बिहार के बक्सर की रहने वाली 40 वर्षीय नीतू अब दिल्ली में रहती हैं। पहले वह एक फैक्ट्री में काम करती थीं। नीतू बताती हैं, “मैं काम की तलाश में इधर-उधर भटक रही थी। घर चलाने के लिए कोई भी काम पकड़ना जरूरी था। काफी खोजबीन के बाद एक फैक्ट्री में सिलाई का काम मिल गया। रोज़ सुबह ठीक 9 बजे मशीन के सामने बैठना होता था, और फिर घंटों तक उसी जगह पर काम करना पड़ता था। धीरे-धीरे यह रूटीन शरीर पर भारी पड़ने लगा। पीठ में लगातार दर्द रहने लगा, आंखों में जलन तो आम बात हो गई थी। मशीन की आवाज़ दिनभर कानों में गूंजती रहती, और दिन खत्म होते-होते ऐसा लगता जैसे सारा दम निकल गया हो। इतना सब करने के बाद भी महीने के आखिर में जो तनख्वाह मिलती, वह बहुत कम होती थी।”
आगे नीतू कहती हैं, “इतना काम करने के बाद भी घर का ख़र्च मुश्किल से निकल पाता था। ऊपर से फ़ैक्ट्री आने-जाने में रोज़ लगभग चार घंटे लग जाते थे। सुबह की भीड़, बस की धक्कामुक्की, गर्मी और थकान। सब मिलकर यह काम मेरे लिए सिर्फ़ शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक रूप से भी बेहद थका देने वाला हो गया था। उसके बाद घर आकर पारिवारिक जिम्मेदारियां भी निभानी पड़ती थीं। यह सब संभालना मेरे लिए कठिन हो गया, इसलिए मैंने नौकरी छोड़ दी। अब घर चलाने के लिए कोई छोटा-मोटा काम ढूँढ़ रही हूं।”
मशीन की आवाज़ दिनभर कानों में गूंजती रहती, और दिन खत्म होते-होते ऐसा लगता जैसे सारा दम निकल गया हो। इतना सब करने के बाद भी महीने के आखिर में जो तनख्वाह मिलती, वह बहुत कम होती थी।
कार्यस्थलों में क्या है चुनौतियां

देश में पहले की तुलना में कार्यस्थलों पर महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ रही है। यह बदलाव एक समावेशी और प्रगतिशील समाज का प्रतीक है। पिछले कुछ वर्षों में यह वृद्धि और भी स्पष्ट रूप से दिखाई दी है। लेकिन जब बात ब्लू और ग्रे कॉलर नौकरियों की आती है, तो तस्वीर कुछ हद तक जटिल हो जाती है। ब्लू कॉलर नौकरियां वे होती हैं जिनमें मुख्य रूप से शारीरिक मेहनत करनी पड़ती है। उदाहरण के लिए—फैक्ट्री वर्कर, मशीन ऑपरेटर, प्लंबर, ड्राइवर या सिक्योरिटी गार्ड का काम। इन कामों में आमतौर पर दिन या रात की शिफ्ट में काम करना पड़ता है। यह काम इतना थकाऊ होता है कि शरीर के साथ-साथ मन भी थक जाता है। वहीं, ग्रे कॉलर जॉब्स को ब्लू और व्हाइट कॉलर जॉब्स के बीच का काम माना जाता है। इनमें तकनीकी काम के साथ-साथ लोगों से सीधे जुड़कर काम करना पड़ता है। जैसे—लैब टेक्नीशियन, नर्स, हेल्थकेयर असिस्टेंट, फील्ड वर्कर, टेलीकॉलर और डिलीवरी एग्जीक्यूटिव। इन नौकरियों में समय की पाबंदी, लगातार सक्रिय रहना और लोगों से संवाद करना ज़रूरी होता है।
हालांकि इन क्षेत्रों में अब महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है, लेकिन सच यह भी है कि बहुत-सी महिलाएं इन नौकरियों को लंबे समय तक जारी नहीं रख पातीं। इसके पीछे कार्यस्थल पर असुरक्षा, असुविधाजनक शिफ्ट टाइम, घर और बच्चों की जिम्मेदारी, लैंगिक भेदभाव, कम वेतन और तरक्की के सीमित अवसर जैसे कारण शामिल होते हैं। यही वजहें हैं कि महिलाएं मजबूरी में नौकरी छोड़ देती हैं। आज देश में बेरोज़गारी इतनी ज़्यादा है कि किसी के लिए भी नौकरी छोड़ना आसान नहीं है, ख़ासकर महिलाओं के लिए। ऐसे में, फेमिनिज़्म इन इंडिया ने कुछ ऐसी महिलाओं से बात की जिन्होंने ये नौकरियां छोड़ीं और उनके अनुभव से समझने की कोशिश की कि समस्या क्या है।
फैक्ट्री वर्कर, मशीन ऑपरेटर, प्लंबर, ड्राइवर या सिक्योरिटी गार्ड का काम। इन कामों में आमतौर पर दिन या रात की शिफ्ट में काम करना पड़ता है। यह काम इतना थकाऊ होता है कि शरीर के साथ-साथ मन भी थक जाता है।
महिलाओं पर काम का दोहरा बोझ

आजकल साफ़ दिखाई देता है कि महिलाएं घर और ऑफिस, दोनों की जिम्मेदारियों के बीच फंसी रहती हैं। ऑफिस में करियर आगे बढ़ाने के लिए उन्हें पुरुषों जितनी ही मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन फिर भी उन्हें बराबर वेतन नहीं मिलता। वहीं, घर लौटते ही परिवार, बच्चों, बुज़ुर्गों और घरेलू कामकाज की पूरी जिम्मेदारी भी उन्हीं पर आ जाती है। नौकरी करने वाली महिलाएं केवल अपने कामकाजी जीवन तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ भी उठाती हैं। यह उनके लिए एक तरह का नैतिक दबाव बन जाता है। वे परिवार के हर सदस्य की बौद्धिक, भावनात्मक और सामाजिक भलाई का ध्यान रखती हैं।
दो वक्त का खाना बनाना, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल करना, बच्चों को स्कूल भेजना, उनका होमवर्क और प्रोजेक्ट्स में मदद करना, राशन और किराने का सामान लाना—ये सब उनकी रोज़मर्रा की दिनचर्या का हिस्सा है। टाइम यूज़ सर्वे 2024 के अनुसार, महिलाएं रोज़ाना औसतन 4 घंटे 49 मिनट घरेलू कामों में लगाती हैं। इस दोहरी भूमिका के कारण उन पर मानसिक और शारीरिक दबाव बढ़ जाता है। समाज में अब भी यह सोच गहरी जमी है कि घर का काम महिलाओं की ही ज़िम्मेदारी है। इसका नतीजा यह होता है कि वे लगातार थकान, तनाव और कई बार अपराधबोध में भी जीती हैं, क्योंकि दोनों मोर्चों पर पूरी तरह संतुलन बनाना आसान नहीं होता।
नौकरी करने वाली महिलाएं केवल अपने कामकाजी जीवन तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ भी उठाती हैं। यह उनके लिए एक तरह का नैतिक दबाव बन जाता है।
जेंडर पे गैप से महिलाओं का होता नुकसान

इसका असर न केवल उनकी सेहत पर पड़ता है, बल्कि आत्मविश्वास और जीवन की गुणवत्ता पर भी होता है। ऐसे माहौल में, जब बेरोज़गारी पहले से ही चरम पर है, कई महिलाएं कामकाजी जीवन से पीछे हटने को मजबूर हो जाती हैं। दिल्ली की 30 वर्षीय पूजा, जो एक अस्पताल की लैब में काम करती थीं, बताती हैं, “मैंने यह नौकरी बहुत उम्मीदों के साथ शुरू की थी। सोचा था कि लैब में काम करके कुछ नया सीखूंगी और करियर में आगे बढ़ूंगी। लेकिन धीरे-धीरे समझ आया कि मेहनत तो बहुत है, पर उसकी सही कीमत नहीं मिल रही। रोज़ सुबह 7 बजे से रात 10 बजे तक काम करना पड़ता था। कई बार तो पूरे 24 घंटे भी अस्पताल में बीत जाते। सैंपल टेस्टिंग, रिपोर्ट बनाना, मशीनें संभालना, डिलीवरी में मदद करना—सब कुछ करना होता था। इसके बावजूद, सैलरी सिर्फ़ 3 हज़ार रुपये महीना थी। इतने में न घर चलता है और न ही भविष्य का कोई सपना देखा जा सकता है।”
आगे पूजा कहती हैं, “पांच साल काम करने के बावजूद मुझे और महिला साथियों को पुरुषों से कम सैलरी मिलती रही। बार-बार मांग उठाने पर भी कोई सुनवाई नहीं हुई। सीखने का मौका तो मिला, लेकिन उससे पेट नहीं भरता। आखिरकार मैं थककर नौकरी छोड़ने पर मजबूर हो गईं।” अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार, दुनिया में जहां 72 फीसद पुरुष काम कर रहे हैं वहीं महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 47 फीसद है। उनकी सैलरी पुरुषों की तुलना में आधी से भी कम होती है। भारत में भी स्थिति कुछ अलग नहीं है। यहां महिला कर्मचारियों को, पुरुष कर्मचारियों की तुलना में, औसतन 35 फीसद कम वेतन मिलता है। यह वैतनिक अंतर लगभग हर सेक्टर में मौजूद है। महिलाओं और पुरुषों के बीच वेतन का यह अंतर आज भी एक गंभीर सामाजिक और आर्थिक समस्या है। अधिकांश स्थानों पर महिलाएं, समान योग्यता और काम करने के बावजूद, कम वेतन पाती हैं। इसे “जेंडर पे गैप” कहा जाता है। इसका कारण कई हैं।
मैंने यह नौकरी बहुत उम्मीदों के साथ शुरू की थी। सोचा था कि लैब में काम करके कुछ नया सीखूंगी और करियर में आगे बढ़ूंगी। लेकिन धीरे-धीरे समझ आया कि मेहनत तो बहुत है, पर उसकी सही कीमत नहीं मिल रही।
इसमें पारंपरिक सोच, कार्यस्थल पर भेदभाव, उच्च पदों पर महिलाओं की कम मौजूदगी और घरेलू जिम्मेदारियों का बोझ शामिल है। इन कारणों से महिलाएं अपने करियर में उस तरह आगे नहीं बढ़ पातीं जितना वह काबिल है। समाज में प्रचलित लैंगिक भूमिकाएं इस समस्या को और गहरा करती है। अक्सर यह माना जाता है कि पुरुष घर के मुख्य कमाने वाले होते हैं, जबकि महिलाओं की कमाई केवल सहायक होती है। यह सोच न सिर्फ महिलाओं के आत्मविश्वास को कमजोर करती है, बल्कि नियोक्ताओं के निर्णयों को भी प्रभावित करती है। कई बार पदोन्नति और वेतन वृद्धि में महिलाओं को पीछे रखा जाता है, क्योंकि यह मान लिया जाता है कि परिवार और बच्चों की ज़िम्मेदारियों के कारण वे लंबे समय तक निरंतर काम नहीं कर पाएंगी। दुर्भाग्य से, यह सोच आज भी हमारे समाज की सच्चाई है।

उत्तर प्रदेश की रहने वाली 30 वर्षीय राज्यश्री, जो दिल्ली में गार्ड की नौकरी करती थीं, बताती हैं, “जब मुझे गार्ड की नौकरी मिली, तो लगा था कि यह एक स्थिर आय का साधन होगा। लेकिन जल्द ही चुनौतियां सामने आ गईं। सबसे बड़ी दिक्कत समय और शिफ्ट की थी। रात की ड्यूटी में सुरक्षा और सुविधाएं बहुत कमजोर थीं, खासकर महिलाओं के लिए। घर से दूर और देर रात तक काम करना सुरक्षित नहीं लगता था, फिर भी परिवार की जिम्मेदारी निभाने के लिए काम करती रही। अक्सर शिफ्ट खत्म होने के बाद, अगर अगला गार्ड समय पर नहीं आता, तो मुझे अतिरिक्त ड्यूटी करनी पड़ती थी। इसके बावजूद समय पर वेतन नहीं मिलता था।”
जब मुझे गार्ड की नौकरी मिली, तो लगा था कि यह एक स्थिर आय का साधन होगा। लेकिन जल्द ही चुनौतियां सामने आ गईं। सबसे बड़ी दिक्कत समय और शिफ्ट की थी। रात की ड्यूटी में सुरक्षा और सुविधाएं बहुत कमजोर थीं, खासकर महिलाओं के लिए।
राज्यश्री आगे कहती हैं, “इतनी मेहनत करने के बाद भी मुझे सैलरी के लिए बार-बार गुहार लगानी पड़ती थी, क्योंकि मेरे पास कोई बचत नहीं थी। सात महीने तक वेतन की मांग करती रही, लेकिन हर बार मेरी बात टाल दी गई। ओवरटाइम काम और सैलरी न मिलने के तनाव में मैं गंभीर रूप से बीमार पड़ गई। इलाज के लिए सिर्फ दो हज़ार रुपये दिए गए। एक महीने तक बीमार रहने के बाद जब ऑफिस लौटी, तो पता चला कि मुझे नौकरी से निकाल दिया गया है और बाकी वेतन भी नहीं मिला। मैंने शिकायत की, लेकिन अब तक कोई नतीजा नहीं निकला। आज मैं नए काम की तलाश में भटक रही हूं, ताकि अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकूं।” महिलाओं की कार्यस्थलों पर बढ़ती भागीदारी एक प्रगतिशील समाज का संकेत है, लेकिन ब्लू और ग्रे कॉलर नौकरियों में स्थिति अब भी जटिल है।

फैक्ट्री, लैब, सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में महिलाएं लंबे समय तक कठिन शिफ्टों में काम करती हैं और कई बार असुरक्षित माहौल का सामना करती हैं। इसके बावजूद, समान योग्यता और काम के बावजूद उन्हें पुरुषों के बराबर वेतन नहीं मिलता। समय पर भुगतान में देरी होती है और पदोन्नति के अवसर भी सीमित रहते हैं। पारिवारिक जिम्मेदारियां और समाज में गहराई से जमी लैंगिक भूमिकाओं की धारणा इस चुनौती को और बढ़ा देती है। नतीजतन, असमान वेतन, कार्यस्थल पर भेदभाव, असुरक्षा और काम के बोझ के कारण महिलाएं या तो नौकरी छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं या फिर आर्थिक और मानसिक दबाव में जीती हैं। ‘जेंडर पे गैप’ केवल वेतन का अंतर नहीं है, बल्कि यह लैंगिक असमानता का प्रतीक है, जो महिलाओं के करियर विकास, आत्मनिर्भरता और जीवन की गुणवत्ता तीनों को प्रभावित करता है। अगर समाज में समानता चाहिए, तो महिलाओं को सुरक्षित माहौल, समय पर और उचित वेतन, और बराबर अवसर देना जरूरी है, तभी उनकी भागीदारी टिकाऊ और प्रभावी बन पाएगी।


Subject raised in detail. Well written