समाजकार्यस्थल दिल्ली की पहली महिला बस ड्राइवर का संघर्ष: दस साल बाद भी नहीं मिली स्थायी नौकरी

दिल्ली की पहली महिला बस ड्राइवर का संघर्ष: दस साल बाद भी नहीं मिली स्थायी नौकरी

सरिता की यात्रा साल  2004 में तेलंगाना के एक छोटे गांव से शुरू हुई, जहां वह अपने राज्य की पहली महिला ऑटो-रिक्शा चालक बनीं। पांच बहनों में सबसे छोटी सरिता ने जब ऑटो चलाना शुरू किया तो स्थानीय अखबार में छपा ‘पहली बार गांव में कोई लड़की ऑटो चला रही है।

दिल्ली की व्यस्त सड़कों पर दौड़ती बसों के बीच एक महिला चालक का होना सिर्फ एक नौकरी नहीं है, बल्कि इतिहास रचने जैसा है। राजधानी की पहली महिला बस ड्राइवर वी. सरिता ने उस क्षेत्र में कदम रखा, जहां अब तक पुरुषों का ही बोलबाला रहा है। उनकी कहानी सिर्फ व्यक्तिगत संघर्ष की दास्तान नहीं है, बल्कि यह इस बात को भी उजागर करती है, कि हमारे समाज और संस्थान महिलाओं को बराबरी का अवसर देने में अब भी कितने पीछे हैं। तीन महीने पहले तक सरिता का दिन सुबह साढ़े पांच बजे शुरू होता था। तेलुगु में मां से बात करने के बाद वह डीटीसी की वर्दी पहनकर सरोजिनी नगर डिपो के लिए निकलती थीं। लेकिन अब उनकी दुनिया पूरी तरह बदल गई है। मां गुजर गई हैं और एक लंबे अंतराल के बाद वह एक बार फिर दिल्ली में हैं।राजधानी की सड़कों पर बस चलाना आसान नहीं, लेकिन पिछले 10 सालों से यही सरिता की दुनिया है। वह  सिर्फ एक बस ड्राइवर नहीं हैं, वह दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन (डीटीसी) की पहली महिला चालक हैं, एक इतिहास रचने वाली महिला, जिसकी कहानी भारतीय सार्वजनिक परिवहन में जेंडर इक्विटी और श्रमिक अधिकारों के संघर्ष को साफ तौर पर दिखाती है।

तेलंगाना से दिल्ली तक का सफर

तस्वीर साभार : श्वेता

सरिता की यात्रा साल  2004 में तेलंगाना के एक छोटे गांव से शुरू हुई, जहां वह अपने राज्य की पहली महिला ऑटो-रिक्शा चालक बनीं। पांच बहनों में सबसे छोटी सरिता ने जब ऑटो चलाना शुरू किया तो स्थानीय अखबार में छपा – ‘पहली बार गांव में कोई लड़की ऑटो चला रही है।’ यह सिर्फ एक खबर नहीं थी, बल्कि भारतीय समाज में महिलाओं की बदलती भूमिका का प्रतीक था। वह कहती हैं , “घर में पिता की बिगड़ती तबीयत और आर्थिक तंगी ने मुझे इस रास्ते पर जाने को मजबूर किया। सिलाई से घर का खर्च नहीं चलता था, इसलिए मजबूरन ऑटो चलाना शुरू किया ।” आज़ाद फाउंडेशन के एक प्रतिनिधि के माध्यम से उन्हें दिल्ली आने का प्रस्ताव मिला, जहां 20-25 हजार रुपए मासिक वेतन के सहारे का वादा था। साल 2014 में डीटीसी में भर्ती की प्रक्रिया शुरू हुई, तो 15 महिला उम्मीदवारों में से सिर्फ सरिता ही सभी मापदंडों पर खरी उतरीं। उस समय के डीटीसी मैनेजिंग डायरेक्टर देबश्री मुखर्जी के नेतृत्व में हेवी मोटर व्हीकल (एचएमवी) लाइसेंस की तत्काल आवश्यकता माफ कर दी गई और महिलाओं के लिए आयु सीमा 40 साल तक बढ़ाई गई। हालांकि, 160 सेंटीमीटर लंबाई की शर्त बनी रही, जिसकी वजह से ज़्यादातर महिलाएं बाहर हो गईं।

घर में पिता की बिगड़ती तबीयत और आर्थिक तंगी ने मुझे इस रास्ते पर जाने को मजबूर किया। सिलाई से घर का खर्च नहीं चलता था, इसलिए मजबूरन ऑटो चलाना शुरू किया ।

दिल्ली की महिला बस चालकों का स्थायी नौकरी होने का सपना

तस्वीर साभारः The Quint

साल 2015 में परिवहन मंत्री गोपाल राय ने कहा था कि छह महीने में महिला ड्राइवरों की नौकरी पक्की कर दी जाएगी। लेकिन 10 साल बाद भी यह वादा अधूरा है। सरिता कहती हैं, “हमें स्थायी तो किया नहीं गया, उल्टा मंत्री जी ने खुद इस्तीफा दे दिया। उनके बाद कई मंत्री आए, लेकिन हमारी नौकरी आज तक स्थायी नहीं हो सकी।”आज़ाद फाउंडेशन के साल 2024 के अनुसंधान के अनुसार, डीटीसी के कुल 9,567 कर्मचारियों में से 5000 अस्थायी नौकरी कर रहे हैं। डीटीसी में कुल 93 महिला बस चालक हैं और सभी की नौकरी अस्थायी है। एक तो अस्थायी नौकरी दूसरा संख्या कम, ये आंकड़े भारतीय सार्वजनिक परिवहन में व्याप्त जेंडर गैप की गंभीरता को दिखाता है।

आज़ाद फाउंडेशन की रिसर्च में 8 डिपो का सर्वे किया गया जहां महिला चालकों का प्रतिशत 0.5 फीसदी  से 3 फीसदी  के बीच मिला।सरिता और अन्य महिला चालकों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनकी नौकरी अस्थायी है और भविष्य निश्चित नहीं है।  हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, अस्थायी कर्मचारी प्रति किलोमीटर 8 रुपए पाते हैं, जो दिन में 800 -1200  रुपए बनता है। इसके विपरीत, स्थायी कर्मचारियों को 30 हजार से 1 लाख रुपए तक मासिक वेतन मिलता है, साथ ही सरकारी छुट्टियां और चिकित्सा सुविधाएं भी।वह बताती हैं, ”काम का पैसा किलोमीटर के हिसाब से मिलता है। बसें पुरानी हैं और अक्सर खराब हो जाती हैं। जिस दिन बस ठीक से नहीं चलती, उसी दिन हमारा नुकसान होता है। साप्ताहिक छुट्टी नहीं मिलती, बीमार पड़ने पर भी कोई छुट्टी नहीं होती। लगातार साढ़े आठ घंटे की ड्यूटी करनी पड़ती है।”

साल 2015 में परिवहन मंत्री गोपाल राय ने कहा था कि छह महीने में महिला ड्राइवरों की नौकरी पक्की कर दी जाएगी। लेकिन 10 साल बाद भी यह वादा अधूरा है। हमें स्थायी तो किया नहीं गया, उल्टा मंत्री जी ने खुद इस्तीफा दे दिया। उनके बाद कई मंत्री आए, लेकिन हमारी नौकरी आज तक स्थायी नहीं हो सकी।

विरोध प्रदर्शन और जेंडर आधारित चुनौतियां

तस्वीर साभार : Indian Express

नवंबर 2024 में देश का पहला महिला बस डिपो ‘सखी’ सरोजिनी नगर में शुरू किया गया, तो खुशी के इस मौके पर भी महिला कर्मचारियों ने स्थायी नौकरी की मांग को लेकर प्रदर्शन किया। तत्कालीन परिवहन मंत्री कैलाश गहलोत के सामने बसों के आगे बैठकर उन्होंने आवाज़ उठाई, “महिला डिपो बना है,  यह अच्छी बात है। लेकिन हमें स्थायी कर दिया जाए। जब सारी कानूनी कार्यवाही महिला डिपो के लिए हो सकती है, तो हमें स्थायी करने के लिए क्यों नहीं हो सकती?” टाइम्स ऑफ इंडिया की साल 2023 – 24 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, डीटीसी में रोजाना करीब 26 लाख यात्री यात्रा करते हैं, जबकि क्लस्टर बसों में यह संख्या 16.4 लाख है। महिलाओं के लिए किराया-मुक्त बस यात्रा योजना, दिल्ली से सबक’ शीर्षक से प्रकाशित शोध पत्र से पता चलता है कि इस योजना से, जहां साल 2019 में बस से यात्रा करने वाली महिलाओं की संख्या 33फीसदी थी, वह साल 2023 में बढ़कर 42 फीसदी हो गई थी।

इस विषय में देखें तो महिला चालकों की उपस्थिति न सिर्फ प्रतीकात्मक बल्कि व्यावहारिक रूप से भी महत्वपूर्ण है।आज़ाद फाउंडेशन के शोध के अनुसार, 5,000 से अधिक महिलाओं को ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त हुआ है और 3,500 से अधिक महिलाएं वर्तमान में परिवहन क्षेत्र में कार्यरत हैं। लेकिन सामाजिक बाधाएं अभी भी बनी हुई हैं। इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांसपोर्टेशन एंड डेवलपमेंट पॉलिसी की साल 2017 की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय शहरों में सार्वजनिक परिवहन में महिलाओं को यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है, और ऐसी घटनाओं की कम रिपोर्टिंग होती है। हालांकि, सरिता का अनुभव इसके विपरीत रहा है। ‘डीटीसी में सम्मान है। यहां के लोग बहुत सहयोगी हैं, सभी ने मुझे सपोर्ट किया।” वह कहती हैं, यात्री भी उनका सम्मान करते हैं और कई बार उनके साथ सेल्फी भी लेते हैं।

महिलाओं के लिए किराया-मुक्त बस यात्रा योजना, दिल्ली से सबक’ शीर्षक से प्रकाशित शोध पत्र से पता चलता है कि इस योजना से, जहां साल 2019 में बस से यात्रा करने वाली महिलाओं की संख्या 33फीसदी थी, वह साल 2023 में बढ़कर 42 फीसदी हो गई थी।

समानता और स्थायित्व की तलाश

 द पैट्रियट की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली में महिला बस चालक न सिर्फ रोजाना की चुनौतियों से जूझ रही हैं, बल्कि प्रणालीगत भेदभाव का भी सामना कर रही हैं। ग्रीनपीस की साल 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली में महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा योजना के तहत अब तक 45 करोड़ महिलाओं ने यात्रा की है। इससे पता चलता है कि महिलाएं सार्वजनिक परिवहन की मुख्य उपभोक्ता हैं,  लेकिन बसें चलाने और काम करने वालों में उनकी संख्या बहुत कम है।

तस्वीर साभार : Times Of India

साल 2025 में सरिता को तेलंगाना की भी पहली महिला ड्राइवर बनने का मौका मिला। लेकिन कुछ महीनों बाद मां मृत्यु के कारण वह दिल्ली लौट आईं। वह कहती हैं, “तेलंगाना में ड्राइवरों को सम्मान नहीं मिलता, जबकि डीटीसी में सम्मान है। वहां का अनुभव संतोषजनक नहीं रहा। मुझे और मुझ जैसी अन्य महिला चालकों को उम्मीद है कि जो पिछली ‘आप सरकार’ में नहीं हो पाया, वह मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के नेतृत्व वाली सरकार में हो जाएगा। अभी हम रेखा गुप्ता मैम से मिले नहीं हैं  लेकिन जल्द ही मिलेंगे। हमारी कमेटी और यूनियन लीडर से मैडम की बात चल रही है, उनका कहना है कि मैं तुम लोगों का भला करूंगी, डीटीसी को ध्यान में रखा है। अगर आप मेरे कहने से शांतिपूर्वक रहेंगे तो मैं करूंगी। इसलिए हम थोड़ा चुप हैं। “

मुझे और मुझ जैसी अन्य महिला चालकों को उम्मीद है कि जो पिछली ‘आप सरकार’ में नहीं हो पाया, वह मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के नेतृत्व वाली सरकार में हो जाएगा। अभी हम रेखा गुप्ता मैम से मिले नहीं हैं  लेकिन जल्द ही मिलेंगे। हमारी कमेटी और यूनियन लीडर से मैडम की बात चल रही है, उनका कहना है कि मैं तुम लोगों का भला करूंगी, डीटीसी को ध्यान में रखा है।

नीतिगत सुधार की जरूरत

एशिया पैसिफिक जेंडर की साल 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय परिवहन क्षेत्र में महिलाओं की कम भागीदारी के लिए सामाजिक पूर्वाग्रह, सुरक्षा चिंताएं और काम की खराब परिस्थितियां जिम्मेदार हैं।
जिस लिए कुछ सुधार होना बहुत ज़रूरी हैं । सभी महिला चालकों को स्थायी पद प्रदान किए जाने चाहिए ताकि उन्हें अपने भविष्य के लिए चिंतित न रहना पड़े । महिलाओं को भी पुरुषों जितना वेतन मिलना चाहिए, जब काम समान हो सकता है तो वेतन क्यों नहीं ? कार्यस्थल पर हर एक इंसान को एक बराबर मौका मिलना चाहिए, चाहे उसकी सामाजिक या शारीरिक पहचान कुछ भी हो। महिलाओं को स्वास्थ्य बीमा, पेंशन और मातृत्व अवकाश दिया जाना चाहिए, इसी के साथ – साथ  सुचारू रूप से प्रशिक्षण कार्य भी शुरू किए जाने चाहिए ताकि और महिलाएं भी इस क्षेत्र में आसानी से अपनी सहभागिता निभा सकें।  

सरिता की कहानी हमें यह सिखाती है कि महिलाओं को बराबरी के मौके और सुरक्षित काम की जगह मिलनी चाहिए। दस साल बाद भी स्थायी नौकरी न मिलना यह दिखाता है कि बदलाव अभी अधूरे हैं। महिलाओं को समान वेतन, स्थायी नौकरी, स्वास्थ्य सुविधाएं और प्रशिक्षण देना जरूरी है।  बदलाव के लिए सिर्फ नियम बनाना ही काफी नहीं है। महिलाओं को समर्थन, सुरक्षा और सम्मान की जरूरत है। अगर उन्हें सही अवसर और सहयोग मिले, तो वे पुरुषों के साथ बराबरी से काम कर सकती हैं और समाज में सकारात्मक बदलाव ला सकती हैं।

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