इंटरसेक्शनलजेंडर अबॉर्शन का चयन एक निजी और बुनियादी अधिकार होना चाहिए

अबॉर्शन का चयन एक निजी और बुनियादी अधिकार होना चाहिए

राज्य और संस्थाओं की ज़िम्मेदारी केवल यौन और प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल के साथ सुरक्षित अबॉर्शन प्रदान करने की सुविधा और उसके बारे में जानकारी देने तक सीमित हो सकती है। इसके अलावा चयन के मामलों में कोई भी हस्तक्षेप न केवल समानता के विरूद्ध है बल्कि लोगों की निजता के मौलिक अधिकारों का उल्लघंन भी है।

35 वर्षीय स्वाति अपने बच्चे की कमज़ोर सेहत के लिए बार-बार खुद को दोष देती रहती हैं। दरअसल जब उनका यह बच्चा होने वाला था, उस वक्त वह मां बनने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थीं। उनके अनुसार वह अपने पहले और दूसरे बच्चे में एक अंतर चाहती थी जिसके कारण जब वह दूसरी बार गर्भवती हुईं तो वह गर्भसमापन का विकल्प चुनना चाहती थीं। लेकिन परिवार और पति की मर्जी न होने के कारण उन्होंने अपनी प्रेग्रनेंसी जारी रखी। इस दौरान वह पूरे वक्त रोती रहती थीं, अपना बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखती थीं जिसका असर उनके साथ-साथ अजन्मे भ्रूण के स्वास्थ्य पर भी पड़ा। आज वह अपने दूसरे बच्चे की कमज़ोरी के लिए केवल खुद को ही ज़िम्मेदार मानती हैं। स्वाति जैसे अनेक लोग हैं जिनके पास अबॉर्शन का अधिकार नहीं होता। ये लोग इच्छा होने के बावजूद भी गर्भसमापन का फैसला नहीं ले सकते। संस्कृति, नैतिकता, पितृसत्ता और बेटे की चाह जैसे कई कारण इस फैसले को प्रभावित करते हैं।

कानून की वैधता के बावजूद भी हमारे देश में गर्भसमापन यानि अबॉर्शन के मुद्दे को स्वास्थ्य से न जोड़कर इसके रुढ़िवादी सामाजिक पहलू को ज्यादा तरहीज दी जाती है। महिलाओं, ट्रांस, नॉन बाईनरी लोगों को उनके शरीर और प्रजनन संबधी विषयों पर उनकी इच्छा और चयन की कोई प्राथमिकता नहीं दी जाती है। लोगों की बुनियादी दैहिक स्वतंत्रता को हमारा पितृसत्तात्मक समाज न केवल खत्म करता है बल्कि उन्हें उनके मूल अधिकारों से भी वंचित रखता है। गर्भसमापन को ‘हत्या और पाप’ बताकर संस्कृति और पंरपरा के खिलाफ बताया जाता है जबकि यही पितृसत्तात्मक समाज कन्या भ्रूण हत्या के मामले में न केवल चुप्पी अपनाता है बल्कि गैर-कानूनी तरीके से अबॉर्शन की प्रक्रिया को भी अपनाता है। 

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गर्भसमापन पर इतने सवाल क्यों

विकासशील देश हो या विकसित देश, हर जगह अबॉर्शन को लेकर एक जैसी मानसिकता देखने को मिलती है। भारत में रुढ़िवादी, पितृसत्तात्मक मानसिकता के तहत गर्भसमापन वैध होने के बावजूद इसे एक एक अपराध माना जाता है। अबॉर्शन का विकल्प चुनने वाले लोगों को बुरा ठहराकर ‘अपराधी और हत्यारा’ तक कहा जाता है। उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। ‘मां की ममता’ के भावनात्मक पहलू का इस्तेमाल कर उन पर दबाव बनाया जाता है। पितृसत्तात्मक समाज और परिवार के लिए यह बिल्कुल मायने नहीं रखता कि सामने वाला क्या चाहता है। दूसरी ओर यही पंरपरावादी परिवार सुविधाजनक होकर कन्या भ्रूण हत्या के लिए गैरकानूनी तरीके से न केवल लिंग परीक्षण करवाते हैं बल्कि असुरक्षित गर्भासमापन के तरीकों को भी अपनाते हैं। 

क्या है भारत में गर्भसमापन से संबधित कानून

इसी वर्ष मार्च में भारतीय संसद में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेंग्नेंसी (अमेंडमेंट) ऐक्ट 2020 को मंज़ूरी दी गई। इस ऐक्ट के आने के बाद देश में गर्भसमापन की समयसीमा को बढ़ाया गया। यह ऐक्ट कुछ शर्तों के आधार पर गर्भासमापन की अनुमति देता है। गर्भावस्था मे अगर गर्भवती महिला के जीवन को खतरा है, यदि गर्भावस्था बलात्कार का परिणाम है, यदि यह संभावना है कि जन्म के बाद बच्चे को गंभीर शारीरिक व मानसिक परेशानियों का सामना करना होगा या गर्भनिरोधक विफल रहा है। इसके अतिरिक्त नाबालिग और मानसिक परेशानियों का सामना कर रही महिलाओं के गर्भासमापन के लिए माता-पिता की लिखित सहमति की आवश्यकता होती है। कुछ मामलों में शर्तों के साथ 24 हफ्ते के बाद भी गर्भसमापन करावाया जा सकता है। हालांकि इस पर फैसला लेने की ज़िम्मेदारी मेडिकल बोर्ड पर होगी। हालांकि भारत में मौजूदा कानून में एलजीबीटी समुदाय से आने वाली महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान नहीं दिया गया है। ट्रांस, नॉन-बाईनरी, इंटरसेक्स लोगों का मौजूदा कानून में कहीं कोई ज़िक्र भी नहीं किया गया है। 

राज्य और संस्थाओं की ज़िम्मेदारी केवल यौन और प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल के साथ सुरक्षित अबॉर्शन प्रदान करने की सुविधा और उसके बारे में जानकारी देने तक सीमित हो सकती है। इसके अलावा चयन के मामलों में कोई भी हस्तक्षेप न केवल समानता के विरूद्ध है बल्कि लोगों की निजता के मौलिक अधिकारों का उल्लघंन भी है।

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अबॉर्शन के सामाजिक-आर्थिक आंकड़े और एंजेसियों की अनुमति

भारत में अबॉर्शन को लेकर सामाजिक और आर्थिक पहलू भी हैं। भारत में मातृत्व मृत्यु का तीसरा बड़ा कारण असुरक्षित गर्भसमापन है। देश में आज भी परिवार-नियोजन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले साधनों का प्रयोग बहुत कम होता है जिसका परिणाम कई बार असुरक्षित गर्भसामपन के रूप में सामने आता है। बड़ी संख्या में अबॉर्शन केस रजिस्टर्ड ही नहीं होते हैं। गटमैचर इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के मुताबिक युवा महिलाओं के 78 फीसद अनचाहे गर्भ के लिए असुरक्षित गर्भसमापन का इस्तेमाल किया जाता है। हर साल 4,50,000 असुरक्षित गर्भसमापन के बाद होने वाली जटिलताओं से देखभाल की आवश्यकता होती है। यदि भारत में सुरक्षित गर्भसमापन किया जाए, उसके बाद सही देखभाल की जाए तो इससे संबधित मृत्यु में 97 फीसद की गिरावट देखी जा सकती है। लैंसेट की साल 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2015 के दौरान 15.6 मिलियन गर्भपात हुए, जिनमें से 78 प्रतिशत स्वास्थ्य सुविधाओं के बाहर किए गए। एशिया सेफ अबॉर्शन पार्टनरशिप के एक सर्वे के अनुसार देश में 80 प्रतिशत महिलाएं देश में अबॉर्शन के संबधित कानून से अपरिचित पाई गई।

बच्चा पैदा करने और न करने का निर्णय केवल एक महिला का होना चाहिए। अंवाछित गर्भ और असुरक्षित गर्भासमापन का उपयोग उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति को कमज़ोर करता है। राज्य और संस्थाओं की ज़िम्मेदारी केवल यौन और प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल के साथ सुरक्षित अबॉर्शन प्रदान करने की सुविधा और उसके बारे में जानकारी देने तक सीमित हो सकती है। इसके अलावा चयन के मामलों में कोई भी हस्तक्षेप न केवल समानता के विरूद्ध है बल्कि लोगों की निजता के मौलिक अधिकारों का उल्लघंन भी है।

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तस्वीर साभार: Time Magazine

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