महिलाओं की ज़िंदगी में हिंसा का सबसे बड़ा ख़तरा अक्सर बाहर से नहीं, बल्कि उनके अपने घर और क़रीबी रिश्तों में भी देखा जा सकता है। आज भी बहुत सी महिलाएं अपने सबसे नज़दीकी रिश्तों में सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं। घर, जो प्यार और सहारे का स्थान होना चाहिए, कई बार उनके लिए डर और हिंसा की जगह बन जाता है। यू एन वुमन की साल 2024 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 15 साल से ज़्यादा उम्र की 64 करोड़ से अधिक यानी लगभग 26 फीसद महिलाओं के साथ उनके पार्टनर ने हिंसा की । वयस्क महिलाओं की तुलना में किशोर या कम उम्र की लड़कियों को इसका ख़तरा ज़्यादा होता है। 19 साल की उम्र तक आते-आते 4 में से 1 यानी लगभग 24 फीसद लड़कियों को उनके अंतरंग साथी शारीरिक, मानसिक या यौनिक प्रताड़ित कर चुके होते हैं। वहीं महिला हत्याओं का लगभग 60 फीसद उनके अंतरग साथी या परिवार के सदस्यों के द्वारा की जाती हैं। अंतरंग साथी हिंसा (आईपीवी) दुनिया भर में होने वाले हिंसा का सबसे आम और ख़तरनाक रूप है क्योंकि इसमें सबसे भरोसेमंद और क़रीबी इंसान शामिल होता है।
भारत जैसे निम्न और मध्यम आय वाले देशों में इसकी दर तुलनात्मक रूप से ज़्यादा पाई गई। अंतरराष्ट्रीय पर्यावरणीय अनुसंधान और जन स्वास्थ्य पत्रिका के मुताबिक, भारत में 15-49 साल की उम्र की लगभग हर तीसरी विवाहित महिला को अपने जीवन में कभी न कभी अपने पति से शारीरिक, भावनात्मक या यौन हिंसा झेलनी पड़ती है। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और तमाम क़ानूनों के बावजूद आज भी महिलाएं अपने पतियों से ही असुरक्षित हैं जिन पर उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी मानी जाती है। महिलाएं अगर अपने घर-परिवार या करीबियों से इसके बारे में बात करती हैं यहां तक कि क़ानूनी पहल करने पर भी आईपीवी को आम बात मान लिया जाता है और अक्सर इसे गंभीरता से नहीं लिया जाता।
वयस्क महिलाओं की तुलना में किशोर या कम उम्र की लड़कियों को इसका ख़तरा ज़्यादा होता है। 19 साल की उम्र तक आते-आते 4 में से 1 यानी लगभग 24 फीसद लड़कियों को उनके अंतरंग साथी शारीरिक, मानसिक या यौनिक प्रताड़ित कर चुके होते हैं।
क्या है इंटिमेट पार्टनर वायलेंस या अंतरंग साथी हिंसा?

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ ) के अनुसार, आईपीवी अंतरंग संबंध में होने वाला ऐसा व्यवहार है जो साथी को शारीरिक, मनोवैज्ञानिक या यौन नुकसान पहुंचाता है। यह महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा का सबसे आम रूप है, इसमें व्यक्ति अपने साथी को कंट्रोल करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल करता है। यह सभी परिवेश और सभी तरह के सामाजिक-आर्थिक समूहों में पाई जाती है। फिर भी इसका सबसे ज़्यादा नुकसान महिलाओं को उठाना पड़ता है। हालांकि कुछ मामलों में महिलाएं भी हिंसक हो सकती हैं लेकिन अक्सर ऐसा वे अपने को बचाने के लिए करती हैं। आईपीवी के मामले में आमतौर पर अपराधी एक पुरुष होता है जो कि महिला का पार्टनर या एक्स पार्टनर हो सकता है। जबकि पुरुषों को जब हिंसा का सामना करना पड़ता है तो अपराधी अक्सर क़रीबी के बजाय कोई अजनबी होता है।
आईपीवी को तीन भागों में बांटा जा सकता है, जिसमें शारीरिक हिंसा, यौन हिंसा और भावनात्मक हिंसा शामिल है। शारीरिक हिंसा में शरीर को नुकसान पहुंचता है जो काफ़ी हद तक आसानी से देखा जा सकता है और इसे दर्ज़ करना भी आसान होता है। यौन हिंसा में जबरन यौन संबंध बनाना या यौन संबंध बनाने का दबाव डालना शामिल है। इसमें अपने साथी की सहमति के बिना किए जाने वाले सभी प्रकार के यौनिक व्यवहार शामिल किये जा सकते हैं। भावनात्मक हिंसा इसका सबसे छुपा हुआ रूप है, जो बहुत गहराई से देखने पर ही समझ में आता है। इसमें अपने साथी को अपमानित करना, नुकसान पहुंचाने की धमकी देना, घर से निकलना या निकालने की धमकी देना, बच्चों को छीन लेना जैसी बातें शामिल होती हैं। इसमें पुरुष अपनी पार्टनर को पूरी तरह से कंट्रोल करने की कोशिश करता है, जैसे कि वह कौन सी नौकरी या व्यवसाय करेगी, किससे बात करेगी, कहां जाएगी और किससे रिश्ता रखेगी। इसमें खाने-पीने, पहनने से लेकर पढ़ाई और नौकरी तक सब कुछ पर कंट्रोल शामिल होता है।
आईपीवी अंतरंग संबंध में होने वाला ऐसा व्यवहार है जो साथी को शारीरिक, मनोवैज्ञानिक या यौन नुकसान पहुंचाता है। यह महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा का सबसे आम रूप है, इसमें व्यक्ति अपने साथी को कंट्रोल करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल करता है।
भारत में अंतरंग साथी हिंसा का प्रभाव

भारत में आईपीवी निजी मसला नहीं है। यह एक तरीके का सामाजिक और क़ानूनी मामला भी है। राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक, 18–49 वर्ष की उम्र की लगभग 29.3 फीसद विवाहित महिलाएं कभी न कभी घरेलू हिंसा का सामना कर चुकी होती हैं। इसकी वजह से न केवल शारीरिक सेहत पर बुरा असर पड़ता है बल्कि मानसिक सेहत भी खराब होती है और इस तरह से उनके सामाजिक जीवन पर भी असर पड़ता है। पितृसत्तात्मक सामाजिक सोच से चलने वाले हमारे समाज में एक महिला होने के नाते ज़िन्दगी में पहले से ही संघर्ष काफ़ी ज़्यादा होते हैं। शादी के बाद जहां उसका मायका पराया हो जाता है वहीं ससुराल के लोग उसे पूरी तरह से अपना नहीं पाते। ऐसे में पति ही एक ऐसा साथी होता है जिस पर वह भरोसा करती है और जब वही उसे प्रताड़ित करे तो उसके पास इन सब से निकलने का रास्ता बहुत कम ही मिल पाता है।
बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई और करियर बनाने से ज़्यादा महिलाओं को ससुराल में एडजस्ट करने की ट्रेनिंग दी जाती है। इससे आर्थिक तौर पर इन्हें दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है जिस वजह से आईपीवी की स्थिति में भी इन्हें उस इंसान के साथ रहने पर मजबूर होना पड़ता है। तनाव से बचने के लिए बहुत बार ये अपनी स्थिति को नियति मानकर स्वीकार कर लेती हैं। इन सब वजहों से इस तरह की आपराधिक हिंसा को और बढ़ावा मिलता है। इसका नतीजा यह होता है कि महिलाएं कई तरह की शारीरिक और मानसिक बीमारियों से ग्रसित हो जाती हैं और कई बार नौबत ख़ुदकुशी तक पहुंच जाती है।
राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक, 18–49 वर्ष की उम्र की लगभग 29.3 फीसद विवाहित महिलाएं कभी न कभी घरेलू हिंसा का सामना कर चुकी होती हैं। इसकी वजह से न केवल शारीरिक सेहत पर बुरा असर पड़ता है बल्कि मानसिक सेहत भी खराब होती है और इस तरह से उनके सामाजिक जीवन पर भी असर पड़ता है।
क्या कहते हैं हालिया आंकड़े?

बीएमजी पब्लिक हेल्थ ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस ) के साल 2019-21 के आंकड़ों को लेकर भारत के सर्व शिक्षा अभियान पर एक अध्ययन किया। इसमें सर्व शिक्षा अभियान का अंतरंग साथी हिंसा पर होने वाले असर का विश्लेषण किया गया। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में 15 से 49 वर्ष की आयु की 7,24,115 विवाहित (या कभी विवाहित रह चुकी) महिलाएं शामिल थीं, जिन्होंने प्रश्नावली के माध्यम से आईपीवी पर अपनी प्रतिक्रियाएं दी। शोध में पाया गया कि सर्व शिक्षा अभियान के तहत शामिल महिलाओं में घरेलू हिंसा को सही ठहराने और घरेलू हिंसा को सहने की संभावना 16 से 31 फीसद तक कम थी। हालांकि शोध में यह भी देखा गया कि शारीरिक हिंसा पर सर्व शिक्षा अभियान का असर न के बराबर पाया गया। इससे साफ पता चलता है कि शिक्षा पहले सोच-विचार में बदलाव लाती है, व्यवहार में इसका असर देर में देखने को मिलता है।
एसआईटीईएस में प्राथमिक शिक्षा और आईपीवी के बीच संबंधों पर एक रिपोर्ट है, जिसमें साल 2015-16 के जनसांख्यिकीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण (डीएचएस ) के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया था। रिपोर्ट में पाया गया कि जिन जिलों में महिला साक्षरता दर 39.3 से कम थी और जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डीपीईपी) लागू किया गया था, वहां आईपीवी के मामले में कमी देखी गई। ग़ौरतलब है कि जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम साल 1994 में शुरू किया गया था। इसकी वजह से भावनात्मक घरेलू हिंसा में 13 फीसद की कमी, कम गंभीर शारीरिक घरेलू हिंसा में 26 फीसद की कमी, यौन हिंसा में 9 फीसद की कमी और घरेलू हिंसा की वजह से होने वाली चोटों में 10 फीसद की कमी देखी गई। इसमें यह भी सामने आया कि प्राथमिक शिक्षा हासिल करने वाली महिलाओं ने घरेलू हिंसा को सही नहीं माना।
शोध में पाया गया कि सर्व शिक्षा अभियान के तहत शामिल महिलाओं में घरेलू हिंसा को सही ठहराने और घरेलू हिंसा को सहने की संभावना 16 से 31 फीसद तक कम थी। हालांकि शोध में यह भी देखा गया कि शारीरिक हिंसा पर सर्व शिक्षा अभियान का असर न के बराबर पाया गया।
शिक्षा अंतरंग साथी हिंसा ख़त्म करने की पहली सीढ़ी
शिक्षा को हमेशा से ही मानव विकास का ज़रूरी हिस्सा माना गया है। प्राथमिक शिक्षा बदलाव की नींव कही जा सकती है, क्योंकि यह इसकी पहली सीढ़ी होती है। जब देश का हर बच्चा गुणवत्ता से भरी प्राथमिक शिक्षा हासिल करता है तो न केवल उसके सोचने-समझने के तरीके में बदलाव आता है, बल्कि बचपन से ही आज़ादी, समानता जैसे मूल्यों का भी विकास हो पाता है। हालांकि शिक्षित महिलाओं के साथ भी अपराध कम नहीं होते लेकिन शिक्षित महिलाएं ज़्यादा जागरूक होती हैं। ये अपने ख़िलाफ़ हो रहे अपराध और अन्याय को न केवल जल्दी पहचान लेती हैं बल्कि इनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठना भी जानती हैं। इन्हें यह पता होता है कि किस तरह से क़ानूनी या क़रीबी लोगों से मदद ली जा सकती है। शिक्षित होने से ज़रूरत पड़ने पर आमदनी का ज़रिया बनाना भी तुलनात्मक रूप से आसान होता है। शिक्षा बदलाव लाती है और परंपरा के नाम पर होने वाले शोषण के ख़िलाफ़ लड़ने में एक मजबूत हथियार का काम करती है।

अंतरंग साथी हिंसा समाज में किसी भी तरह से स्वीकार नहीं की जा सकती। इसे पूरी तरह से ख़त्म करने के लिए बड़े पैमाने पर बदलाव की ज़रूरत है और प्राथमिक शिक्षा इसका पहला कदम है। इसके लिए सबसे ज़रूरी है कि सभी को प्राथमिक स्तर से ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराई जा सके। शिक्षकों को आज़ाद , समानता और मानव अधिकार जैसे मूल्यों की बुनियादी समझ होना ज़रूरी है जिससे वे सभी विद्यार्थियों के साथ समानता का व्यवहार कर सकें। क्योंकि इस उम्र में शिक्षक अक्सर बच्चों के आदर्श होते हैं और वह उनके व्यवहार को देखकर ही सीखते हैं। प्राथमिक स्तर पर पाठ्यक्रमों में भी समावेशिता का ध्यान रखा जाना भी ज़रूरी है जिससे कोई भी बच्चा अपने को उपेक्षित न महसूस करे। ख़ासतौर पर लड़कों की पितृसत्तात्मक सोच और कंडीशनिंग ख़त्म करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जिससे वे सभी जेंडर्स को एक बराबर समझें और व्यवहार करें। क्योंकि अंतरंग साथी हिंसा के पीछे अक्सर अपने को बेहतर और साथी को कमतर समझने की भावना होती है जिससे उन्हें कंट्रोल करने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं। लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अलग से उपाय किए जाने चाहिए जिससे वे जागरूक और आत्मनिर्भर बन सकें। भारत में शिक्षा केवल नौकरी ही नहीं बल्कि सामाजिक बदलाव का ज़रिया भी बन सकता है।

