नोट: अगर आप एक संवेदनशील इंसान हैं जो बलात्कार जैसे मुद्दों पर एक तार्किक सोच रखते हैं और आपने ट्विटर पर #MaariageStrike नाम के ट्रेंड को फॉलो नहीं किया है तो आगे भी न करें। यह ट्रेंड आपको ट्रिगर कर सकता है। इस लेख के संदर्भ में कुछ ज़रूरी ट्वीट्स इस्तेमाल किए हैं जो ट्रिंगरिंग हो सकते हैं।
साल 2018 में एक फिल्म आई थी ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का।’ फिल्म के ट्रेलर पर ही बड़ा बवाल मचा था। फिल्म पर ‘अश्लील’ होने का टैग चस्पा कर दिया गया था। इस फिल्म के एक सीन में शिरीन (कोंकणा सेन शर्मा) अपने पति के लिए केक लेकर जाती हैं। बदले में शिरीन का पति उसका हाथ जबरदस्ती अपने लिंग (पीनस) पर रख देता है। शिरीन की आंखों में आंसू आ जाते हैं। यह सीन हमारे समाज की असलियत है जो हमें नज़र नहीं आती, जैसे शिरीन के पति को केक नज़र नहीं आता। इस असलियत को हम मैरिटल रेप यानि वैवाहिक बलात्कार के नाम से जानते हैं।
बीते हफ्ते ट्विटर पर एक हैशटैग ट्रेंड कर रहा था- #MaariageStrike. बड़ी संख्या में भारतीय मर्द इस हैशटैग का इस्तेमाल कर यह कह रहे थे कि उन्हें अब शादी ही नहीं करनी है। शादी पर स्ट्राइक के ट्रेंड के पीछे की वजह है दिल्ली हाई कोर्ट में चल रही सुनवाई। यह सुनवाई उन याचिकाओं पर जिसमें मांग की गई है कि भारत में मैरिटल रेप (वैवाहिक बलात्कार) को एक अपराध घोषित किए जाने की।
दिल्ली हाई कोर्ट अभी सिर्फ इन याचिकाओं पर सुनवाई की है। सुनवाई में शामिल वकीलों और न्यायधीशों ने कुछ टिप्पणियां की हैं जहां उन्होंने मैरिटल रेप को एक तरह से अपराध माना है। ध्यान रहे कि कोर्ट ने अब तक इस मामले में कोई फैसला नहीं सुनाया है। #MaariageStrike नाम की यह बौखलाहट सिर्फ सुनवाई से पैदा हुई है। यह ट्रेंड कुछ चंद हज़ार या ज्यादा से ज्यादा लाख मर्दों की बौखलाहट है जिनकी पहुंच में ट्विटर है। अंग्रेज़ी में ‘टिप ऑफ़ द आइसबर्ग‘ का बहुत इस्तेमाल किया जाता है, यानि ये सिर्फ असल समस्या का सिर्फ एक हिस्सा भर है।
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मैरिटल रेप पर अभी सिर्फ बहस चल रही है। अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे ‘भारतीय मर्द’ अभी से ही सोच-सोचकर हलकान हुए जा रहे हैं कि कानून बनते ही वे सब के सब जेल में होंगे या औरतें झूठे मुकदमों में फंसाकर उनसे पैसे वसूलेंगी। लेकिन मैरिटल रेप पर कानून के ख़िलाफ़ इतना डर क्यों? झूठे मुकदमों का इतना डर क्यों?
मैरिटल रेप क्या है? इसका सीधा सा जवाब है शादीशुदा रिश्ते में अपने साथी की मर्ज़ी के बिना, जबरन यौन संबंध बनाना। जबरन यौन संबंध बनाना ही बलात्कार कहलाता है। दिसंबर, 1993 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के उन्मूलन पर अपने घोषणापत्र में मैरिटल रेप को एक अपराध माना था। अब तक 50 से अधिक देशों में मैरिटल रेप को अपराध माना जा चुका है। अफ़सोस! भारत उन देशों में शामिल है जहां पुरुषों की एक आबादी ‘रेप के डिफेंस’ में हर तरह के तर्क पेश कर रही है।
अगर आप इस ट्रेंड पर जाएंगे तो आपको दिखेगा कि औरतें कैसे शादी के ज़रिये मर्दों का शोषण कर रही हैं, उन्हें नकली मुकदमों में फंसा रही हैं। शादी कैसे औरतों के लिए ‘गोल्ड डिंगिंग’ का ज़रिया बन गया है। ‘बेचारे, बेबस मर्द’ भारतीय औरतों के चंगुल में फंसकर अपनी ज़िंदगी जेल में काटने को मजबूर हैं। ट्विटर पर इस ट्रेंड को अपनी सफलता मान बैठे इन प्रिविलेज्ड मर्दों की मानें तो, “200 रुपये में सेक्स के लिए तो सेक्स वर्कर्स तैयार हो जाती हैं, तो वे शादी क्यों करें।” जिन मर्दों के लिए शादी सेक्स का लाइसेंस हो उनसे हम सेक्स वर्कर्स के लिए संवेदनशीलता की उम्मीद कैसे पालें। वह भी उन मर्दों से जो जी जान से लगे हुए हैं यह साबित करने में कि मैरिटल रेप कैसे एक जुर्म नहीं है।
#MarriageStrike : भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में शादी का ढांचा है जड़!
नारीवाद की दूसरी लहर के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली केट मिलेट अपनी किताब सेक्सुअल पॉलिटिक्स में लिखती हैं, “आज की बदलती पितृसत्ता में महिलाओं को तलाक का अधिकार, नागरिकता और संपत्ति दी गई है। हालांकि, अभी भी महिलाओं द्वारा अपना नाम खोना, पति का घर अपनाने की परंपरा जारी है, साथ ही यह कानूनी धारणा भी बनी हुई है कि शादी में महिलाओं को आर्थिक सहायता के बदले घरेलू सेवा और यौन (संघ) (sexual) consortium देना पड़ता है।” यह किताब 1970 में लिखी गई थी यानि आज से कुछ 5 दशक पहले। लेकिन शादी का ढांचा आज भी इसी सोच पर टिका हुआ है। मैरिटल रेप पर बहस बिना शादी के ढांचे पर बात किए नहीं हो सकती है।
भारत में बहुसंख्यक शादियां आज भी ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के रचे-बसे नियमों पर होती हैं। इस पूरी प्रक्रिया में लड़की देखने जाना, फिर उसमें कमियां निकालना, दहेज के लिए मोल-भाव करना, लड़की के परिवार से एक भव्य शादी की उम्मीद करना। ये सब बातें तो अरेंज्ड मैरिज में खुलकर की जाती हैं। लेकिन हमारे समाज में किसी भी शादी में ये दो बातें एक अनसेड रूल की तरह होती हैं- शादी के बाद लड़की घर के सारे काम करेगी और शादी के बाद पति की शारीरिक ज़रूरतों को पूरा करना उसकी ज़िम्मेदारी होगी। शुूरू से अंत तक इस पूरे सिलसिले में लड़की की सहमति गायब होती है।
इस समाज में जब आप शादी के रिश्ते में कंसेंट यानि सहमति पर बात भी छेड़ते हैं तो आपको तुरंत नारीवादी, ज्यादा पढ़ी-लिखी या तेज़ कहकर खारिज कर दिया जाता है। इस स्ट्रक्चर में औरतों के शरीर को काम करने और मर्दों की यौन इच्छा संतुष्ट करनेवाली मशीन समझा जाता है। जो एक बार कहने पर गरम-गरम पूरियां तल दें और अगले ही सेकंड अपने पति की यौन इच्छाओं को पूरा करने के लिए तैयार हो जाएगा। सेक्स करने से पहले ना-ना करता उस औरत का मुंह आदमी को नज़र नहीं आता। उसे तब औरत बिना धड़ वाला एक शरीर लगती है।
हाल ही में एक ख़बर सामने आई थी, जिसके मुताबिक रेप्लिका नाम के ऐप पर मर्द AI गर्लफ्रेंड बनाकर उन्हें अब्यूज़ कर रहे हैं। रेप्लिका ऐप एक वर्चुअल चैटबॉक्स की तरह है। इसमें यूज़र्स को एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस कॉम्पैनियन मिलता है जिससे वे बात कर सकते हैं। अब आप मर्दों के इस फ्रस्टेशन को समझिए जहां वे एक ऐसी औरत को भी शोषित करने से नहीं चूक रहे जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है।
जब भी मैरिटल रेप पर डिबेट होती है तो सबसे पहला तर्क यही दिया जाता है कि इससे परिवार की संस्था खतरे में पड़ जाएगी। क्या समाज, क्या सरकार और क्या कोर्ट, सभी को परिवार के ‘टूटने’ का डर सताता है। एक संसदीय पैनल की रिपोर्ट ने भी यही सुझाव दिया था कि अगर भारत में मैरिटल रेप को कानूनी रूप से एक अपराध घोषित कर दिया गया तो परिवार की संस्था भी बेहद तनावग्रस्त स्थिति में आ जाएगी। साल 2017 में मैरिटल रेप पर जुड़ी याचिकाओं पर हो रही सुनवाई के दौरान भी केंद्र सरकार ने वही बातें दोहराई थीं कि अगर मैरिटल रेप को एक दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया तो इससे महिलाओं को एक हथियार मिल जाएगा अपने पति को शोषित करने का क्योंकि ऐसे मामलों में लंबे समय तक टिकने वाले सबूतों का मिलना मुश्किल होगा। तभी तो इस देश में जस्टिस जेएस वर्मा कमिटी की उस सलाह को खारिज कर दिया गया था जहां उन्होंने मैरिटल रेप को अपराध मानने की सिफ़ारिश की थी। फिलहाल, मैरिटल रेप पर सरकार और ज़िम्मेदार ओहदों पर बैठे लोगों की समझ और #MaariageStrike आंदोलन चला रहे मर्दों की समझ में कोई ख़ासा अंतर नहीं नज़र आता।
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कंसेंट की डिबेट को सेक्स तक सीमित करते #MarriageStrike के ‘आंदोलनकारी‘
मैरिटल रेप का सीधा संबंध सहमति से है। कोर्ट में सुनवाई मैरिटल रेप को अपराध बनाने के लिए चल रही है। बात यहां महिलाओं के मौलिक अधिकारों की है, उनके ना कहने के अधिकार की है। लेकिन हमारे देश के मर्द जो अपने ‘अधिकारों’ के लिए लड़ रहे हैं वह इस पूरी डिबेट को सिर्फ सेक्स पर ले आए।
इस बात को समझने के लिए इस ट्वीट को देखिए:
“अगर मर्द सेक्स न कर पाए तो वह नपुंसक है, अगर शादी के अंदर सेक्स करे तो मैरिटल रेप है, अगर शादी के बाहर सेक्स करे तो वह क्रूर है, HE का मतलब मर्द है जो भारतीय कानून के मुताबिक एक अपराधी पैदा हुआ है।”
खुद को ‘एक्टिविस्ट’ और कानून के विक्टिम कह रहे इन मर्दों की सोच बस यहीं तक सीमित रही कि कोर्ट उनके सेक्स करने पर पाबंदी लगा रहा है। ट्रेंड शुरू करके #MarriageStrike नाम का झूठा बलिदान देने से पहले इन क्रांतिवीरों ने कंसेंट नाम के शब्द के मायने खोजने के कष्ट से खुद को बचाए रखा। इस ‘आंदोलन’ में शामिल मर्दों की इस गलतफ़हमी को चलिए दूर करते हैं।
अगर मर्द सेक्स न कर पाए तो वह नपुंसक है– यह सोच पितृसत्ता ने गढ़ी है जिसका विरोध नारीवादी विचारधारा ने हमेशा से किया है। नारीवाद ने अपनी थ्योरीज़ में हर जगह समझाया है कि पितृसत्ता कैसे मर्दों को नुकसान पहुंचाती है।
अगर शादी के अंदर सेक्स करे तो मैरिटल रेप है– सेक्स अगर पार्टनर की सहमति के साथ किया जाए तो वह रेप नहीं है। मुद्दा यहां कंसेंट का है। सेक्स करने या न करने का नहीं।
अगर शादी के बाहर सेक्स करे तो वह क्रूर है– यह किसी भी शख़्स का निजी मसला हो सकता है। अगर कोई शादी के रिश्ते में खुश नहीं है तो उसके लिए तलाक का विकल्प मौजूद है।
HE का मतलब मर्द है जो भारतीय कानून के मुताबिक एक अपराधी पैदा हुआ है– कानून ऐसा बिल्कुल नहीं कहता, ऐसा आप कह रहे हैं।
अब इस ट्वीट को देखिए जहां बताया जा रहा है कि अगर भारत में मैरिटल रेप के ख़िलाफ़ अगर कानून बनता है तो कैसे महिलाएं इसका बेजा इस्तेमाल करेंगी।
#MeToo आंदोलन याद होगा आपको। भारत या जहां भी ये आंदोलन शुरू हुआ तो दो सवाल मर्दों ने सबसे पहले पूछा था- “अब क्यों बोल रही हो? अपराध इतने साल पहले हुआ तो सबूत क्या है?” हां यह बात बिल्कुल जायज़ है कि हमारा कानून सबूत मांगता है पर यहां ये भी याद दिलाना ज़रूरी है कि कानून कभी यह नहीं कहता कि पीड़ित/सर्वाइवर की बात पर भरोसा न करो। आप किसी मर्द के साथ #MeToo या लैंगिक हिंसा के मुद्दों पर बात करके देखिए। अधिकतर मर्दों की टोन आपको कुछ यूं सुनाई देगी- “सारे मामले सच नहीं होते, इन मामलों में फैसला लेना मुश्किल है, कंसेंट बहुत कंफ्यूज़िंग है” वगैरह, वगैरह। क्यों बात जब जातीय हिंसा, एससी-एसटी ऐक्ट, लैंगिक हिंसा, दहेज, बलात्कार जैसे अपराधों से जुड़े मामलों की होती है तो मर्दों को ये मामले ‘डाइसी’ लगने लगते हैं? क्यों बिना अपराधी को जाने वे उसके समर्थन में दिखाई पड़ते हैं। ख़ासकर यौन हिंसा के मामलों में मर्दों का ‘ब्रो कोड’ बहुत ही सिस्टमैटिक तरीके से काम करता जान पड़ता है।
अब बात झूठे मुकदमों की। वॉट्सऐप फॉरवर्ड्स के ज़रिये समझ बनाता हमारा देश शायद ही मैरिटल रेप पर मौजूद आंकड़ों पर मर्द भरोसा करें, लेकिन फिर भी हमारी ज़िम्मेदारी है तथ्यों के ज़रिये अपनी बात रखने की। लाइव मिंट द्वारा किया गया नैशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो और नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (2015-16) के आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि भारत में यौन हिंसा के करीब 99% मामले दर्ज नहीं किए जाते हैं। एक औसत भारतीय महिला का अपने पति द्वारा यौन हिंसा का सामना किए जाने की 17 गुना अधिक संभावना होती है।
यूएन वीमन भी घर को महिलाओं के लिए सबसे अधिक खतरनाक जगह मानता है। एनसीआरबी के ही मुताबिक साल 2018 में दर्ज हुए 94 फीसद मामलों में आरोपी सर्वाइवर को पहले से जानते थे। इसमें परिवार के सदस्य, दोस्त, इम्प्लॉयर और लिव-इन पार्टर्नर्स शामिल थे। ये चंद आंकड़े हैं जो बताते हैं कि घरों के अंदर, शादी के रिश्ते में बड़ी तादाद में महिलाएं हिंसा का सामना कर रही हैं। जो 99% मामले दर्ज नहीं किए जा रहे हैं वे मामले हमारे-आपके घरों के भी हो सकते हैं।
बलात्कार के बचाव में खड़ा किया गया एक ट्रेंड
जब आप #MarriageStrike ट्रेंड के ट्वीट्स देखेंगे तो पाएंगे कि बलात्कार जैसे अपराध के बचाव में हर तरह की तर्कहीन बातें की जा रही हैं। मैरिटल रेप का बचाव करते मर्द ‘पोटेंशियल रेपिस्ट’ से नज़र आए। इस अपराध को सही साबित करने की एवज़ में कॉन्सपीरेसी थ्योरीज़ गढ़ी गईं। इन थ्योरीज़ में सबसे मशहूर रही पैसे ऐंठने वाली बात। कई लोग यह कहते दिखें कि मैरिटल रेप पर अगर कानून बनेगा तो यह भी महिलाओं के लिए मर्दों से एक मोटी रकम वसूलने का ज़रिया बन जाएगा। कई मर्दों ने एक सुर में यह भी कहा कि पढ़ी-लिखी महिलाएं अपने अधिकार के लिए झूठे केस करती हैं ताकि तलाक के बाद वे अपने खुद को जेफ बेजॉस मान बैठे थे। उन्हें लग रहा था बस चंद मिनटों में मैरिटल रेप पर कानून बनेगा और वे अपनी ‘अरबों की संपत्ति’ से हाथ धो बैठेंगे।
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इस पूरे ट्रेंड ने नारीवादी एक्टिविस्टों की मदद भी की। मसलन जैसे ही बात महिला अधिकारों, उनसे जुड़े कानूनों की होती है सारे मर्द एक सुर में गाते हैं कि कैसे वे इन कानूनों से शोषित हो रहे हैं। अब आपको समझ आएगा कि क्यों ब्राह्मणवादी पितृसत्ता औरतों की शिक्षा, उनके अधिकारों के शुरू से खिलाफ रही है। क्यों शिक्षा, वोट, काम करने समेत ज़िंदगी के हर क्षेत्र में औरतों को अधिकार देरी से दिए गए। औरतों के लिए बने कानून पर यह विरोध तब है जब इनकी पहुंच सिर्फ मुट्ठी भर औरतों के पास है। जाति, धर्म, वर्ग, सेक्सुअलिटी के आधार पर देखा जाए तो ये सारे कानून सभी महिलाओं की पहुंच में बराबरी से कहां हैं। हालांकि, यह पूरी एक अलग डिबेट ही है जिस पर चर्चा इसी लेख में नहीं की जा सकती है। एक महिला होने के नाते हम यह आसानी से महसूस कर सकते हैं कि अगर यह कानून बन भी गया तो इसे अनगिनत चुनौतियां कोर्ट में दी जाएंगी।
मैरिटल रेप पर अभी सिर्फ बहस चल रही है। अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे ‘भारतीय मर्द’ अभी से ही सोच-सोचकर हलकान हुए जा रहे हैं कि कानून बनते ही वे सब के सब जेल में होंगे या औरतें झूठे मुकदमों में फंसाकर उनसे पैसे वसूलेंगी। लेकिन मैरिटल रेप पर कानून के ख़िलाफ़ इतना डर क्यों? झूठे मुकदमों का इतना डर क्यों? हम क्यों ‘भरोसा’ नहीं करते कि भारतीय मर्द अपनी पार्टर्नस के साथ सहमति से ही संबंध बनाते होंगे। किसी की सहमति या इनकार को समझना तो एक गलीच ट्रेंड को नंबर वन बनाने से आसान काम है। ना का मतलब ना- इसे समझने में क्या किसी कानून की ज़रूरत है? क्या इसे समझने के लिए बलात्कार जैसे अपराध के बचाव में खड़े होने की ज़रूरत है? क्या बलात्कार के अपराध का कोई ‘डिफेंस’ हो सकता है?
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मैरिटल रेप पर दिल्ली हाई कोर्ट में चल रही बहस को आप वेबसाइट लाइव लॉ पर विस्तार से पढ़ सकते हैं।