हाल ही में अफ़गानिस्तान में आए ख़तरनाक भूकंप ने न सिर्फ़ ज़मीन में पड़ी दरारों को दिखाया बल्कि समाज की गहरी दरारों को भी उजागर करने का काम किया। 31 अगस्त की रात पूर्वी अफगानिस्तान में आए भीषण भूकंप से हज़ारों ज़िंदगियां तबाह हो गईं, इसमें भी सबसे ज़्यादा असर वहां की महिलाओं पर पड़ा। उन्हें न सिर्फ़ भूकंप की मार झेलनी पड़ी बल्कि साथ में रूढ़िवादी समाज की रूढ़िवादी सोच का भी सामना करना पड़ा। तालिबानी शासन का सख़्त ‘नो स्किन कॉन्टैक्ट‘ नियम इनके लिए जानलेवा साबित हुआ, जब महिला बचाव कर्मियों के न होने से राहत कामों के दौरान अमानवीय परिस्थितियों में इन्हें बेसहारा छोड़ दिया गया। मदद का इंतज़ार करते-करते बहुत सारी महिलाओं ने मौके पर ही दम तोड़ दिया जबकि बचाव दल सामने मौजूद था।
मलबे में फंसे रहने से लेकर मेडिकल कैंप और राहत शिविरों तक में महिलाओं को भेदभाव का सामना करना पड़ा। किसी भी तरह की मदद, इलाज़ और देखभाल में पुरुषों को प्राथमिकता दी गई। 31 अगस्त 2025 को 6.0 तीव्रता के भूकंप ने पूर्वी अफ़गानिस्तान के कुनार प्रांत में तबाही मचा दी। इंडिया टुडे में छपी ख़बरों के अनुसार, इस हादसे में 2200 के क़रीब लोगों की मौतें हो गईं और 3600 से ज़्यादा लोग घायल हो गए हैं। अल जज़ीरा में प्रकाशित एक ख़बर में इस भूकंप से 5 लाख लोगों की ज़िंदगियों पर असर पड़ने का अनुमान जताया है। इस भयानक हादसे के शिकार लगभग 5000 लोग राहत शिविरों में आसरा लिए हुए हैं।
तालिबानी शासन का सख़्त ‘नो स्किन कॉन्टैक्ट’ नियम इनके लिए जानलेवा साबित हुआ, जब महिला बचाव कर्मियों के न होने से राहत कामों के दौरान अमानवीय परिस्थितियों में इन्हें बेसहारा छोड़ दिया गया।
क्या है नो स्किन कॉन्टैक्ट नियम

फाइनैन्शल एक्स्प्रेस में छपी ख़बर के अनुसार भूकंप का शिकार महिलाओं को हादसे के 36 घंटे बाद तक मदद नहीं मिल सकी और उन्हें जोख़िम भरी परिस्थितियों में मलबों के नीचे दबे रहने पर मजबूर होना पड़ा। इस दौरान कई महिलाओं की मौत तक हो गई। हालांकि बचाव टीम वहां पर मौजूद थी, जो वहां फंसे पुरुषों और बच्चों को बचाने के काम में लगी रही जबकि महिलाओं को उनके हाल पर छोड़ दिया। इन सब के पीछे वज़ह थी अफ़गानिस्तान का ‘नो स्किन कॉन्टैक्ट’ नियम, जिसके तहत कोई अजनबी पुरुष किसी महिला को हाथ नहीं लगा सकता। सिर्फ़ महिला के क़रीबी रिश्तेदार (महरम) ही ज़रूरत पड़ने पर महिला को छू सकते हैं जिसमें उसका पति, पिता, भाई या बेटे शामिल हैं। इसकी वजह से भूकंप के बाद जब महिलाएं मलबे में फंसी, तो पुरुष रेस्क्यू टीम ने उन्हें छूने से मना कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि महिलाओं को कई-कई घंटों यहां तक कि कई दिनों तक मलबों में बिना किसी मदद के दबे रहने पर मजबूर होना पड़ा। ये घायल महिलाएं दर्द और पीड़ा से तड़पती रहीं और इनमें से कइयों की जान तक चली गई।
यही नहीं मौत हो जाने की स्थिति में भी इन्हें सीधे छूने के बजाय अमानवीय तरीके से कपड़ों से माध्यम से कर निकाला गया एएनआई की एक ख़बर में हादसे का सामना कर चुकी 19 साल की आयशा ने ‘नो स्किन कॉन्टैक्ट’ नियम पर दुख ज़ाहिर करते हुए बताया कि “हमें एक कोने में इकट्ठा कर दिया और हमें भूल गए।” बचाव दल के 33 साल के वॉलंटियर तहज़ीबुल्लाह मुहाजेब ने बताया कि, “पुरुषों और बच्चों का इलाज किया गया जबकि महिलाएं मदद के इंतज़ार में बैठी रह गईं। ऐसा लग रहा था जैसे वे मौजूद ही न हों।” महिला वॉलिंटियर्स के न होने पर भूकंप का सामना कर चुकी महिलाओं को मदद के लिए दूसरे गांव की आम महिलाओं की मदद के भरोसे रहना पड़ा। अगर वहां मौजूद रेस्क्यू टीम समय पर मदद मुहैया कराती तो बहुत सारी महिलाओं को समय पर इलाज और देखभाल मिल पाता और उनकी ज़िंदगी आसान हो सकती थी।
फाइनैन्शल एक्स्प्रेस में छपी ख़बर के अनुसार भूकंप का शिकार महिलाओं को हादसे के 36 घंटे बाद तक मदद नहीं मिल सकी और उन्हें जोख़िम भरी परिस्थितियों में मलबों के नीचे दबे रहने पर मजबूर होना पड़ा। इस दौरान कई महिलाओं की मौत तक हो गई।
अफ़गानिस्तान में महिलाओं के हालात

20 साल के युद्ध के बाद साल 2021 में अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी और इस्लामी कट्टरपंथी समूह तालिबान के सत्ता पर होने के बाद से अफ़गानिस्तान में रूढ़िवादिता और कट्टरता काफ़ी तेजी से बढ़ी है। ख़ास तौर पर दशकों के संघर्ष के बाद हासिल हुए महिलाओं के हक़ पर पाबंदियां बढ़ती गई। यहां तक कि यूनाइटेड नेशन में महिलाओं के काम करने पर भी रोक लगा दी गई। ग़ौरतलब है कि साल 1979 से पहले अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं को काफ़ी अधिकार और आज़ादी थी। अफ़गानिस्तान की महिलाओं को वोट देने का अधिकार संयुक्त राज्य अमेरिका की महिलाओं से भी 1 साल पहले यानी 1919 में ही हासिल हो गया था। लेकिन 1978 में वहां के राष्ट्रपति की हत्या के बाद अमेरिका और रूस का दख़ल बढ़ गया, जिससे अलग-अलग कट्टरपंथी समूहों को बढ़ावा मिला। यूएस न्यूज़ के अनुसार 1996 में पहली बार तालिबान ने अफ़गानिस्तान पर सत्ता हासिल की और इस तरह से मज़हबी कट्टरता को बढ़ावा मिला। इसका नतीजा यह हुआ कि अफ़गानी महिलाओं की आज़ादी पर तरह-तरह से रोक लगाई गई। इसके तहत महिलाओं को स्कूल जाने, नौकरी करने, बिना किसी पुरुष सदस्य के बाहर निकलने यहां तक कि सार्वजनिक रूप से बोलने तक पर रोक लगा दी गई।
हालांकि साल 2001 तक आते-आते तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिया गया और अगले दो दशकों तक वहां सैन्य संघर्ष जारी रहा। इस दौरान वहां की सरकार ने संविधान में बदलाव करते हुए महिलाओं के अधिकारों को मान्यता दी और कई सारे प्रगतिशील कदम भी उठाए। इससे महिलाओं को फिर से पढ़ाई-लिखाई और नौकरी के मौके मिलने लगे। लेकिन 2021 में तालिबान की वापसी के साथ ही विकास का यह सिलसिला रुक गया। महिला अधिकारों को कायम रखने के तमाम दावों के बावजूद तालिबानी सरकार के शासन में अफगानिस्तान फिर से कट्टरता की तरफ रुख़ करने लगा। इसकी हालिया मिसाल अफ़गानिस्तान में भूकंप के दौरान ‘नो स्किन कॉन्टैक्ट’ नियम की वजह से महिलाओं की होने वाली बुरी हालत है, जिसे पूरी दुनिया ने देखा।
यूएस न्यूज़ के अनुसार 1996 में पहली बार तालिबान ने अफ़गानिस्तान पर सत्ता हासिल की और इस तरह से मज़हबी कट्टरता को बढ़ावा मिला। इसका नतीजा यह हुआ कि अफ़गानी महिलाओं की आज़ादी पर तरह-तरह से रोक लगाई गई। इसके तहत महिलाओं को स्कूल जाने, नौकरी करने, बिना किसी पुरुष सदस्य के बाहर निकलने यहां तक कि सार्वजनिक रूप से बोलने तक पर रोक लगा दी गई।
मानवाधिकार बनाम मज़हबी कट्टरता
मज़हबी कट्टरता और रूढ़िवाद परंपरा के नाम पर हमेशा से ही महिलाओं के अधिकारों का दमन करती आ रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य और कॅरियर बनाने के मामले में पहले से ही हाशिए पर धकेल दी गई महिलाएं किसी भी आपदा के समय सबसे ज़्यादा प्रभावित होती हैं। परिवार और समाज में प्राथमिकता के आख़िरी पायदान पर डाल दी गई महिलाओं को आपदा के समय भी आख़िर में रखा जाता है। इससे महिलाओं की न सिर्फ़ शारीरिक बल्कि मानसिक रूप से भी चुनौतियां कई गुना बढ़ जाती हैं। ऐसी घटनाओं से वे जीवन भर नहीं उबर पातीं और कई महिलाओं को तो जान तक गंवानी पड़ती है। यह न सिर्फ़ मानव अधिकार के लिए ख़तरनाक है बल्कि दुनिया को पीछे की तरफ ले जाने वाला कदम भी है, जो मानव सभ्यता को पीछे की ओर धकेलने का काम करता है।

अफ़गानिस्तान में यूएन वीमेन की विशेष प्रतिनिधि सूस़न फर्ग्युसन ने अपने एक हालिया बयान में कहा कि महिलाएं और लड़कियां इस आपदा का सबसे ज़्यादा असर का सामना करेंगी। इसलिए, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि राहत और पुनर्वास की प्रक्रिया में उनकी ज़रूरतों को सबसे अहम जगह दी जाए।” भूकंप जैसी आपदा में जहां एक-एक पल मायने रखता है वहां इस तरह के रूढ़िवादी नियम और परंपराएं पूरी तरह से इंसानियत के ख़िलाफ़ हैं। जहां ज़िन्दगी और मौत का सवाल हो, वहां इस तरह के नियम किसी भी तरह से लागू जाने लायक नहीं हैं। किसी भी देश का मजहबी क़ानून कभी भी मानव अधिकार से ऊपर नहीं हो सकता।

