“लड़की है तो घर में काम करेगी। खाना बनाएगी। खेतों में काम करने जाएगी। घर में कोई बीमार हो तो उसकी सेवा करेगी। परिवार का ख्याल रखेगी। कोई भी दिक़्क़त आने पर सबसे पहले अपनी पढ़ाई छोड़ेगी और लड़का है तो वह बाहर खेलने जाएगा, बाहर पढ़ने जाएगा, घर के काम नहीं करेगा, पैसे कमाएगा, घर में कोई भी परेशानी आ जाए उसकी पढ़ाई में आंच नहीं पड़ने दी जाएगी।” ये सब कुछ ऐसी बातें है जो बचपन में हमलोगों को सिखाई गई और आज भी हम अपने घर-परिवार और आसपास में अक्सर बच्चों को यही सीख मिलते देखते हैं। स्कूलों की दीवारों पर सरकार के नारों में हमेशा कहा जाता है, ‘लड़का-लड़की एकसमान‘ लेकिन सच्चाई यही है कि ये बात अभी भी सिर्फ़ कहने की है। हमारे घरों में अभी भी बच्चों को इस भेदभावपूर्ण विचारों के साथ बड़ा किया जा रहा है। गांव में अक्सर देखती हूं कि लड़कियों को घर का सारा काम करने के बाद ही स्कूल जाने की इजाज़त मिलती है। घर में किसी भी तरह की दिक़्क़त आने पर लड़की की पढ़ाई तुरंत रोक दी जाती है।
एक़बार अलग-अलग गांव की किशोरियों के साथ शादी और पढ़ाई के मुद्दे पर चर्चा शुरू हुई। जब मैंने बारी-बारी से लड़कियों से पूछा कि वे पढ़-लिखकर क्या बनना चाहती है तो अधिकतर लड़कियों के अपनी शिक्षा को लेकर कोई सपने नहीं थे। उनका कहना था कि जब उनके घर वाले आगे पढ़ाएंगें तब तो वे कुछ सोच सकते हैं। वहीं, कई लड़कियों में शिक्षा को लेकर उदासीनता भी दिखी, वे यह कहने लगी, “पढ़-लिखकर हमलोग क्या करेंगें। आख़िर में घरवाले शादी कर देंगें और हमलोगों को रोटी ही बनानी पड़ेगी।” जब शादी पर चर्चा शुरू हुई तो उस पर सभी लड़कियों ने अपने परिवार की पसंद और चयन को प्राथमिकता दी। लड़कियों का कहना था कि परिवार वाले जहां शादी करवाना चाहेंगें, वहीं शादी होगी। लड़कियों ने बताया कि बारहवीं कक्षा में पहुंचते ही उनके लिए रिश्ते देखे जाना सामान्य है और जिन घरों में लड़कियों की संख्या ज़्यादा होती है वहां बालिग़ होने से पहले लड़कियों की शादी कर दी जाती है।
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हम अगर अपने समाज में लड़कियों की परवरिश के तरीक़े और इसकी व्यवस्था को देखें तो हम ये पाते हैं कि समाज लड़कियों को ऐसे बड़ा किया जाता है कि वे अपने लिए कोई सपने न देखें। न वे ज़्यादा पढ़ने की सोचें और न ख़ुद की मर्ज़ी से शादी की कल्पना भी करें। ये सब परिवार में लड़कियों के जन्म से ही शुरू हो जाता है, जब लड़कियों के पैदा होने पर परिवार में जैसे शोक की लहर दौड़ जाती है और परिवार वाले जन्म से ही लड़की की शादी की चिंता में पैसे जुटाने लग जाते है। वहीं बेटे के पैदा होने पर ख़ुशियां मनाई जाती हैं और उसे ख़ूब पढ़ाने और आगे बढ़ने के सारे द्वार खोल दिए जाते है।
आज भी गांव में लड़कियों को सरकारी स्कूल और लड़कों को अच्छे अंग्रेज़ी प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने के लिए भेजना आम है। बड़े होने के साथ लड़कियों पर घर के कामों की ज़िम्मेदारी बढ़ा दी जाती है। छह-सात साल तक की किशोरियों के साथ परिवार की ये पूरी कोशिश होती है कि वो घर के बुनियादी काम जैसे, झाड़ू-पोछा, छोटे बच्चे संभालना और खाना बनाना सीख लें। भले ही लड़की को अपना नाम लिखने न आए लेकिन उसे खाना बनाना ज़रूर आना चाहिए और परिवार इसमें कोई भी कोताही बर्दाश्त नहीं करता है क्योंकि लड़कियां अपने घर में महिलाओं को भी इसी हाल में देखती है इसलिए वे महिलाओं के अस्तित्व को घर संभालने और चूल्हे-चौके से ज़्यादा देख ही नहीं पाती है।
हम अगर अपने समाज में लड़कियों की परवरिश के तरीक़े और इसकी व्यवस्था को देखें तो हम ये पाते है कि समाज लड़कियों को ऐसे बड़ा किया जाता है कि वे अपने लिए कोई सपने न देखें। न वे ज़्यादा पढ़ने की सोचें और न ख़ुद की मर्ज़ी से शादी की कल्पना भी करें।
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ऊपर से कम उम्र में शादी, उनके विकास के सभी रास्तों को सिरे से बंद कर देती है। सोलह साल ही माधवी (बदला हुआ नाम) की छह बहनें थी और चार भाई। परिवार ने पहले सभी बेटियों की जल्दी से शादी करने को प्राथमिकता दी। माधवी दूसरे नंबर पर है, परिवारवालों ने जल्दबाज़ी में एक शराबी लड़के से उसकी शादी कर दी। शादी के कुछ ही महीने बाद माधवी गर्भवती हो गई। कम उम्र में माँ बनने के कारण उसके बच्चे का पूरा विकास नहीं हो पाया और माधवी का शरीर भी मानो एकदम टूट-सा गया। इसके बाद माधवी की कई तरह ही शारीरिक समस्याएं होने लगी और तीन साल बाद उसकी मौत हो गई।
ग्रामीण क्षेत्रों में हम आए दिन बाल विवाह की ऐसी वीभत्स घटनाएं देखते हैं। बाल विवाह से सिर्फ़ शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक और आर्थिक रूप से क्षति पहुंचती है, लेकिन इसके बावजूद समाज के ये कुरीति अभी भी जारी है। बेटे की चाह में अधिक बच्चे पैदा करना और फिर शिक्षा, स्वास्थ्य और उनके विकास के अवसर को ख़त्म करके लड़कियों की जैसे-तैसे शादी करके हटाना और बेटों को जल्दी पैसे कमाने के लिए भेजना ही परिवार का लक्ष्य बन जाता है, जो न केवल लड़कियों के बल्कि लड़कों के जीवन को भी ख़तरे में डालता है।
ध्यान देने वाली बात ये भी है कि जब किसी गांव के एक परिवार में बाल विवाह होता है तो उसकी देखा-देखी आसपास के परिवार में भी लड़की की जल्दी शादी करने की होड़ मच जाती है। चूंकि परिवार अपनी परवरिश में ही शादी को इतना ज़्यादा ज़रूरी बताकर लड़कियों को बड़ा करता है कि कई बार जब संस्थाओं के माध्यम से बाल विवाह रोकने का प्रयास किया जाता है तो कई बार लड़कियां ख़ुद इसका विरोध करने लगती हैं। उन्हें बाल विवाह में किसी भी तरह की कोई दिक़्क़त ही नहीं मालूम होती है। इसका नतीजा ये होता है कि उस समय पर तो भले ही शादी रोक दी जाए लेकिन बालिग़ होते ही बिना देरी किए लड़की की शादी कर दी जाती है। इन दो-तीन साल के इंतज़ार में ऐसा नहीं लड़की को पढ़ने स्कूल भेजा जाता है बल्कि वो घर पर ही घरेलू काम को अच्छे से सीखती हैं।
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हमारे देश में बाल विवाह के ख़िलाफ़ क़ानून काफ़ी पहले बन चुका है, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यही है कि अभी भी ये पूरी तरह आमज़न तक नहीं पहुंच पाया है। यहां एकबात ये भी समझने की ज़रूरत है कि जब लड़कियों को पढ़ाया नहीं जाता है तो वे अपने शरीर, स्वास्थ्य, विकास और अधिकार से जुड़े किसी मुद्दे के बारे में ज़्यादा जान नहीं पाती और ऐसे में भले ही वह बालिग़ हो जाए और उसका शरीर शारीरिक संबंध या शादी के तैयार हो जाए पर मानसिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से वो बिल्कुल भी तैयार नहीं हो पाती है। इसलिए ज़रूरी है कि बाल विवाह को रोकने के लिए हर स्तर पर प्रयास किया जाए, जिसकी शुरुआत घर से करनी होगी जब हम बच्चों में लैंगिक भेदभाव नहीं करें।
ख़ासकर इस कोरोना महामारी के दौर में जब ग्रामीण क्षेत्रों में परिवार आर्थिक तंगी से जूझने लगे है और जल्दीबाज़ी में वे अपने घर की लड़कियों की शादी करवाने की होड़ में लगने को तैयार हो रहे हैं। इसे हम कोरोना महामारी के एक कुप्रभाव के रूप में भी देख सकते है, जिसे हम सीधेतौर पर नहीं देख पा रहे है, लेकिन हर दूसरा गरीब परिवार अधिक दहेज से बचने के नामपर जल्दी लड़कियों की शादी करना चाह रहा है। इस बाल विवाह की और भी कई वजहें हो सकती है पर जो प्रथा ग़लत है वो ग़लत है, जिसे नज़रंदाज़ करना हमलोगों के लिए बड़ी भूल साबित सकती है।
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तस्वीर साभार : IPS News