भारतीय सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह समाज की सांस्कृतिक, राजनीतिक और लैंगिक तस्वीर भी दिखाता है। फिल्मों में दिखाए गए किस्से, किरदार और प्रतीक अक्सर हमारे सामाजिक यथार्थ को उजागर करते हैं। इन्हीं कहानियों में ‘भोजन’ और ‘जेंडर’ दो ऐसे पहलू हैं, जो ऊपर से मामूली लगते हैं। लेकिन गहराई से देखने पर पता चलता है कि भोजन सिर्फ स्वाद या संस्कृति से जुड़ा विषय नहीं है, बल्कि यह सत्ता, नियंत्रण और लैंगिक भूमिकाओं को भी दिखाता है। खासकर भारतीय समाज में भोजन और महिलाओं की भूमिका आपस में गहराई से जुड़ी रही है। महिलाओं को हमेशा रसोई से जोड़ा गया है। उनके श्रम को परिवार के प्रति प्रेम या सेवा के रूप में पेश किया गया है।
यहां तक कि भोजन को स्त्रीत्व का प्रतीक भी बना दिया गया है। यही प्रवृत्तियां हमारे समाज और सिनेमा दोनों में दिखाई देती है। भारतीय समाज में भोजन और स्त्री का रिश्ता बहुत गहरा है। परंपरा में हमेशा यह माना गया कि ‘अच्छी महिला’ वही है जो परिवार के लिए प्रेम से खाना बनाए, सेवा भाव से सबको खिलाए और अपने हिस्से का त्याग करने में हिचकिचाए नहीं। यह केवल एक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि स्त्री की नैतिकता, उसकी सामाजिक पहचान और स्वीकृति से जुड़ा हुआ माना गया। इसलिए, घर में खाना बनाना और परोसना, दोनों ही स्त्री की भूमिका और उसकी ‘अच्छाई’ को तय करने के पैमाने बन गए। अगर कोई स्त्री अच्छा खाना न बना पाए, या खाना बनाने की इच्छा ही न रखे, तो समाज अक्सर उसे अपूर्ण स्त्री या गैर जिम्मेदार महिला मानता है।
महिलाओं को हमेशा रसोई से जोड़ा गया है। उनके श्रम को परिवार के प्रति प्रेम या सेवा के रूप में पेश किया गया है। यहां तक कि भोजन को स्त्रीत्व का प्रतीक भी बना दिया गया है। यही प्रवृत्तियां हमारे समाज और सिनेमा दोनों में दिखाई देती है।
भारतीय फिल्मों में रसोई, खाना बनाने और परोसने की प्रक्रिया को अक्सर महिलाओं का स्वाभाविक काम दिखाया जाता है। सिनेमा में खाने को केवल स्वाद, रंग या सुंदरता तक सीमित नहीं किया जाता, बल्कि इसके जरिए घर का श्रम, शक्ति का संतुलन और लैंगिक असमानता भी सामने आती है। ज़्यादातर फिल्मों में नायिकाएं रसोई में खाना बनाते या परिवार के लिए परोसते हुए दिखाई देती हैं। इन दृश्यों को इस तरह दिखाया जाता है जैसे यह एक नैतिक और आदर्श गुण हो। इस तरह भोजन एक ऐसा माध्यम बन जाता है जो पितृसत्ता को मजबूत करता है और महिलाओं की भूमिकाओं को घर तक सीमित कर देता है।

ये दृश्य सिर्फ पर्दे पर ही नहीं रुकते, बल्कि दर्शकों की सोच और समाज की धारणाओं को भी प्रभावित करते हैं। मां का रसोई में खाना बनाना, पत्नी का पति का टिफिन पैक करना या बहू का सास-ससुर को खाना परोसना, ये सब भारतीय फिल्मों में इतने सामान्य लगते हैं कि इनके पीछे छिपा श्रम, भावनात्मक बोझ और लैंगिक असमानता हमें दिखते ही नहीं। लेकिन, जब इन्हीं दृश्यों को ध्यान से देखा जाता है तो पता चलता है कि खाना सिर्फ स्वाद या संस्कृति का नहीं, बल्कि सत्ता और पितृसत्ता का प्रतीक भी है। वहीं, जब कोई महिला इन घरेलू भूमिकाओं से आगे बढ़कर पेशेवर खाने की दुनिया में कदम रखती है, तो उसे संघर्ष, अस्वीकृति और कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
ज़्यादातर फिल्मों में नायिकाएं रसोई में खाना बनाते या परिवार के लिए परोसते हुए दिखाई देती हैं। इन दृश्यों को इस तरह दिखाया जाता है जैसे यह एक नैतिक और आदर्श गुण हो। इस तरह भोजन एक ऐसा माध्यम बन जाता है जो पितृसत्ता को मजबूत करता है और महिलाओं की भूमिकाओं को घर तक सीमित कर देता है।
2013 में ऋतेश बत्रा की फिल्म ‘द लंचबॉक्स‘ एक घरेलू महिला, इला की कहानी दिखाती है। इला अपने विवाहित जीवन की एकरसता से जूझ रही होती है। वह अपने पति का प्यार वापस पाने के लिए रोज़ मेहनत से स्वादिष्ट खाना बनाती है। लेकिन जब उसका पति इस मेहनत को नज़रअंदाज़ करता है, तो खाना सिर्फ़ एक ‘कर्तव्य’ बनकर रह जाता है, संवाद का माध्यम नहीं। गलती से लंचबॉक्स उसके पति की बजाय साजन नामक व्यक्ति तक पहुंच जाता है। साजन इला के श्रम और स्वाद की कद्र करता है। यहीं से भोजन इला की अदृश्य पहचान को सामने लाता है।

फिल्म ‘इमोशनल लेबर’ की अवधारणा को उजागर करती है। यह वही अदृश्य भावनात्मक श्रम है जिसे महिलाएं रिश्ते निभाने के लिए करती हैं, लेकिन जिसे समाज कोई मान्यता नहीं देता। इला की ज़िंदगी में रसोई उसका अपना ‘स्पेस’ है, लेकिन यह भी पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है। यह जगह भी सामाजिक अपेक्षाओं और ज़िम्मेदारियों से बंधी हुई है। उसका श्रम तभी महत्व पाता है जब वह किसी पुरुष की भावनात्मक ज़रूरत पूरी करे। फिल्म दिखाती है कि कैसे समाज में स्त्री की पहचान अक्सर भोजन और रसोई के ज़रिए तय की जाती है- जैसे पति को ऑफिस जाते समय लंच देना पत्नी का कर्तव्य माना जाता है।
इला अपने विवाहित जीवन की एकरसता से जूझ रही होती है। वह अपने पति का प्यार वापस पाने के लिए रोज़ मेहनत से स्वादिष्ट खाना बनाती है। लेकिन जब उसका पति इस मेहनत को नज़रअंदाज़ करता है, तो खाना सिर्फ़ एक ‘कर्तव्य’ बनकर रह जाता है, संवाद का माध्यम नहीं।
द लंचबॉक्स में इला और साजन के बीच पत्रों के ज़रिए जो रिश्ता बनता है, वह पारंपरिक विवाह संस्था की सीमाओं को तोड़ता है। यहां इला एक स्त्री के रूप में खुद सोचती है, निर्णय लेती है और अंत में आत्मनिर्णय की ओर बढ़ते हुए पति को छोड़कर एक नई शुरुआत की संभावना तलाशती है। यह कदम उसकी नारीवादी सोच और स्वतंत्रता की ओर बढ़ते सफर को दिखाता है। फिल्म भोजन के ज़रिए स्त्री की पहचान, उसके भावनात्मक श्रम और पितृसत्ता की आलोचना को बड़े ही सूक्ष्म और प्रभावशाली ढंग से सामने लाती है। द ग्रेट इंडियन किचन (2021), निर्देशक जीऊ बेबी की फिल्म, भारतीय मध्यमवर्गीय विवाह संस्था के भीतर स्त्री की स्थिति और उसके श्रम का गंभीर चित्रण करती है।

इसमें एक नवविवाहिता महिला की कहानी है, जो विवाह के बाद एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में आती है। शुरुआत में वह नए जीवन को अपनाने की कोशिश करती है, लेकिन जल्द ही समझ जाती है कि उसका पूरा अस्तित्व केवल रसोई और घरेलू कामों तक सीमित कर दिया गया है। यहां रसोई उसके लिए एक कैदखाना बन जाती है। सुबह से रात तक खाना बनाना, बर्तन धोना, फर्श साफ़ करना, यह एकरस दिनचर्या उसके भीतर थकान, मानसिक अस्वस्थता और पहचान के संकट को जन्म देती है। खासकर पीरियड्स के समय उसे अपवित्र कहकर अलग-थलग कर देना यह दिखाता है कि भोजन और शुद्धता के नाम पर स्त्री के शरीर और अस्तित्व पर कैसे नियंत्रण किया जाता है। फिल्म की सबसे खास बात इसका यथार्थवादी सिनेमाई अंदाज़ है, जिसमें बिना संवाद वाले लंबे दृश्य घरेलू श्रम की थकावट और स्त्री की असहायता को दर्शकों तक गहराई से पहुंचाते हैं।
भारतीय सिनेमा में भोजन और जेंडर का रिश्ता केवल पर्दे पर दिखने वाली खूबसूरत सजावट नहीं है। यह हमारे समाज की गहरी शक्ति और असमानता की तस्वीर भी दिखाता है। फिल्मों में अक्सर भोजन के जरिए यह तय किया जाता है कि औरत की पहचान क्या है, उसका स्थान कैसा है और उसे कैसे देखा जाएगा। खाना बनाना, परोसना या रसोई से जुड़ा काम औरत का भावनात्मक और शारीरिक श्रम है, लेकिन इसे अक्सर महत्व नहीं दिया जाता। कई बार यही काम उसकी नैतिकता और सामाजिक स्थिति को तय करने का साधन भी बना दिया जाता है।

