हम सभी ने बॉलीवुड में ऐसी तमाम फिल्में देखी होंगी जिसमे हीरो-हीरोइन मिलते हैं उनमें प्यार होता है फिर कहानी आगे बढ़ती है और हैप्पी एंडिंग हो जाती है। कई ऐसी फिल्में हैं, जिसमें हीरो-हीरोइन का लव एंगल, ट्रायंगल या विलेन का हीरो-हीरोइन के बीच आना फिर हीरो का मसीहा बनकर मारपीट करना और फिल्म के अंत में सब कुछ ठीक हो जाता है। ऐसे मुद्दे पर लिखी गई अनगिनत फिल्में हमारे सामने हमेशा उदाहरण के लिए मौजूद हैं।
भारतीय सिनेमा में पितृसत्ता का प्रभाव शीशे की तरह साफ नज़र आता है। यहां की फिल्में केवल पुरुष अभिनेताओं को केंद्रित करके बनाई जाती हैं। हालांकि, हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि गिनती की कुछ फिल्में ऐसी भी आई हैं जो सिर्फ पुरुष एक्टर को नहीं बल्कि महिला एक्टर्स को फ्रंट पर रखकर बनाई गई हैं। ऐसी कुछ फिल्में आई है जो अनछुए पहलुओं को फिल्मी पर्दे पर उतारती हैं। बॉलीवुड में साल 2011 में ऐसी ही एक फिल्म आई थी ‘सात खून माफ।’ इस लेख में हम इस फिल्म को आज एक नारीवादी नज़रिये से देखने की कोशिश करेंगे।
बॉलीवुड की तमाम फिल्में जिनकी कहानी में मूल रूप से पुरुषों को लीड रोल में रखा जाता है। वहां, फिल्म ‘सात खून माफ’ में निर्देशक विशाल भारद्वाज ने मुख्य किरदार प्रियंका चोपड़ा के नज़रिए से फिल्म को चित्रित किया है। हालांकि, फिल्म की कहानी रसकिन बॉन्ड के ‘Susanna’s Seven Husbands‘ से ली गई है जिसे पर्दे पर उसी तरह उतारा गया है। लेकिन एक परंपरा की तरह चली आ रही बॉलीवुड की पितृसत्तात्मक फिल्मों में ‘सात खून माफ’ औरत के नजरिए से दिखाना एक नये प्रयोग जैसा था।
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औरतों के नज़रिए से फिल्म को दिखाकर जो प्रयोग किया गया है वह निसंदेह सफल भी रहा। फिल्म की मुख्य किरदार सुजै़न उर्फ प्रियंका चोपड़ा के नज़रिए से फिल्म की कहानी गढ़ी गई है। असल में सुज़ैन के जरिए स्त्री के भीतर की परेशानियों को पर्दे पर उतारकर पूरी दुनिया को दिखाया गया है। फिल्म में सुज़ैन की तलाश अपने सच्चे प्यार की होती है, जिस प्रेम को पाने के लिए सुज़ैन एक के बाद एक सात शादियां करती है। सात शादियों के बावजूद उसे वह प्रेम किसी मर्द से नहीं मिलता जो जिसकी उसे तलाश होती है। फिल्म में दिलचस्प बात यह है कि सुजै़न पति अलग-अलग धर्म जाति और उम्र से ताल्लुक रखते हैं। समुदाय मर्दों के क्यों न अलग हो पर सोच सबकी वही पितृसत्ता से लबरेज़ दिखाई पड़ती है। पुरुष बिना स्वार्थ के किसी महिला के जीवन में नहीं आता, फिल्म में यह बखूबी दिखाया गया है।
फिल्म में सुजै़न के सातों पतियों के चरित्र के बारे में बात करें तो हर एक पुरुष किरदार ने अपने चरित्र की अलग छवि पर्दे पर दिखाई है। सुजै़न का पहला पति सेना प्रमुख है जो सुजै़न पर शक करता है। उसे एक सामान समझकर उस पर अपना मालिकाना अधिकार जताता है। हमारे आसपास के समाज में लगभग हर शादीशुदा पुरुष भी अपनी पत्नी पर ऐसा हक जमाता है जैसे वह इंसान नहीं कोई सामान हो। फिल्म में तो सुज़ैन अपने पति से परेशान होकर उसे मौत के घाट उतार देती है। लेकिन असल जिंदगी में औरतें पुरुषों के मालिकाना स्वभाव को उसका प्रेम समझकर उसे बढ़ावा देती हैं या इसका विरोध नहीं कर पाती।
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सुज़ैन का दूसरा पति एक गायक होता है। सुजै़न से शादी के बाद भी उसका पति नशे की लत में रहता है और कई औरतों के साथ संबंध बनाता है। सुजै़न अपने पति को सुधारना चाहती है लेकिन वह कामयाब नहीं होती। हमारे सामने आए दिन ऐसी खबरें आती हैं कि नशे की लत में आकर पुरुष अपनी पत्नी से मारपीट करते हैं। पुरुषों के नशे की लत से ना केवल पुरुष की सेहत ख़राब होती है बल्कि उसके पीछे एक महिला का पूरा जीवन बर्बाद हो जाता है।
फिल्म में सुज़ैन की तलाश अपने सच्चे प्यार की होती है, जिस प्रेम को पाने के लिए सुज़ैन एक के बाद एक सात शादियां करती है। सात शादियों के बावजूद उसे वह प्रेम किसी मर्द से नहीं मिलता जो जिसकी उसे तलाश होती है। पुरुष बिना स्वार्थ के किसी महिला के जीवन में नहीं आता, फिल्म में यह बखूबी दिखाया गया है।
सुज़ैन का तीसरा पति एक कवि है ,जो हिंसक और क्रूर होता है। सुज़ैन को प्यार के बदले अपने पति से धिक्कार और मार मिलती है। प्यार के नाम पर सुजै़न को यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। हमारे समाज में घरेलू हिंसा के कारण स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक पीड़ा से गुजरना होता है। औरतों के प्रति मर्दो का ऐसा रवैया औरतों को समाज में हाशिये की तरफ धकेलता है। अपने तीन पतियों से निराश होने के बावजूद सुजै़न चौथी शादी एक विदेशी रूसी जासूस से करती है जो धोखेबाज़ होता है। सुजै़न के साथ-साथ उसकी एक और बीवी होती है। सुजै़न को उसकी बेवफाई का जब पता चलता है तो वह उसे मार डालती है।
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भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री पुरुष के लिए अलग-अलग मानक और अधिकार तय किए गए हैं। जहां एक तरफ मर्दों का कई रिश्तों में होना सामान्य माना जाता है लेकिन एक औरत का ऐसा करना उसे पितृसत्तात्मक समाज में ‘चरित्रहीन’ बनाता है। समाज उस स्त्री को हीन भावना से देखता है। ऐसी ही सुजै़न के तीन पतिओं में दूसरी कमियां होती हैं। इनमें से कोई घटिया ख्यालात का है तो कोई उसके पैसे ,संपत्ति के लालच में है। पैसे की लालच में सुज़ैन का पति उसे ही मार डालना चाहता है। सुजै़न की प्यार पाने की लालसा उसे सात शादियां करने पर मजबूर कर देती हैं लेकिन ऐसा एक मर्द उसे नहीं मिलता जो सिर्फ उससे प्यार करता हो। सुजै़न प्यार पाने के लिए अपनी शादी को बेहतर बनाने के लिए जिस मर्द से भी शादी करती है, उसका धर्म, रहन-सहन सब अपना लेती है।
दिलचस्प यह है कि फिल्म के अंत में बाकी फिल्मों की तरह किसी हीरो की मसीहा वाली एंट्री नहीं दिखाई गई है जो आकर सब कुछ ठीक कर दे बल्कि सुजै़न निराशा के भाव से अपनी सारी भावनाओं को समेटकर अकेले रहना बेहतर समझती है। पुरुषों का स्त्री के प्रति जो व्यवहार समाज में व्याप्त है वह औरत के भीतर कई तरह के शारीरिक, मानसिक वेदना को न सिर्फ जन्म देता है बल्कि समय के साथ उसे बढ़ावा भी देता है। यहां हर औरत का जीवन सुज़ैन की कहानी की तरह है, “ज़िन्दगी से लबालब प्यार से मायूस।”
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तस्वीर साभार : IMDB