है।
मुझे ब्रेस्टफीड कराना सबसे आसान लगता है क्योंकि इसमें मुझे कोई काम करने की ज़रूरत नहीं होती है। कुछ महीनों से मेरा दूध बच्चे के लिए कम पड़ रहा है तो मैं गाय का दूध इस्तेमाल कर रही हूं, लेकिन ये बहुत महंगा है।
ब्रेस्टफीडिंग एक प्राकृतिक और कम संसाधन आधारित प्रक्रिया है
ब्रेस्टफीडिंग एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। यह शिशु के विकास और पोषण संबंधी ज़रूरतों के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। इसके लिए किसी पैकेजिंग और फैक्ट्री की ज़रूरत नहीं होती, किसी मशीन का इस्तेमाल नहीं होता और ना ही किसी रासायनिक प्रक्रिया की ज़रूरत होती है। ये एक जीरो वेस्ट प्रणाली है जिसमें न तो पानी की बर्बादी होती है और न ही ऊर्जा की यानी, हर बार जब कोई मां ब्रेस्टफीड कराती है, तो वह पानी, गैस और बिजली जैसे संसाधनों की बचत में योगदान देती है। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा की रहने वाली माया देवी बताती हैं कि, “मुझे ब्रेस्टफीड कराना सबसे आसान लगता है क्योंकि इसमें मुझे कोई काम करने की ज़रूरत नहीं होती है। कुछ महीनों से मेरा दूध बच्चे के लिए कम पड़ रहा है तो मैं गाय का दूध इस्तेमाल कर रही हूं, लेकिन ये बहुत महंगा है। इसमें मेरी बहुत मेहनत लगती है, क्योंकि इसके लिए पहले दूध गर्म करो और बोतल को धोना भी जरूरी होता है। सारा दिन इसी में निकल जाता है और हर 2 महीने बाद एक नई बोतल खरीदनी पड़ती है।”

वह आगे बताती हैं, “मैं मॉरिसन की बोतल खरीदती हूं जो 283 रूपये की आती है।” इससे यह साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि ब्रेस्टफीडिंग सबसे सस्ता और फायदेमंद विकल्प है इंसान के लिए भी और पर्यावरण के लिए भी। ब्रेस्टफीडिंग सपोर्ट फॉर इंडियन मदर्स (बीएसआईएम) की संस्थापक और सीईओ आधुनिका प्रकाश बताती हैं, “ब्रेस्फीडिंग से ज़्यादा कुछ भी चीज़ इको फ्रेंडली नहीं है क्योंकि यह पूरी तरह से कार्बन मुक्त होता है। यह माँ और बच्चे दोनों के लिए बहुत लाभदायक तो होता ही है। साथ में पर्यावरण के लिए भी लाभदायक है क्योंकि माएँ ब्रेस्टफीड कराती हैं तो उन्हें न तो फॉर्मूला दूध खरीदने की ज़रूरत होती है और न ही कोई प्लास्टिक की बोतल का इस्तेमाल इसमें होता है।“ वह यह भी बताती हैं कि, “अगर माएं फॉर्मूला दूध का इस्तेमाल करती हैं तो इसमें उनकी कोई गलती नहीं है क्योंकि उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं होती है।” बायोमेड सेंट्रल के एक शोध अनुसार 1 किलोग्राम शिशु फार्मूला दूध के उत्पादन में लगभग 4 किलोग्राम कार्बन उत्सर्जन होता है।
यह माँ और बच्चे दोनों के लिए बहुत लाभदायक तो होता ही है। साथ में पर्यावरण के लिए भी लाभदायक है क्योंकि माएँ ब्रेस्टफीड कराती हैं तो उन्हें न तो फॉर्मूला दूध खरीदने की ज़रूरत होती है और न ही कोई प्लास्टिक की बोतल का इस्तेमाल इसमें होता है ।
ब्रेस्टफीडिंग से कचरा और प्रदूषण में कैसे आती है कमी

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) के अनुसार सभी शिशुओं को जन्म के 6 महीने तक केवल ब्रेस्टफीड कराया जाना चाहिए और इसके बाद 6 महीने के बाद धीरे-धीरे उपयुक्त आहार देना शुरू कर देना चाहिए और 2 साल या उससे अधिक समय तक ब्रेस्टफीडिंग जारी रखा जाना चाहिए क्योंकि यह शिशु के स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद होता है। आधुनिका बताती हैं, ”जब माँएँ ब्रेस्टफीड कराती हैं तब बच्चे कम बीमार पड़ते हैं और इससे डॉक्टर के पास कम जाना पड़ता है यानी दवाईयों और इंजेक्शन का कम इस्तेमाल होता है। इससे भी पर्यावरण प्रदूषण में कमी आती है।” इंजेक्शन और दवाइयों की बोतलों में भी प्लास्टिक इस्तेमाल होता है जिससे भी प्रदूषण फैलता है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, दुनिया भर में, हर साल लगभग 16 अरब इंजेक्शन लगाए जाते हैं।
सभी सुइयों और सिरिंजों का सुरक्षित निपटान नहीं किया जाता, जिससे चोट और संक्रमण का खतरा बना रहता है। ब्रेस्टफीडिंग से कचरा कम फैलता है जिससे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होता है। ब्रेस्टफीडिंग स्पोर्ट के अनुसार, फ़ॉर्मूला उद्योग लाखों डिस्पोजेबल फ़ॉर्मूला कैन, रेडी-टू-यूज़ फ़ॉर्मूला के लिए सिंगल-यूज़ प्लास्टिक कंटेनर, पेपर लेबल और प्रचार पत्र बनाता है और इसके लिए लाखों सिलिकॉन निप्पल और प्लास्टिक बेबी बोतलों की आवश्यकता होती है। कचरे के संदर्भ में, एक अध्ययन से यह भी पता चला है कि 550 मिलियन शिशु फार्मूला के डिब्बे, जिनमें 86,000 टन धातु और 364,000 टन कागज होता है, जो हर साल लैंडफिल में डाले जाते हैं। जिससे पर्यावरण में प्रदूषण तो फैलता ही है इससे स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है।
जब माँएँ ब्रेस्टफीड कराती हैं तब बच्चे कम बीमार पड़ते हैं और इससे डॉक्टर के पास कम जाना पड़ता है यानी दवाईयों और इंजेक्शन का कम इस्तेमाल होता है। इससे भी पर्यावरण प्रदूषण में कमी आती है।
जलवायु संकट के दौर में ब्रेस्टफीडिंग की भूमिका

जलवायु संकट के इस दौर में, जहां सूखा, बाढ़, और आपदाएं लगातार पर्यावरण और स्वास्थ्य प्रणालियों को प्रभावित कर रही हैं, ब्रेस्टफीडिंग एक सुरक्षित और टिकाऊ पोषण प्रणाली के रूप में उभरती है। जब बिजली, पीने का साफ पानी या परिवहन तक पहुंच बना पाना मुश्किल हो जाता है। तब यही एक विकल्प है जो हमेशा इस्तेमाल किया जाता है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, संघर्ष या जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापित परिवारों के लिए, यह शिशुओं के लिए सुरक्षित, पौष्टिक और सुविधाजनक भोजन स्रोत की गारंटी देता है। जब सड़कें टूट जाती हैं या ट्रांसपोर्ट रुक जाता है, तो फॉर्मूला दूध और सप्लीमेंट्स की आपूर्ति बाधित हो जाती है।
जब पीने का पानी दूषित या कम हो जाता है, तब शिशु को फार्मूला दूध देना स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक हो सकता है, क्योंकि उसके लिए साफ पानी की ज़रूरत होती है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में, जहां केवल लगभग 42 फीसदी शिशु जन्म के पहले घंटे में स्तनपान की शुरुआत करते हैं और 64 फीसद बच्चे पहले छह महीने के दौरान केवल माँ के दूध पर ही निर्भर रहते हैं। यह भारत के लिए एक बड़ी स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौती है। बाढ़, सूखा या आपदा के समय जब लोग राहत शिविरों में रहते हैं और अस्पतालों पर भी ज्यादा बोझ होता है, तब यह शिशु के लिए साफ, सुरक्षित और पौष्टिक दूध का भरोसेमंद जरिया या माध्यम बन जाता है। यह बच्चे को बीमारियों से लड़ने की ताकत देता है
मुझे घर में कई बार यह सुनने को मिलता है कि तुम्हारे दूध से बच्चे का पेट नहीं भरता या उसे भूख लगी रहती है। ऐसे ताने मुझे बहुत तकलीफ देते हैं, खासकर तब जब एक माँ अपने बच्चे के लिए दिन रात मेहनत कर रही हो।
ब्रेस्टफीडिंग को बढ़ावा देने में नीतियों की अहमियत
ब्रेस्टफीडिंग सिर्फ एक स्वास्थ्य का विषय नहीं, बल्कि इसे एक पर्यावरणीय और सामाजिक नीति के रूप में देखना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि ग्रामीण स्तर पर इसको लेकर जागरूकता नहीं है। हिमाचल प्रदेश की रहने वाली गुड़िया बताती हैं कि, “मुझे घर में कई बार यह सुनने को मिलता है कि तुम्हारे दूध से बच्चे का पेट नहीं भरता या उसे भूख लगी रहती है। ऐसे ताने मुझे बहुत तकलीफ देते हैं, खासकर तब जब एक माँ अपने बच्चे के लिए दिन रात मेहनत कर रही हो।” ग्रामीण स्तर पर स्थानीय भाषा में इसके लिए जागरूकता अभियान चलाये जाने चाहिए ताकि लोग एक महिला के संघर्ष को समझ सकें। इसी के साथ – साथ सार्वजनिक जगहों पर माँओं के लिए स्तनपान की सुविधा होना बहुत ज़रूरी है। दिल्ली की रहने वाली आशा कहती हैं कि, “जब मुझे बच्चों के साथ बाहर दुकान या फिर शॉपिंग के लिए जाना होता है तो में उन्हें ब्रेस्टफीड नहीं करवा पाती क्योंकि आजकल हर जगह कैमरे लगे होते हैं।“

इसी संदर्भ में आधुनिका कहती हैं, “सार्वजनिक जगहों में ब्रेस्टफीडिंग के लिए कमरे तो बनाए जाते हैं लेकिन वह साफ नहीं होते हैं, जिसके चलते कुछ टाइम बाद उसमें ताला लगा हुआ दिखाई देता है।” इसलिए जागरूकता की बहुत ज़रूरत है ताकि एक माँ को अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिए कोई कोना न ढूंढना पड़े। ब्रेस्टफीडिंग को बढ़ावा देते समय यह याद रखना ज़रूरी है कि यह एक महिला का व्यक्तिगत फैसला होता है। पर्यावरण और बच्चे की सेहत के फायदे ज़रूर हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हर महिला पर इसे ज़बरदस्ती थोपा जाए। हर महिला को सही जानकारी, स्वास्थ्य सेवाएं और भावनात्मक सहयोग मिलना चाहिए, ताकि वह खुद तय कर सके कि ब्रेस्टफीड कराना है या नहीं। इसे समावेशी तरीके से देखना बहुत ज़रूरी है क्योंकि यह हर उस इंसान से जुड़ा हुआ विषय है जो शिशु को ब्रेस्टफीड करवाता है। चाहे उसकी शारीरिक और सामाजिक पहचान कुछ भी हो। जब नीतियां सबको साथ लेकर बनेंगी, तभी हम सही मायनों में सेहत, समानता और पर्यावरण के बीच संतुलन बना सकेंगे।
ब्रेस्टफीडिंग केवल माँ और बच्चे के बीच पोषण का एक संबंध नहीं है, यह एक ऐसा पर्यावरणीय विकल्प भी है जो हमें स्थायी भविष्य की ओर ले जा सकता है। यह न केवल संसाधनों की बचत करता है, बल्कि कार्बन उत्सर्जन, प्लास्टिक कचरे और जल प्रदूषण जैसी गंभीर समस्याओं को भी कम करता है। जलवायु संकट के इस दौर में जब तकनीकी समाधान आम इंसान की पहुंच से बाहर हैं, तब ब्रेस्टफीडिंग जैसा सहज और सुलभ तरीका हमें याद दिलाता है कि बदलाव घर से शुरू हो सकते हैं। इसके लिए ज़रूरी है कि उन्हें सही जानकारी, सार्वजनिक सुविधाएं और सामाजिक समर्थन मिले। नीतियों में ब्रेस्टफीडिंग को एक स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरणीय और लैंगिक अधिकारों के मुद्दे के रूप में शामिल करना ज़रूरी है । पर्यावरण संरक्षण केवल पेड़ लगाने या बिजली बचाने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि हमें उन जैविक, सांस्कृतिक और मानवीय प्रक्रियाओं को भी महत्व देना होगा जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बदलाव ला सकती हैं।

