संस्कृतिसिनेमा ‘अच्छी औरत’ बनने का पाठ पढ़ाते टीवी सीरियल्स

‘अच्छी औरत’ बनने का पाठ पढ़ाते टीवी सीरियल्स

लेकिन क्या आपने कभी सोचा है इन सीरियल्स के इतने लोकप्रिय होने का कारण क्या है? इनकी कहानी में ऐसा क्या खास होता है कि कई सीरियल्स के सीन लोगों की यादों में आज भी बरकरार हैं। आइए इन सभी सवालों के जवाब खोजते हैं हम अपने नारीवादी चश्मे से!

टीवी में कई तरह के कार्यक्रम आते हैं लेकिन टीवी सीरियल्स की लोकप्रियता भारत में अधिक है। इन सीरियल्स की रचना भारतीय पितृसत्तात्मक परिवार की संरचना के आधार पर की जाती है। हर सीरियल में भारतीय संयुक्त परिवार की जीवनशैली को दिखाया जाता है जिसे भारतीय बड़े चाव से देखते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है इन सीरियल्स के इतने लोकप्रिय होने का कारण क्या है? इनकी कहानी में ऐसा क्या खास होता है कि कई सीरियल्स के सीन लोगों की यादों में आज भी बरकरार हैं। आइए इन सभी सवालों के जवाब खोजते हैं हम अपने नारीवादी चश्मे से!

आदर्शवादी होने का ज़िम्मा सिर्फ औरतों के कंधे पर क्यों?

पितृसत्तात्मक समाज में औरतों के लिए आदर्शवाद के मायने आदर्शवाद की परिभाषा से भिन्न हैं। औरतों से जुड़े अनेक रिश्ते जैसे मां, पत्नी, बहन, बहू आदि से उम्मीद की जाती है कि वे आदर्शवाद के उस ढांचे में ही रहे जो पितृसत्तात्मक समाज ने बनाए हैं। अपने अधिकारों, सही-गलत के तर्क से परे एक ‘आदर्श नारी’ बनकर रहें जिसके लिए परिवार और पुरुष सर्वोपरि हो। असल में इन सीरियल्स में यही मूल भाव होता है जिसे टीवी पर उतारा जाता है। कहानी के किरदार बदल जाते हैं पर कहानी का उद्देश्य औरत का आदर्शवादी होना ही बना रहता है।

उदाहरण के तौर जैसे हिट शो ‘अनुपमा’ का नाम ही नायिका के नाम पर है। कहानी कुछ यूं कहती है कि एक 40 की उम्र की औरत अपने पति के दिए धोखे के बावजूद उसके और उसके परिवार की सारी ज़िम्मेदारियां उठाती है। पहली पत्नी अनुपमा के होते हुए दूसरी महिला से शादी के बाद उसी घर में वह दोनों पत्नियों को साथ रखता है लेकिन फिर भी अनुपमा के लिए आज भी उसका पति का परिवार ही सर्वोपरि है। सीरियल की कैरेक्टर अनुपमा अपने इस बलिदान और आदर्शवाद के लिए दर्शकों की सांत्वना पाती है। लेकिन इसके उलट अगर यही ‘अनुपमा’ अपने अधिकारों के लिए बोलती नज़र आती तो पितृसत्ता के आदर्शवाद में यह फिट नहीं बैठती उल्टा ‘अनुपमा’ एक विलन की तरह सीरियल में नज़र आती। इसी तर्ज पर बने कई सीरियल्स हैं। जैसे, प्रतिज्ञा, साथ निभाना साथिया, दीया और बाती, इमली, कुमकुम भाग्य, मीत, कसौटी जिंदगी की, बंदिनी, ससुराल सिमर का, जिनमें मूलतः यही दिखाया जाता है कि औरत अच्छी और आदर्शवादी बहु, पत्नी तभी बनती है जब सही-गलत हर चीज़ वह चुपचाप सहती रहती है।

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पितृसत्तात्मक समाज में औरतों से यही उम्मीद की जाती है कि औरतों का पूरा जीवन मर्दों के चारों तरफ ही सिमटकर रह जाए और इसी सोच की टीवी सीरियल्स में बखूबी नकल की जाती है।


पुरुष प्रधानता का वर्चस्व

भारतीय टीवी सीरियल्स में पुरुषों को केंद्र में रखकर सीरियल्स की रचना की जाती है। भले ही कई सीरियल के नाम नायिका के नाम पर हो पर उसका सारा फोकस अपने हीरो पर ही होता है जिसे खुश करने के पीछे नायिका का सारा ध्यान होता है। इसका उदाहरण के लिए धारावाहिक ‘सिंदूर की कीमत’ में एक अमीर वकील एक मिडिल क्लास लड़की का केस लड़ने के बदले उससे कॉन्ट्रैक्ट बेस शादी करता है। अपने पिता को जेल से निकालने के लिए एक मजबूर लड़की बिना इच्छा वकील से शादी कर लेती है उसके बाद उसके परिवार के बीच बेज्ज़ती और अपने चरित्र पर उठते सवालों को दरकिनार करते हुए नायिका ‘अच्छी बहू’ बनने की होड़ में सब कुछ रो-रो करती है। इन सब के बीच उसके हालात का फायदा उठाते हुए भी उसका पति एक ‘गुड हसबैंड’ ही है। इसी तरह सीरियल ‘इमली’ में भी इमली के लिए उसकी उम्र से बड़ा मर्द ही उसका पति परमेश्वर है। इस जबरदस्ती की शादी में बंधी इमली के लिए उसका पति और ससुराल उसकी इज्ज़त, पढ़ाई, सपनों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है जिनके लिए वह बलिदान पर बलिदान दिए जा रही है।

इन सीरियल्स की कहानियों में पितृसत्ता साफ़ नजर आती है, जहां पुरुष की उम्र उसकी बीवी से बड़ी हो तब भी वह सही है, चाहे शादी लड़की की इच्छा के खिलाफ ही की गई हो तब भी सही है। वह सब कुछ सही है जो औरत के खिलाफ पुरुषों द्वारा किए गए काम है क्योंकि सबसे ज़रूरी है मर्द की खुशी। ताकि हमारे पितृसत्तात्मक समाज की तरह टीवी के मर्द भी खुश रहें। पितृसत्तात्मक समाज में औरतों से यही उम्मीद की जाती है कि औरतों का पूरा जीवन मर्दों के चारों तरफ ही सिमटकर रह जाए और इसी सोच की टीवी सीरियल्स में बखूबी नकल की जाती है।

कई सीरियल्स में पुरुष किरदारों को ऐसा दिखाया जाता है कि वह अपनी पत्नी से खुश नहीं है या उसे कबूल नहीं करता, उसके साथ बुरा बर्ताव करता है। लेकिन फिर भी वह अच्छा ही होता है और सीरियल का हीरो होता है। उसकी पत्नी बिना विरोध के उसके अभद्र व्यवहार को सहती है। इस खुशफहमी में कि वह अभद्र व्यवहार मर्द के प्यार जताने का एक तरीका ही तो है।

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घरेलू हिंसा को बढ़ावा देते टीवी सीरियल्स

सभी टीवी सीरियल की कहानी लगभग सास बहू पर केंद्रित कर बनाई जाती है। ज्यादातर इन सीरियल्स में एक ऐसी बहू या बीवी को दिखाया जाता है जो परिवार के सभी लोगों की खुशी को अपनी खुशी से ऊपर रखती है। एक अच्छी बहू होने के नाते औरत को बिना कुछ कहे सब सहते जाना होता है। कई सीरियल्स में दिखाया जाता है कि सास कैसे बहू पर ज़िम्मेदारियों के नाम पर जबरदस्ती नियम थोपती है। साथ ही इस काम में उस औरत के पति भी पीछे नहीं हटते। कई सीरियल में प्यार के नाम पर पुरुष द्वारा महिला पर की गई हिंसा को सही ठहराया जाता है। प्यार को ढाल बनाकर पति पत्नी से जबरदस्ती करता है तो यह टीवी सीरियल्स उसे प्यार जताने का तरीका बता कर सही ठहरा देते हैं।

कई सीरियल्स में पुरुष किरदारों को ऐसा दिखाया जाता है कि वह अपनी पत्नी से खुश नहीं है या उसे कबूल नहीं करता, उसके साथ बुरा बर्ताव करता है। लेकिन फिर भी वह अच्छा ही होता है और सीरियल का हीरो होता है। उसकी पत्नी बिना विरोध के उसके अभद्र व्यवहार को सहती है। इस खुशफहमी में कि वह अभद्र व्यवहार मर्द के प्यार जताने का एक तरीका ही तो है। यह सब का निष्कर्ष निकाले तो यह समाज हो या टीवी सीरियल्स सब पितृसत्ता से प्रभावित होकर ‘अच्छी औरत’ का टैग उसके माथे ही चिपकाते हैं। एक ऐसी औरत जो गलत का विरोध ना करे, जिसका स्वभाव अत्याचार सहना हो ना कि अपने अधिकारों के लिए लड़ना।

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तस्वीर साभार : New movie Hindi

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