दौर-ए-कोरोना में पढ़ते हुए मुझे कही ‘चारुलता’ का ज़िक्र मिला। रवींद्रनाथ टैगोर की लिखी कहानी ‘नौष्टे नीड़’ पर बनी फ़िल्म ‘चारुलता’, जिसे सत्यजीत रे ने अपने ‘विंडो विज़न’ से बड़ी खूबसूरती से एक स्त्री के घर के भीतर अपनी बनाई सीमित दुनिया, उसकी रचनात्मकता को बड़े कलात्मकता से प्रस्तुत किया। महज़ एक खिड़की के माध्यम से भीतर और बाहर की दो बिल्कुल भिन्न दुनिया के बीच झूलता एक स्त्री का एकाकीपन, जिसमें एकांत है,लेकिन उसमें भी रचनात्मकता है, सोचने-समझने की कलात्मकता है। खिड़की से बाहर है निरंतर चलने वाली एक साधारण दुनिया। उससे परे है सामान्य सी लगने वाली एक स्त्री की दुनिया। सीमित सी दिखती हुए भी बड़ा दायर समेटे हुए हैं एक खाली दोपहर में कोयल की आवाज़ ने चारुलता के हाथ कलम और कागज़ की ओर बढ़ा दिए थे। स्याही से भरी दवात और भीगी कलम उठा कर उसने लिखा, ‘Village of A Cuckoo’ पर लिखने के बाद उसके मन में जाने क्या आया कि उसने दूसरा कोरा उठाया और उस पर लिखा ‘Lament of a Cuckoo.’
चारुलता के पास सोचने का एकांत था। खिड़की के पास खड़े हाथ में छोटा सा दूरबीन लिए वह खिड़की के बाहर का दृश्य देखती। एक कुलीन परिवार की गृहणी के तौर पर हमेशा वह बड़ी-बड़ी दीवारों से घिरी रहती या काम में व्यस्त रहती। लेकिन खिड़की के पास जाकर उसे एक चलता फिरता सजीव जीवन देखने को मिलता है जो उसे आकर्षित करता था, जो दूर था। पास थी तो खिड़की जिसके पास खिड़की हो, वह एकाकी नहीं होता हां, इतना एकाकी जरूर होता है कि वह खिड़की के पास चला जाता है।
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चारुलता के पास तो दुनिया को देखने के लिए एक रचनात्मकता का चश्मा था। कोरोना काल में चारुलता जैसी रचनात्मकता हर किसी के पास हो ऐसी सुविधा भी मुश्किल है या वह दूरबीन ही जो प्रतिकूल समय में भी सकरात्मकता देखती हो। बीते कुछ समय में असल जीवन में परिस्थिति बहुत नई और विकट थी। कोरोना काल ने लगभग सभी की जीवनशैली पर दीर्घकालिक प्रभाव डाला। कामकाजी महिलाएं, ऑफिस में काम करनेवाले, स्कूल जाते बच्चे, दिहाड़ी मजॉदूर, पार्ट टाइम जॉब करनेवाली लोग सभी वर्क फॉर्म होम की नई परंपरा को अपनाने के लिए मजबूर हुए। अनलॉक लॉकडाउन के सीधे असर ने हमारी दिनचर्या ही नहीं खान-पान, स्वास्थ्य सबसे ज्यादा मानसिक स्वास्थ्य और कार्यशैली में दीर्घकालिक परिवर्तन किए।
इस समय काम करने की शैली में जबरदस्त प्रभाव आया। इससे पहले ऐसा परिवर्तन कभी नही रहा। कोई भी इस बड़े बदलाव के लिए तैयार नही था। वर्क फॉर्म क्या होता था? इस वाक्य से लगभग सभी परिचित नहीं थे। लेकिन अब यह एक झटके में सब की ज़ुबान पर एक नारे की तरह सुना जा सकता था। औरतों के लिए तो फर्क फॉर्म होम ओर वर्क टू होम में कोई खास फर्क नहीं था बल्कि औरतें घर में बने रहने की एक सामान्य शैली से पहले ही अवगत थीं तो उन्हें घर में रहना बहुत बड़ा टास्क नहीं लगा। दिक्कत थी कामकाजी महिलाओं लड़कियों के अनिश्चित भविष्य पर लटकती तलवार का। उनका सामान्य रूप से सर्वजनिक जीवन में फिर से लौटना अनलॉक के बाद भी अभी भी बड़ी चुनौती है।
एक बड़ी संख्या में कामकाजी स्त्रियों ने महामारी के कारण और बढ़ते काम के प्रेशर की वजह से नौकरियों को छोड़ा। पुरुषों के लिए अब सुबह-सुबह की भागदौड़ का सिलसिला खत्म हुआ। कामकाजी पुरुषों को लॉकडाउन में बस एक कमरे से दूसरे कमरे तक कि दूरी तय करनी थी। नाश्ता कर भागने की होड़, जूतों में पॉलिश है, कपड़ो की इस्त्री हुई या नहीं इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं थी। बच्चे देर तक चद्दर तानकर सो सकते थे। वे स्कूल बस के पीछे भागना भूल चुके थे।
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लेकिन इस समय कुछ नई आदतों को शामिल किया तो कुछ गलत आदतों ने भी कब्जा किया। पढ़ाई-लिखाई ठप्प पड़ जाने से बच्चों के बीच वीडियो गेम की पैदा हुई नई आदत ने उनके अंदर गुस्सा बेचैनी, हाइपरटेंसन जैसी समस्याओं को ईजाद किया। अब स्क्रीन के आगे बैठने की आदत हमारे काम का हिस्सा बन चुकी है। वर्क फ्रॉम होम और काम के बढ़ते प्रेशर से घर के बाकी सदस्यों को भी परेशानी होती। एक लंबे समय घर के भीतर बने रहने और अन्य सदस्यों से तारतम्य बनाने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। जब सभी सदस्य एक ही कमरे तक सीमित हो, हर गतिविधि एक दूसरे को प्रभावित करने लगे तो यह समस्या काफी बढ़ जाती है। पहले आप सामान्य रूप से एक दूसरे के दखल के बिना काम कर सकते थे। अब घर की दहलीज़ तक बंधना, किसी से मिलने जुलने पर भी प्रतिबंध लग चुका था।
कोरोना काल में चारुलता जैसी रचनात्मकता हर किसी के पास हो ऐसी सुविधा भी मुश्किल है या वह दूरबीन ही जो प्रतिकूल समय में भी सकारात्मक देखती हो।
इस समय हमारे सभी काम ऑनलाइन और स्क्रीन से घिरे हुए थे। ऑफिस का काम सुचारू रूप से हो सके इसके लिए वाई-फाई की सुविधा की गई। हम एक क्लिक और स्क्रीन से चारों तरफ से घिरे हुए हैं। किसी से मिलना हो या बात करनी हो वीडियो कॉल्स करना सुविधाजनक लगने लगा। सहूलियत के बाद भी आए कुछ परिवर्तनों ने हमारे शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव छोड़े। फोन, टीवी, लैपटॉप, वीडियो गेम पर बहुत समय बिताना हमारे स्वास्थ्य और व्यवहार के लिए परेशानियां पैदा करने लगा। लॉकडाउन के बाद आंखों गर्दन, पीठ से जुड़ी दिक्कतें एक आम बात थी। पीठ, कमर दर्द की समस्या ये सभी समस्याएं जो किसी न किसी रूप में लंबे समय तक बनी रहेंगी। ऑफिस और घर के काम एक जगह बैठे रहने और गलत पोजिशन में ज्यादा समय तक रहने से और बढ़ गई है। हमारी रोज की आदतों में जबरदस्त बदलाव हुआ है। पहले जैसी भागदौड़ की जिंदगी एकदम से रफ्तार इतनी धीमी पड़ गई थी वह आलस में तब्दील हो गई। मानसिक बेचैनी, ऊब और अरुचि जैसे लक्षण बच्चो में ही नही हर वर्ग के लोगो में साफ-साफ नज़र आए।
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सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट इस समय पर बिल्कुल सही लागू होता है। हर किसी के लिए यह समय हर पल एक चुनौती जैसा था। घर के भीतर बने रहना भी किसी चुनौती से कम नहीं था। हर सुबह एक ही तरह की मालूम होती। वही रोज़ के काम, जो सुनिश्चित थे। वही दोहराव, ठहराव जिससे इंसान खुद अवसाद से घिर रहा था। काम के कुछ घंटे सुनिश्चित रहते या कभी स्क्रीन पर किसी जरूरी मीटिंग में में हिस्सा लेना होता, बहस में शामिल होना ज़रूरी हो गया था। ऑनलाइन क्लास शुरू होते ही बच्चों की पढ़ाई सामान्य रूप से रहे इसका ध्यान रखना होता।
महामारी के दौरान एक अच्छा बदलाव कुछ घरों में ये भी देखने को मिला की स्त्री और पुरुषों के कामों का सहज आदान- प्रदान देखने को मिला। अब पुरुष रसोई में हाथ आजमा रहे थे। बच्चों को संभाल रहे थे। सबके साथ रहने में उन्हें भरपूर समय दिया लॉकडाउन ने जो वह अपने व्यस्तता के चले नहीं कर पा रहे थे। घर से काम करने वाली महिलाओं को घर और ऑफिस के कामों में मदद मिलने लगी। सबके काम की जिम्मेदारी बांट दी जाती या मिलजुल कर काम को निपटाया जाता। लैंगिक भूमिका का आदान-प्रदान थोड़े ही समय लेकिन मिला ज़रूर। घर और ऑफिस के बढ़ते काम की जिम्मेदारी थी लेकिन आधी-आधी। पहले जैसे घर के कभी खत्म न होने वाले कार्य, ऑफिस के काम मुश्किल और डिस्टर्ब करने वाला तो था ही। घर में खाने, सफाई के अलावा बच्चों और बुजु़र्गों की जिम्मेदारी, देखभाल भी थी। सभी कार्यों और स्वास्थ सुरक्षा के बीच तालमेल बैठाना जरूरी लगने लगा।
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कोरोना काल के एक लंबे समय को व्यतीत करने का सभी ने अपना ढंग ईजाद किया। लूडो, कैरम, चेस बोर्ड जो धूल खा रहे थे कही अब सभी का पसंदीदा बन गया। फिल्मों, सीरीज़ और किताबों, विडियोज़ बनाकर इस समय का उपयोग किया। इस्मत चुग़ताई, अमृता प्रीतम से लेकर मामूली चीजों के देवता तक, हॉलीवुड-बॉलीवुड से लेकर कोरियन ड्रामा का नया चस्का लगा। उद्रे हेपबर्ना, ऑलिवर ट्विस्ट,’लव ऑफ कालरा टाइम’, मारवल्स, हैरी पॉटर की सीरीज़ से लेकर नेटफ्लिक्स की नई सीरीज तक। किसी के लिए ये समय हॉबी और अपने मन-पसंद कामो के लिए भरपूर समय भी मिला।
कोरोना के नए नए वेरिएंट और जरूरी एहतियातों के बीच जीवन शैली धीरे धीरे ही सही लेकिन दोबारा पटरी पर लौट रही है। अब लोग चेहरे से नहीं, मास्क से पहचाने जाने लगे हैं। एक इंच की मुस्कान मास्क के पीछे जरूर छिपी हो लेकिन आंखों की दबी हंसी लोगों से बात करने का नया जरिया बन सकती है। लॉकडाउन के बाद भी घर से काम करने की सुविधा को बड़ी कंपनियों ने अपनाया है। खाने-पीने की खरीदारी, शॉपिंग, बिल भरना, नया बिजनेस कुछ भी अब घर बैठ कर करना अभी भी हमारी ज़रूरत बन रहेगा। कोरोना महामारी ने इस दुनिया को देखने का एक नया नजरिया दिया है। ये दुनिया और हमारे जीने का तरीका पहले से काफी बदल चुका है। इस वक्त ने हमारी जीवनशैली ही नहीं नज़रिया भी बदला।
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तस्वीर : रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए