इंटरसेक्शनलजेंडर मेडिकल दुनिया में व्याप्त लैंगिक असमानता और पूर्वाग्रह महिलाओं का कितना नुकसान कर रही है

मेडिकल दुनिया में व्याप्त लैंगिक असमानता और पूर्वाग्रह महिलाओं का कितना नुकसान कर रही है

इस व्यवस्थित पितृसत्ता के खिलाफ विरोध करने वाली महिलाओं को अक्सर नैतिकता का ज्ञान दिया जाता है। शरीर की तकलीफ पर नियंत्रण न कर पाने पर, कभी-कभी उन्हें तर्कहीन और गैर-जिम्मेदार बताकर महिलाओं की  ‘तकलीफ़’ को ही सामान्य बता दिया जाता है।

मेडिकल साइंस के क्षेत्र में जेंडर एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है। सालों से मेडिकल शोध रोगों को एक निश्चित नज़रिए से देखता आया है जिसमें महिलाओं के शरीर कसे जुड़ी विशेष समस्याओं को नज़रअंदाज़ किया गया है। मेडिकल अनुसंधान में सदियों से महिलाओं के शरीर से जुड़े समस्याओं को महत्व देने और उन्हें शामिल करने में चिकित्सा जगत में कमी रही है। मेडिकल पत्रिका द लैनसेट में छपे एक लेख के अनुसार क्लिनिकल ​​और प्रीक्लिनिकल अध्ययनों से पता चलता है कि मेडिकल के क्षेत्र में जेनेटिक, सेलुलर, बायोकेमिकल और शारीरिक स्तरों पर व्यापक लैंगिक अंतर हैं। अमूमन महिलाओं के लिए किसी भी रोग से जुड़े दर्द, असहजता और तकलीफ को प्राकृतिक तौर पर अधिक सहने की क्षमता से जोड़ दिया जाता है। इसके अलावा, अलग-अलग चिकित्सा के आविष्कार और शोध में वैज्ञानिक के अलावा पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण भी रहा है। 

उदाहरण के लिए, हिस्टीरिया का इतिहास प्राचीन काल के दस्तावेज़ों, लिखे गए किताबों और किए गए शोधों से लगाया जा सकता है। महिलाओं के शरीर में हिस्टीरिया का पहला विवरण प्राचीन मिस्र में 1900 ईसा पूर्व पाया जाता है। मिस्र की संस्कृति में, गर्भ को शरीर के बाकी हिस्सों को नकारात्मक रूप में प्रभावित करने में सक्षम माना जाता था। इसलिए एक समय पर हिस्टीरिया को ‘विधवा रोग’ के रूप में भी संदर्भित किया गया। इसके पीछे यह माना जाता था कि चूंकि विधवा होने के बाद महिला यौन संबंध में शामिल नहीं हो सकती, उनका वीर्य विषैला हो जाता है। मध्य युग के दौरान, महिलाओं में हिस्टीरिया के पीछे किसी अमानविक शक्ति का कारण बताया जाने लगा। 16वीं और 17वीं शताब्दी में, महिलाओं में यौन संबंध की कमी, गर्भाशय में तरल पदार्थ जमना और गर्भाशय का महिला के शरीर के चारों ओर घूम परेशान करने से चिड़चिड़ापन और घुटन होना हिस्टीरिया का कारण माना जाता रहा। इस दौरान महिलाओं में हिस्टीरिया को विभिन्न अवैज्ञानिक तरीकों से ठीक करने की कोशिश भी की जाती रही। 19वीं सदी तक धीरे-धीरे यह थिओरी काफी हद तक बदल चुकी थी। लेकिन चिकित्सकों को यह मानने में समय लगा कि हिस्टीरिया पुरुषों को भी प्रभावित कर सकती है। जहां महिलाओं के लिए हिस्टीरिया को सीधे तौर पर गर्भाशय या उनके यौन जीवन से जोड़ दिया गया, वहीं पुरुषों के मामले में हिस्टीरिया से जुड़े कई शोध होने शुरू हुए। 

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महिलाओं के दर्द को कमतर आंका जाना

महिलाओं की शारीरिक तकलीफ, दर्द या अहजता को चिकित्सा की दुनिया में किस तरह से देखा जाता है, यह द लैनसेट में महिला रोगी की निजी अनुभव ‘द मेडिकल प्रैकटिस ऑफ साइलेंसिंग’ लेख में बताया गया है। लेख में वह बताती हैं कि उनके एचआईवी सलाहकार बनने के कुछ ही समय बाद, उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। इन-विट्रो फर्टिलिटी ट्रीटमेंट (आईवीएफ) के तीसरे चक्र के दौरान उन्हें पेलविक और पीठ के निचले हिस्से में गंभीर दर्द हो रहा था। वह बताती हैं कि पिछले कुछ वर्षों से एंडोमेट्रियोसिस और एडिनोमायोसिस से पीड़ित होने के कारण वह दर्द से अवगत थीं और आम तौर पर इसे हीट पैड और आईबुप्रोफेन से ही निपटाती थीं। लेकिन अस्पताल में असहनीय दर्द होने के बावजूद उन्हें अतिरिक्त दवा नहीं दी गई। चिकित्सा की दुनिया अपनी सीमाओं और पूर्वाग्रहों को स्वीकार करने के बजाय, महिलाओं से अपेक्षा करती है कि वे अपनी बीमारी को स्वीकार करके अपने जीवनशैली में बदलाव लाएँ। पितृसत्तात्मक दायरे में जकड़ी मेडिकल दुनिया में संभवतः डॉक्टर भी अपने महिला रोगियों से यही उम्मीद करते हैं। 

इस व्यवस्थित पितृसत्ता के खिलाफ विरोध करने वाली महिलाओं को अक्सर नैतिकता का ज्ञान दिया जाता है। शरीर की तकलीफ पर नियंत्रण न कर पाने पर, कभी-कभी उन्हें तर्कहीन और गैर-जिम्मेदार बताकर महिलाओं की  ‘तकलीफ़’ को ही सामान्य बता दिया जाता है। भारत में भी साधारणतः मेडिकल दुनिया ऐसी ही अवधारणाओं के तहत चलती है जहां लिंग के आधार पर महिलाओं की स्वास्थ्य समस्याओं का इलाज होता है। गर्भवती महिलाओं के बच्चे के जन्म के दौरान दर्द या तकलीफ का डॉक्टर, नर्स या पैरामेडिकल स्वास्थ्यकर्मी का अश्लीलता से मज़ाक उड़ाना या उनके साथ शारीरिक और मौखिक हिंसा की घटनाएं कई बार खबरों की सुर्खियों में आ चुकी हैं। 

इस व्यवस्थित पितृसत्ता के खिलाफ विरोध करने वाली महिलाओं को अक्सर नैतिकता का ज्ञान दिया जाता है। शरीर की तकलीफ पर नियंत्रण न कर पाने पर, कभी-कभी उन्हें तर्कहीन और गैर-जिम्मेदार बताकर महिलाओं की  ‘तकलीफ़’ को ही सामान्य बता दिया जाता है।

मैं अपनी मां से उनके गर्भावस्था में एपिड्यूरल पद्धति और बच्चे के जन्म से तकलीफ और उस दौरान डॉक्टर से शांत रहने और धैर्य रखने की सलाह की कहानी कई बार सुन चुकी हू्। यह मेडिकल दुनिया की विडम्बना ही है कि महिलाओं से खुद बीमार होने के बावजूद, उन्हें पत्नी और मां की अपनी सामाजिक भूमिकाओं को निभाने, और एक महिला के अनुरूप अपने भावनाओं पर नियंत्रण रखने की उम्मीद की जाती है। अपने तकलीफों के लिए प्रसूतिविशेषज्ञ के पास जाने पर महिलाओं को आम तौर पर सेक्सिस्ट सवाल और बेतुके जवाब सुनने को मिलते हैं। अविवाहित महिलाओं के यौन जीवन पर सवाल किए जाते हैं और आम तौर पर शादी के बिना जीवन में यौन संबंध होना चिकित्सक के उम्मीद के विपरीत होता है। अक्सर पीरियड में असहनीय दर्द होने के बावजूद, डॉक्टर खुद यह बताते हैं कि दर्द होना स्वाभाविक है और उसे बर्दाश्त करने की हमें आदत डाल लेनी चाहिए।  

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पितृसत्ता और महिला स्वास्थ्य

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने साल 2019 में वैश्विक स्वास्थ्य के लिए दस खतरों की पहचान की थी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से लैंगिक असमानता उनमें से एक नहीं है जबकि रोगी का लिंग, चिकित्सा और देखभाल तक उसकी पहुंच को प्रभावित करती है। स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाले और रोगी के बीच जेंडर, वर्ग, शिक्षा या जाति जैसे भेद भी इसमें निर्णायक होते हैं। साधारणतः स्वास्थ्य देखभाल और चिकित्सा के मामलों में महिलाओं में जानकारी की कमी मान ली जाती है। उन्हें अपने रोग को लेकर शर्मीला बताया जाता है जिसमें अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर हिचकिचाहट होती है। ऐसे में, कई बार महिलाओं को अपने रोग के मामले में भी निर्णायक नहीं समझा जाता। इसके विपरीत पुरुषों को खुद से निर्णय लेने वाले साहसी और खुले विचारों वाला माना जाता है जबकि असल में, पितृसत्तात्मक मानदंड के कारण सामाजिक और आर्थिक रूप से पुरुष स्वतंत्र होते हैं और इसलिए निर्णय लेना उनके लिए सहज और स्वाभाविक होता है। 

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं की तुलना में पुरुषों को अधिक महत्व दिया जाता है। इससे एक प्रणालीगत असमानता विकसित और मजबूत होती है जो महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को नज़रअंदाज़ करती है। इस तरह कई बार वे अपने अनुभव बताने से खुद को प्रतिबंधित भी महसूस कर सकती हैं। अपने निजी जीवन में मेडिकल दुनिया के कई पूर्वाग्रहों को मैंने बहुत करीब से देखा और जाना है। कुछ साल पहले मैं अपनी जेनेटिक समस्या के लिए कोलकाता के काफी चर्चित त्वचा विशेषज्ञ को दिखा रही थी। उन्होंने बताया था कि इस रोग का कोई स्थायी इलाज नहीं है। इसके बाद उन्होंने जानकारी दी कि हाल ही में एक ऐसी चिकित्सा का आविष्कार हुआ है जो ऐसे रोग में लाभदायक साबित हो सकते हैं लेकिन इसके दुष्प्रभाव से महिलाओं में गर्भधारण करने में समस्याएं होती है या महिलाएं कभी भी गर्भवती नहीं हो पाती। इसके बाद, उन्होंने मेरी राय या निर्णय जाने बगैर ही यह निश्चय कर लिया कि इस रोग का इलाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने सीधे-सीधे यह बता दिया कि मेरी उम्र की अविवाहित लड़कियों के लिए वह ऐसी चिकित्सा नहीं करते।

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डबल्यूएचओ ने स्वास्थ्य देखभाल में लैंगिक पूर्वाग्रह और भेदभाव पर एक समीक्षा जारी की थी। इस समीक्षा में पुरुषों और महिलाओं की समान बीमारियों और स्थितियों की देखभाल में लैंगिक अंतर क्यों और कैसे योगदान देता है, इसका पता लगाने के लिए दो बीमारियों टीबी और अवसाद पर शोध किए गए। भारत में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि टीबी से ग्रस्त महिलाएं अक्सर गोपनीयता और रोगी-केंद्रित देखभाल के प्रावधान वाले पारंपरिक और निजी चिकित्सकों को चुनती हैं। टीबी के रोगी को अमूमन हमारे देश में हीन नज़रों से देखा जाता है और यह पुरुषों और महिलाओं को बिलकुल अलग सामाजिक तरीके से प्रभावित करता है। इस शोध में शामिल हुई महिलाओं को सामाजिक रूप से बहिष्कृत होने, तलाक, और अविवाहित महिलाओं को शादी के लिए साथी के न मिल पाने का डर था। 

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं की तुलना में पुरुषों को अधिक महत्व दिया जाता है। इससे एक प्रणालीगत असमानता विकसित और मजबूत होती है जो महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को नज़रअंदाज़ करती है।

वहीं इसके विपरीत, पुरुषों को बीमारी के कारण आर्थिक नुकसान के परिणामों की चिंता थी। मेडिकल दुनिया में व्याप्त लैंगिक अंतर या महिलाओं और पुरुषों के प्रति अलग रवैये को मैं अपने माँ और पिता के चिकित्सा के दौरान बेहतर समझ पाई थी। निजी जीवन के अनुभव साझा करूं तो, मेरे पिता के कैंसर के चिकित्सा के दौरान उन्हें काउंसिलिंग की सलाह दी गई थी। वहीं मेरी मां के कैंसर के इलाज के समय, मेरे आग्रह करने के बावजूद, डॉक्टर ने इससे साफ मना कर दिया था। किमोथेरपी के शुरुआत से पहले इसके दुष्प्रभावों को बताने के दौरान जहां मेरे पिता को कीमो से होने वाले शारीरिक कष्ट और नुकसान बताए गए, वहीं मेरी मां को बाल झड़ने के अलावा किसी भी विशेष शारीरिक कष्ट की जानकारी नहीं दी गई। मेरे पढ़े-लिखे होने और चिकित्सा की समझ होने के बावजूद, मेरी मां के इलाज  के दौरान किसी पुरुष साथी या रिश्तेदार की कमी को डॉक्टर से लेकर अस्पताल कर्मचारियों ने खुलकर ज़ाहिर किया। 

डबल्यूएचओ के शोध में पुरुष और महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा देखभाल के अलग-अलग पैटर्न भी दर्ज किए गए। हालांकि समीक्षा में रोगी को परामर्श देने वक़्त बायोमेडिकल जानकारी में कोई लैंगिक अंतर नहीं पाया गया, लेकिन महिला चिकित्सकों ने अपने समकक्ष के तुलना में काफी अधिक सक्रिय भागीदारी दिखाई। उन्होंने रोगी से सकारात्मक बातचीत की, मनोवैज्ञानिक परामर्श दिया, भावनात्मक रूप से बातचीत में शामिल हुई और औसतन 2 मिनट यानि 10 प्रतिशत तक रोगियों के साथ अधिक समय बिताया। वैश्विक स्वास्थ्य में लैंगिक असमानता को खराब स्वास्थ्य से जोड़ने वाले तथ्य हर युग से मौजूद है। लेकिन संभवतः वैश्विक स्वास्थ्य समुदाय ने लैंगिक समानता को अपना अनिवार्य हिस्सा नहीं बनाया है। चिकित्सा की दुनिया में महिलाओं और पुरुषों को सिर्फ अलग नजरिए से ही नहीं देखा जाता है बल्कि कई बार डॉक्टर, नर्स और पैरामेडिकल कर्मचारी खुद पितृसत्तात्मक सवाल करते हैं और सलाह या जवाब देते हैं। 

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द गार्डियन में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के किए गए शोध में पाया गया कि सार्वजनिक स्थानों पर 45 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में केवल 39 फीसद महिलाओं को कार्डियक अरेस्ट होने पर सीपीआर दिया गया। हाल ही में जारी हुई विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकीय रिपोर्ट अनुसार, भारत में महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक सालों तक जीती तो हैं लेकिन स्वस्थ जीवन नहीं जीती हैं। ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को मेडिकल प्रयोगों और शोधों से दूर रखने से ऐसी दवाओं का आविष्कार हुआ है जो उनके लिए कम सुरक्षित या कम प्रभावी है। जैसे, साल दर साल सीपीआर के लिए पुरुष डमियों के प्रयोग से इस धारणा का जन्म होना कि स्तनों के होने से सीपीआर की प्रक्रिया कठिन बन जाती है। पीरियड में दर्द को आम मानने के कारण एंडोमेट्रियोसिस से पीड़ित महिला में रोग की पहचान में ही कई बार सालों लग जाते हैं। ऐसी सामाजिक व्यवस्था जहां भेदभाव आम हो और पुरुषों से स्वाभाविक रूप में महिलाओं का महत्व कम हो, वहाँ जाति, नस्ल, धर्म, और आर्थिक क्षमता जैसे कारक जुड़कर इसे अधिक कठिन और जटिल बना देते हैं। हालांकि भारत में गांवों में आशा, आंगनवाड़ी कर्मचारी या विभिन्न महिला केन्द्रित स्वास्थ्य योजनाओं के माध्यम से महिलाओं तक बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था पहुंचाने की कोशिश हो रही है लेकिन पूरी तरह से पूर्वाग्रह मुक्त चिकित्सा होने में अभी लंबी दूरी तय करना बाकी है। 

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तस्वीर:  श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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