इंटरसेक्शनलहिंसा 16 Days Of Activism: बात महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की

16 Days Of Activism: बात महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की

'मुझे नहीं मेरे अधिकारों को सुरक्षित करो’ के तहत क्रिया ने अपने अभियान की शुरुआत की है। इस साल बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में ज़िला स्तर पर जन-जागरूकता के लिए कार्यक्रम कर रही हैं।

महिलाओं के खिलाफ़ होने वाली हिंसा की बातें धरती के हर कोने से आती है। पूरी दुनिया में महिलाओं के साथ होने वाला दुर्व्यवहार एक बीमारी की तरह समाज में स्थापित हो चुका है। हर साल महिला हिंसा के खिलाफ आवाज बुलंद करने के लिए विश्व के सरकारी व ग़ैर-सरकारी संगठन ‘16 दिवसीय अभियान’ मनाते हैं। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य महिला हिंसा के विषय के प्रत्येक पहलू पर बात करना और इसके समाधान निकालना है। इस अभियान के तहत देश-दुनिया के तमाम संगठन एक छतरी के नीचे आकर हिंसा के खिलाफ अपनी मुहिम की एकजुटता दिखाते हैं। महिला हिंसा की समस्या का समाधान निकालने की ओर कदम बढ़ाते हैं।

प्रत्येक वर्ष की तरह इस 16 दिवसीय अभियान से भारत की अनेक संस्थाएं जुड़ी है। इन्ही संस्थाओं में से एक है-क्रिया। यह नई दिल्ली स्थिति एक नारीवादी संस्था है। अंतरराष्ट्रीय थीम ‘ऑरेंज द वर्ल्डः महिला हिंसा को अभी खत्म करो’ के तहत क्रिया ने एक महत्वपूर्ण मुद्दे को उजागर किया है। ‘मुझे नहीं मेरे अधिकारों को सुरक्षित करोके तहत क्रिया ने अपने अभियान की शुरुआत की है। इस साल बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में ज़िला स्तर पर जन-जागरूकता के लिए कार्यक्रम कर रही हैं। क्रिया के इस वर्ष के कैंपेन में उन मद्दों को केन्द्र में रखा गया है जो हिंसा की मोटी चादर को परत दर परत अलग करता है। क्रिया महिला सुरक्षा के नाम पर उसके अधिकारों के हनन को केंद्र में रख खासतौर से ग्रामीण भारत में महिलाओं को उनके हक और स्वतंत्रता के बारे में जागरूक कर रही है। क्रिया की इस पहल के बारे में जब हमने क्रिया टीम की बबिता से बात की तो उन्होंने इसके बारे में विस्तार से बताया। आइए जानते है क्या है ये अभियान, इसका उद्देश्य और विचार।

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बबिता कहती हैं, यह अक्सर देखा जाता है महिला हिंसा की कोई भी घटना होने के बाद महिला सुरक्षा के नाम पर नये-नये नियम, प्रावधानों की चर्चा शुरू हो जाती है। घर से लेकर सरकारी कानूनों और चुनावी वादों तक उनकी सुरक्षा के लिए पितृसत्तात्मक सोच पर आधारित कानून बनाए जाने की योजना बनाई जाती है। घर की दहलीज़ से लेकर सामाजिक स्तर तक महिलाओं के लिए पाबंदियां लागू करने का काम किया जाता है। यदि किसी महिला के साथ कोई भी घटना घटित होती है तो सबसे पहले उसे ही दोष दे दिया जाता है। सुरक्षा के नाम पर लड़कियों और महिलाओं को घर की दहलीज में कैद करने का नियम अपनाया जाता है। एक लड़की रात में बाहर नहीं जा सकती है बचपन से ही लड़कियों को हमारा समाज ऐसी कंडिशनिंग करता है। स्कूल जाती लड़की के साथ यदि कोई हिंसा या उत्पीड़न की घटना होती है, तो सबसे पहले उसकी पढ़ाई को रोकने का नियम लागू किया जाता है। महिला सुरक्षा की अवधारणा में लोकतांत्रिक प्रक्रिया में एक नागरिक के तौर पर महिला के अधिकारों का हनन लगातार किया जा रहा है। मौलिक अधिकारों तक की उनकी पहुंच को सीमित किया जाता है। महिला सुरक्षा के नाम पर उसकी स्वायत्ता को कुचलकर उसे दोयम दर्जे का नागरिक बनाया जाता है। सुरक्षा के इस नियम के तहत महिला को घर में होने वाली हिंसा का भी सामना करना पड़ता है।

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यदि किसी महिला के साथ कोई भी घटना घटित होती है तो सबसे पहले उसे ही दोष दे दिया जाता है। सुरक्षा के नाम पर लड़कियों और महिलाओं को घर की दहलीज में कैद करने का नियम अपनाया जाता है।

क्योंकि महिला की पंसद महज एक चुनाव नहीं है

किसी भी तरह की पसंद रखना, यह व्यक्ति का महज एक चुनाव भर नहीं है। एक व्यक्ति को पूरा अधिकार है कि वह अपनी पसंद से अपना जीवन जीने का तरीका चुनें। बात जब भी महिला की पसंद की आती है तो पितृसत्ता की सुरक्षा की दीवार हमेशा उसके बीच आ जाती है। कपड़े से लेकर हर छोटी से छोटी चीज के चुनाव के बीच एक लड़की या महिला रूढ़िवादी संस्था को अपनी पसंद के बीच पाती है। महिला या लड़की क्या पहनेंगी, किस विषय की पढ़ाई करेंगी, कौन सा पेशा चुनेंगी, किससे से प्यार करेंगी और शादी किससे करेंगी जैसे फैसलों में उसकी पंसद कोई मायने नहीं रखती है। पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाली हिमांशी को नौवी कक्षा में उसके परिवार ने गणित विषय सिर्फ इसलिए नहीं चुनने दिया था क्योंकि उसे लड़कों के समूह के साथ बैठकर अपनी क्लॉस देनी पढ़ती। लड़को से सुरक्षा की वजह से एक लड़की को उसकी पसंद की पढ़ाई, शिक्षा के अधिकार को सही तरह से प्रयोग करने से रोका गया।

तस्वीर साभार : फ़ेसबुक (बिहार में अभियान के तहत दीवार लेखन)

जीवन के हर स्तर पर लड़की व महिला को उसकी पंसद के काम करने से रोका जाता है। महिला की पसंद व इच्छा को सुरक्षा के दायरे से बाहर का तय करार दिया जाता है। यदि कोई लड़की या महिला अपनी पंसद के काम के दौरान किसी अनुचित व्यवहार व घटना का सामना करती है तो उसकी पंसद पर सबसे पहले दोष लगाया जाता है। उसके कपड़ों के चुनाव, देर रात तक बाहर रहना को उसके साथ होने वाली हिंसा का जिम्मेदार ठहराया जाता है। विक्टिम ब्लेमिंग की यह सोच महिला के आत्मविश्वास पर बहुत ज्यादा बुरा असर डालती है। 

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‘मुझे नहीं मेरे अधिकारों को सुरक्षित करो’ के तहत क्रिया ने अपने अभियान की शुरुआत की है। इस साल बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में ज़िला स्तर पर जन-जागरूकता के लिए कार्यक्रम कर रही हैं।

शारीरिक स्वायत्तता किसी महिला की क्यों नहीं हो सकती

अगर कोई महिला अपनी शारीरिक स्वायत्तता, यौनिकता के अधिकार पर मुखरता से बात करती है तो उसे बुरी लड़की के तमगे दे दिए जाते हैं। महिला और लड़कियों को स्वयं की पसंद का प्रयोग करने पर उसे दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। खासतौर पर युवा महिला, लड़कियों, ट्रांस समुदाय और विकलांग महिलाओं की यौनिकता की स्वतंत्रता के नाम से उन पर प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं। महिला अपनी यौनिकता, अपनी इच्छा, पसंद व चुनाव पर बात करें तो समाज को यह बात बहुत ज्यादा अखरती है। जेंडर व सामाजिक मानदंड़ो के स्तर पर महिला की यौनिकता, उसकी पसंद व चुनाव कोई विषय ही नहीं है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के अनुसार दुनिया की आधे से अधिक महिलाओं को स्वयं के शरीर के बारे में फैसला लेने का कोई अधिकार नहीं है। महिला की यौनिकता, उसके सेक्स करने और पसंद के साथी चुनने के नाम पर महिला को हिंसा का सामना करना पड़ता है।

तस्वीर साभार : फ़ेसबुक (अभियान के तहत आयोजित हस्ताक्षर अभियान)

विश्वभर में घरेलू हिंसा की घटना लगातार बढ़ रही है। महिलाओं के लिए सुरक्षित स्थान करार दिए जाने वाली जगह उसके घर और परिचितों से उसे सबसे पहले हिंसा का सामना करना पड़ता है। कोविड-19 के दौरान तालाबंदी से बंद हुई दुनिया में महिलाओं के खिलाफ बढ़ी घरेलू हिंसा की घटनाएं इस बात पर मोहर लगाती हैं। भारत के संदर्भ में ऐसी रिपोर्टें आई हैं कि लॉकडाउन के दौरान न केवल महिलाओं पर काम का बोझ बड़ा बल्कि उन्होंने घरेलू हिंसा व प्रताड़ना का भी सामना किया।

वास्तविक रूप से कानून का लागू होना

देश में संवैधानिक तौर पर एक महिला व पुरुष को समान कानून मिले हैं। पितृसत्तात्मक सोच इन्हीं कानूनों को लागू करने में बाधा है। लड़कियों और महिलाओं को संविधान के तहत स्वतंत्रता, शिक्षा, समानता और शोषण के विरूध मौलिक अधिकार प्राप्त है। तमाम तरह के कानून व नीतियों के बावजूद पितृसत्ता के सुरक्षा का चक्र उन्हें उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर रहा है। पितृसत्ता की सोच के कारण महिला से उसके अधिकारों को छीना जाता रहा है। महिला हिंसा को रोकने के लिए एक महिला को घर में रोकने से नहीं उसके अधिकारों को लागू करने हिंसा घटनाओं को कम किया जा सकता है। महिलाओं के अधिकारों की सशक्त रूप से स्थापना होने के बाद ही वह सशक्त हो सकती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वतंत्रता और समानता के अधिकार पाकर महिला अपने साथ होने वाली हिंसा को पहचान सकती है और उसके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद भी कर सकती है।   

बबीता बताती हैं कि झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश के अलग-अलग ज़िलों में ग्रामीण और हाशिएबद्ध समुदायों के साथ मिलकर ज़न-जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है, जिससे सुरक्षा के नामपर महिला हिंसा के रूप को उजागर किया जा सके और आमजन तक सुरक्षा के नाम पर महिला अधिकारों से महिलाओं को वंचित करने के चलन को एकजुट होकर मज़बूती से चुनौती दी जा सके।

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तस्वीर साभारः Muheem

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