पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपने एक हालिया इंटरव्यू में कहा है, “अगर एक औरत कम कपड़े पहन रही है, उसका असर मर्दों पर होगा ही अगर मर्द रोबोट न हो तो। ये कॉमन सेंस की बात है।” इमरान खान ने यह बयान ‘Axios on HBO’ के साथ हो रही बातचीत में दिया। इमरान के इस बयान के कुछ दिन पहले ही तहलका मैगज़ीन के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल के मालमे में उन पर यौन हिंसा का केस दर्ज़ करने वाली महिला को लेकर गोवा की एक ज़िला और सेशन अदालत ने एक आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। अदालत ने कहा था कि शिकायतकर्ता का ‘व्यवहार’ यौन हिंसा के बाद जैसा होना चाहिए उनका ‘व्यवहार’ वैसा नहीं था। इन दो पड़ोसी मुल्कों में एक प्रधानमंत्री और एक न्यायाधीश के सोच से ऐसे बयान सामने आना शर्मनाक तो है ही। साथ ही इस बात का प्रमाण है कि शीर्ष पदों पर बैठे लोग आज भी पितृसत्ता की भाषा बोलते हैं।
इमरान खान के मामले पर गौर करें तो इमरान राजनीतिक चेहरा बनने से पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रिकेट खेल चुके हैं। उनका करियर काफ़ी विविधताओं से भरा रहा है। वह क्रिकेट की दुनिया का एक मशहूर नाम थे। बतौर क्रिकेटर वह एक सेलेब्रेटी थे, उन्होंने ब्रिटेन के एक अमीर परिवार से वैवाहिक संबंध जोड़े और उनकी सार्वजनिक इमेज़ फिर से बदली। आखिरकार उन्होंने राजनीति की तरफ रुख़ किया। राजनीतिक दांव-पेंच को थोड़ी देर दरकिनार कर के देखें तो इमरान खान की लाइफस्टाइल, सार्वजनिक स्पेस में उनकी छवि रूढ़िवादी या दकियानूसी नहीं प्रतीत होती है। अपने युवा दिनों के संबंधों पर बात करने से कतराना इमरान का स्टाइल नहीं रहा है। उन्होंने एक बार कहा था, “प्लेयबॉय इमेज़ बढ़ा-चढ़ाकर कही गई बात है लेकिन मैं कोई संत भी नहीं हूं।” उनके कई संबंध निज़ी कारणों से टूटे और इसकी खबरें सार्वजनिक होती थीं।
एक तरह से इमरान खान यह बयान यौन हिंसा करने वालों के ऊपर दया दिखाने के साथ साथ उन्हें ‘तार्किक रूप’ से सही करार देने जैसा है। यौन हिंसा की मानसिकता को पुरुषों की सामान्य मानसिकता कहने जैसा है, उसे ‘मानवीय’ गुण बताना है।
इमरान सार्वजिनक रूप से एक चहेता चेहरा रहे हैं, जिनके बाल बनाने के अंदाज़ से लेकर उठने-बैठने का स्टाइल वहां की अवाम को प्रभावित करती रही है। ये सब उनके राजनीति में आने के पहले से होता रहा है। अब इमरान खान मुल्क के एक अहम राजनीतिक ओहदे पर हैं। उनके बारे में ये दोनों बातें मिलाकर देखें तो यह उनके प्रभाव को और ठोस करती है। उनके बयान से जिस तरह की चर्चा शुरू हुई है उसमें आलोचना तो है, लेकिन उस बयान के अंदर पितृसत्तात्मक सोच रखने वाली आम जनता अपना तार्किक आश्रय ढूंढ रही है।
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कुल मिलाकर दूर से उन्हें देख रहे किसी व्यक्ति को ऐसा लग सकता है कि इमरान आज़ाद मर्ज़ी बनाम सामाजिक नैतिकता के दवाब में रिश्ते को ढोने वाले इंसान नहीं रहे होंगे। इस तरह के जीवन अनुभवों वाले किसी व्यक्ति से महिलाओं के पहनावे को लेकर ऐसी ओछी बात बोला जाना अटपटा है। निजी जीवन में एक मोर्चे पर एक हद तक प्रगतिशील होने और आज़ाद चुनाव की वक़ालत करने वाले पुरुष कई बार ऐसी निराशाजनक टिप्पणियां करते आए हैं। जबकि उनसे उम्मीद की जाती है कि उन्होंने अपनी शर्तों पर जीवन के फैसले लेने वाली महिलाओं को जाना होगा, उनकी उन्मुक्तता के पीछे के संघर्षों को समझा होगा। इसलिए जब वह किसी भी क्षेत्र में पेशेवर फैसले लेंगे तब उनकी सोच औरों से बेहतर होगी लेकिन यह घटना इस बात की संभावना पर सवाल उठाती है कि क्या वे निज़ी संबंधों में असल मायनों में प्रगतिशील थे? ख़ैर, इसकी प्रमाणिकता को नाप पाना दो लोगों के बीच का मामला है लेकिन एक प्रधानमंत्री का दिया ऐसा सार्वजिनक बयान निज़ी मामले तक सीमित नहीं रह जाता। एक तरह से इमरान खान यह बयान यौन हिंसा करने वालों के ऊपर दया दिखाने के साथ साथ उन्हें ‘तार्किक रूप’ से सही करार देने जैसा है। यौन हिंसा की मानसिकता को पुरुषों की सामान्य मानसिकता कहने जैसा है, उसे ‘मानवीय’ गुण बताना है।
बीती रात मैं क्लब हॉउस के एक चर्चा का हिस्सा थी, वहां कई पाकिस्तानी लोग थे जो इस मुद्दे अपनी अपनी बातें रख रहे थे। एक पाकिस्तानी महिला नज़्मा (नाम बदला हुआ) ने कहा कि इस बयान पर पुरुषों को दिक़्क़त ज्यादा होनी चाहिए अगर वे महिलाओं के लिए सेफ़ स्पेस की बात करते हैं। उन्हें दिक़्क़त होनी चाहिए कि उनके मुल्क का वज़ीर-ए-आज़म मर्दों को बेक़ाबू और बेलगाम मानता है और जो पुरुष अपने अंदर की पितृसत्तात्मक वैचारिक पोषण को बदलने की कोशिश में हैं उन्हें मशीन यानी कि रोबोट कह रहा है। इस चर्चा में कुछ पुरुष इस बात को लेकर ज़्यादा चिंतित दिख रहे थे कि इमरान ने बस पुरुषों के यौन ख्यालों की बात की। वे सवाल कर रहे थे कि ऐसे ख़्याल क्या महिलाओं को किसी अन्य महिला/पुरुष/व्यक्ति को लेकर नहीं आता है।
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चर्चा में शामिल पुरुष इस बयान को इस तरह से देखना चाहते थे कि महिलाओं को कम कपड़ों में देखकर मर्दों का ख्यालों में उत्तेजित होना सामान्य बात है और ये किसी भी तरह से यौन हिंसा को बढ़ावा नहीं देता है। चर्चा में मौजूद औरतें उन्हें फीमेल गेज़ से अपना पक्ष समझाने की कोशिश करती रहीं। वे पाकिस्तान के साथ भारत के कई रेप केसेज़ का भी ज़िक्र करती रहीं। वे महिलाओं के लिए सड़कों से लेकर काम करने की जगह किस तरह से उनके बारे में न होकर उनके शरीर और कपड़ों तक सीमित हो जाता है इस बारे में बताती रहीं। उनमें से एक पाकिस्तानी महिला जो पेशे से पत्रकार थीं, उन्होंने अपने अनुभव से कहा, “हम जब फील्ड पर काम करने जाते हैं इंटरव्यू करने से पहले सिर ढका है या नहीं ये सोचना पड़ता है। यह सोचना पेशेवर तरीक़े से मेरा काम नहीं होना चाहिए था।” एक अन्य महिला ने एक अहम सवाल रखा कि क्या जब 1980 के सालों में इमरान पार्टी, बीच, फोटोशूट या अन्य ऐसे मौकों पर किसी महिला साथ, सहकर्मी के साथ होते थे तब वे उन्हें उस रिश्ते की गरिमा से और सहमति से बाहर आकर उनके कपड़ों से उनके बारे में ऐसी सोच रख रहे होते?
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भारत में जब कबीर सिंह फ़िल्म की आलोचना हो रही थी, तब अलग-अलग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और ऑफ़लाइन भी कई चर्चाएं सुनने में आती थीं। समस्या सिर्फ़ यह नहीं है कि किसी बयान, किसी फ़िल्म द्वारा स्त्रीद्वेष से भरा संदेश दिया गया बल्कि यह है कि जब उस पर हो रही चर्चा में आप चुपचाप खड़े होकर लोगों को सुनते हैं तो पाते हैं कि कई लोग ऐसे बयानों के बचाव में जोरदार तरीक़े से खड़े हैं। वे दूसरे पक्ष के अनुभवों तक को नकार रहे हैं। किसी सार्वजिनक, शीर्ष, प्रभावशाली पद से ऐसे बयान आने का ये असर होता है कि आम जनमानस की इस मानसिकता को बल मिलता है। ये प्रतीकात्मक तरीक़े से उनके विचार को पुख़्ता करता है, उस विचार को जिसे चुनौती देने, उसके बीच रहते हुए जीवन जीने का संघर्ष महिलाएं सदियों से कर रही हैं। यह आम महिलाओं के साझा संघर्षों को हर मोड़ पर दो कदम पीछे ढकेलने जैसा है।
किसी भी तरह से की गई विक्टिम बलेमिंग महिलाओं के ‘वर्जित स्पेस’ के पहुंचने की लड़ाई को कमज़ोर करता है क्योंकि सारा ध्यान पितृसत्तात्मक सोच से प्रेरित अपराध की जड़ तक पहुंचने की जगह महिला को अपने आप को सीमित करने पर चला जाता है। यह ‘सीमित करना’ घर से आने जाने का समय, कपड़े, हंसना, बोलना, आदतें कुछ भी हो सकती हैं। ये कब किस केस में क्या होंगी यह भी पितृसत्ता ही निर्धारित करती है। जैसे तरुम तेजपाल के केस में जज ने विक्टिम को ‘विक्टिम जैसा’ यानी ‘बेचारी’ न लगने के बारे में कहा। इसलिए ऐसे सर्वजिनक बयानों देने वाले और उनका बचाव करने वाले दोनों अपनी अपनी क्षमता में इस विकृत सोच की मौजूदगी के जिम्मेदार हैं।
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