इंटरसेक्शनलजेंडर बाल विवाह और घरेलू हिंसा नहीं रोक पाए रास्ता, अब बदलाव की ड्राइव पर निकलीं निर्मला

बाल विवाह और घरेलू हिंसा नहीं रोक पाए रास्ता, अब बदलाव की ड्राइव पर निकलीं निर्मला

डबडबाई आंखों से उस वक्त को याद करते हुए निर्मला कहती हैं, "पता नहीं मेरे माँ-बाप की क्या मजबूरी थी कि उन्होंने बचपन में ही मेरी शादी कर दी। मुझे शादी का तो कुछ याद नहीं। बस इतना याद है कि 15 साल की उम्र में जब पहली बार मां बनी थी तो अपने बाप का गर्दन पकड़कर बहुत रोई थी। मैंने अपने बाप से पूछा था कि मेरे साथ ऐसा क्यों कर दिया।"

“प्रेग्नेंसी के दौरान भी मेरा पति शारीरिक शोषण करने से बाज नहीं आता था। बिस्तर पर वह जबरदस्ती मेरी दोनों टांगों को मेरे कंधे की तरफ दबाकर, पैरों को एक दूसरे से बांधकर संबंध बनाता था। मुझे बहुत दर्द होता था। लेकिन मैं चिल्लाकर रो भी नहीं सकती थी क्योंकि रोने पर वह और मारता था।” यह कहानी है दिल्ली में रहनेवाली निर्मला देवी की। शादी की संस्था और सामाजिक ताने-बाने की दुहाई देकर अगर मैरिटल रेप को ख़ारिज करने की जल्दबाज़ी ना हो तो समाज और सरकार को थोड़ा ठहरना चाहिए। निर्मला देवी जैसी महिलाओं के शरीर पर खेले गए पितृसत्ता के वीभत्स खेल को समझे बिना मैरिटल रेप की बारीकियों को नहीं समझा जा सकता।

संयुक्त राष्ट्र की सहयोगी संस्था यूएन वीमन के मुताबिक ‘घर’ महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक जगहों में से एक है। इस बात की पुष्टि भारत सरकार की संस्था नैशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी ने भी की है। साल 2016 में भारत में दर्ज अपराध के आंकड़े बताते हैं कि बलात्कार के 94.6 प्रतिशत आरोपी या तो रिश्तेदार होते हैं या परिचित। वे पिता, भाई, दादा हो सकते हैं, वे प्रेमी हो सकते हैं, वे पड़ोसी हो सकते हैं। अनजान लोग बलात्कार के आरोपी बेहद कम मामलों में ही होते हैं। इन आंकड़ों में भी पतियों को नहीं गिना जाता है। सोचकर देखिए अगर पतियों को भी गिन लिया जाता तो आंकड़ा कैसा होता। हालांकि, इस रिपोर्ट का केंद्र-बिन्दु वैवाहिक बलात्कार नहीं है। लेकिन साहस की इस कहानी में यातनाओं की कई लहरों की तरह एक लहर ‘वैवाहिक बलात्कार’ का भी है जिसे पार कर निर्मला देवी आज रोल मॉडल बन चुकी हैं।

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38 वर्षीय निर्मला देवी द्वारा भोगा गया यथार्थ बहुसंख्यक भारतीय महिलाओं के यथार्थ से बहुत अलग नहीं है। लेकिन उनका संकल्प, साहस और संघर्ष ख़ास ज़रूर है। दलित समुदाय में जन्म, महिला होने का दंश, बाल विवाह, घरेलू हिंसा, गरीबी और भी बहुत ऐसी चुनौतियां थीं, जिसे ‘भाग्य’ का हिस्सा या कर्म-फल का चक्र मानकर निर्मला अपनी परिस्थितियों से समझौता कर सकती थीं, हारकर बैठ सकती थीं, अन्याय को सह सकती थीं। लेकिन उन्होंने साबित किया कि पूर्व लिखित भाग्य जैसा कुछ नहीं होता। जुल्म के ख़िलाफ़ संघर्ष का रास्ता जीवन को विकट से विकट परिस्थितियों से निकल सकता है, अपने जीवन को एक नया आयाम दे सकता है। आज निर्मला देवी दिल्ली की उन गिनी-चुनी महिलाओं में शामिल हैं जो हेवी वीकल ड्राइव कर सकती हैं। आनेवाले दिनों में निर्मला को दिल्ली परिवहन निगम (DTC) की बसों को चलाते देखा जा सकता है।

बस चलाना सीखतीं निर्मला
बस चलाना सीखतीं निर्मला

फिलहाल निर्मला के पास अपनी टैक्सी है, जिसे वह खुद चलाती हैं। उत्तर भारत के कई शहरों तक सवारी लेकर जाती हैं। रोजाना 2000 से 2500 रुपए तक कमाती हैं। कुछ लाख का बैंक-बैलेंस भी कर लिया है। दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश तक जमीन के कुछ टुकड़ों को अपने नाम भी करवा लिया है। ये परिणाम मनोविश्लेषणवाद के संस्थापक सिग्मंड फ्रायड के शब्दों को चरितार्थ करता है। फ्रायड लिखते हैं, “एक दिन वर्षों का संघर्ष बहुत खूबसूरत तरीके से तुमसे टकराएगा।” आज बेखौफ़ होकर कई शहरों का रास्ता नाप देने वाली निर्मला के लिए यह राह आसान नहीं थी। एक वक्त ऐसा भी था जब वह भूख से निपटने के लिए बकरी चराने को मजबूर थीं, दूसरों के घरों में जाकर बुजुर्गों के डायपर बदलने को मजबूर थीं, कोठियों में झाड़ू-पोछा लगाने को मजबूर थीं।

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कैसे शुरू हुई बदलाव की ड्राइव?

बकौल निर्मला देवी उन्हें अपनी शादी याद तक नहीं। बस इतना याद है कि 14 साल की उम्र में पहली माहवारी के साथ ही वह गर्भवती हो गई थीं। 15 वर्ष की हुईं तो एक बेटी को गोद में लिए पति के साथ दिल्ली पहुंचीं। डबडबाई आंखों से उस वक्त को याद करते हुए निर्मला कहती हैं, “पता नहीं मेरे माँ-बाप की क्या मजबूरी थी कि उन्होंने बचपन में ही मेरी शादी कर दी। मुझे शादी का तो कुछ याद नहीं। बस इतना याद है कि 15 साल की उम्र में जब पहली बार मां बनी थी तो अपने बाप का गर्दन पकड़कर बहुत रोई थी। मैंने अपने बाप से पूछा था कि मेरे साथ ऐसा क्यों कर दिया।”

वह आगे बताती हैं, “दिल्ली आने के बाद पति ने मेरे साथ तरह-तरह की हिंसा शुरू कर दी। लगातार मेरे बच्चे होने लगे। एक लड़की के बाद एक लड़का हुआ फिर लगातार तीन लड़कियां हुईं। लड़कियां होती रहीं और मैं पिटती रहीं। प्रेग्नेंसी के दौरान संबंध बनाने में मुझे बहुत तकलीफ होती थी। लेकिन मेरा पति नहीं मानता था। वह पैर बांधकर मेरा शारीरिक शोषण करता था। कई बार तो सर्दी के दिनों में बेल्ट से पीटकर घर से बाहर निकाल देता था। उस दौरान दो बार अबॉर्शन भी करवा चुका था।” बता दें कि दिल्ली के झरोदा माजरा में रहने वाली निर्मला मूल रूप से उत्तर प्रदेश की हैं। इनका जन्म भदोही ज़िले के एक दलित परिवार में हुआ था। मां-बाप ने बचपन में ही जौनपुर ज़िले में इनकी शादी कर दी थी।

डबडबाई आंखों से उस वक्त को याद करते हुए निर्मला कहती हैं, “पता नहीं मेरे माँ-बाप की क्या मजबूरी थी कि उन्होंने बचपन में ही मेरी शादी कर दी। मुझे शादी का तो कुछ याद नहीं। बस इतना याद है कि 15 साल की उम्र में जब पहली बार मां बनी थी तो अपने बाप का गर्दन पकड़कर बहुत रोई थी। मैंने अपने बाप से पूछा था कि मेरे साथ ऐसा क्यों कर दिया।”

दिल्ली में जब निर्मला इन प्रताड़नाओं से गुजर रही थीं, तभी साल 2014 में उनके हाथ एक पर्चा लगा। स्कूली शिक्षा भी पूरी न कर पाने वाली निर्मला को हिंदी पढ़नी आती है।दरअसल निर्मला के पिता का मानना था कि लड़कियां पढ़कर क्या करेंगी। खैर, हिन्दी में लिखा ये पर्चा आज़ाद फाउंडेशन नामक एक एनजीओ का था। निर्मला बताती हैं, ‘‘उस वक्त मेरे पास 30-35 बकरियां थी। दिन में मैं बकरी चराती थी। रात में चोरी-छिपे आया का काम करती थीं। नाजियापारा में एक बुजुर्ग महिला रहती थीं, उनका डायपर बदलने और उन्हें दवा देने का काम था। पर्चा मिलने के बाद आज़ाद फाउंडेशन में पढ़ाई करने जाने लगी। गाड़ी चलाने की ट्रेनिंग भी लेने लगीं। उसी दौरान जागृति नामक संस्था से जुड़ी सुनीता ठाकुर मिलीं। उन्होंने मुझे महिलाओं के अधिकार के बारे में बताया। कोर्ट और कानून का सहारा लेना सिखाया। जब मेरे पति को पता चला मैं पढ़ाई करती हूं और गाड़ी चलाने की ट्रेनिंग लेती हूं तो उसने मेरी बहुत पिटाई की। तब सुनीता ठाकुर ने मेरी मदद की। उन्हीं की मदद से मैंने पुलिस से सुरक्षा ली और पति को सजा भी दिलवाया। ट्रेनिंग पूरी होने के बाद मैं टैक्सी चलाकर अपने बच्चों का पालन-पोषण अच्छे से करने लगी।”

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“एक बार एक पैसेंजर ने बोला मैम एक बात बोलूं। मैंने कहा- दो बात बोलिए। उसने कहा- आप गाड़ी चला रही हो मुझे बहुत शर्म आ रही है। मैंने बोला- सर शर्म किस बात की। आपको तो गर्व होना चाहिए मेरे ऊपर। हम आपके कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। आपको तो मुझे शाबाशी देनी चाहिए। लेकिन अगर अब भी आपको शर्म आ रही है तो आप राइड कैंसल कर सकते हैं।”

महिला ड्राइवर और समाज की प्रतिक्रिया

देश ही नहीं दुनियाभर में श्रम का लैंगिक विभाजन एक सच्चाई है। पितृसत्ता ने महिलाओं के लिए कुछ खास काम तय कर रखे हैं। इन तय किए गए कामों से इतर अगर कोई महिला दूसरा काम करती है समाज में हाय-तौबा मच जाती है। ड्राइविंग इसी श्रेणी का काम है। भारतीय समाज आज भी महिला चालकों को गाड़ी चलाता देखने का अभ्यस्त नहीं है। ऐसे में निर्मला देवी के काम से पुरुषों के एक वर्ग को धक्का लगना ही था। गुड़गांव में एक सवारी के साथ हुई बातचीत का जिक्र करते हुए निर्मला कहती हैं, “एक बार एक पैसेंजर ने बोला मैम एक बात बोलूं। मैंने कहा- दो बात बोलिए। उसने कहा- आप गाड़ी चला रही हो मुझे बहुत शर्म आ रही है। मैंने बोला- सर शर्म किस बात की। आपको तो गर्व होना चाहिए मेरे ऊपर। हम आपके कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। आपको तो मुझे शाबाशी देनी चाहिए। लेकिन अगर अब भी आपको शर्म आ रही है तो आप राइड कैंसल कर सकते हैं।”

टैक्सी चलाती निर्मला

ऐसे ही एक अन्य सावारी ने मुझसे कहा था कि लेडीज़ लोगों को घर में रहना चाहिए। वह रसोई में ही अच्छी लगती हैं। ऐसे रोड पर चलना अच्छा नहीं होता। मैंने कोई जवाब नहीं दिया। सबको जवाब देना संभव भी नहीं। इसलिए नज़रअंदाज़ करती हूं और काम पर ध्यान देती हूं। ड्राइविंग के अपने अनुभव को साझा करते हुए निर्मला कहती हैं, “मेरे काम को देखकर बहुत से लोगों की प्रतिक्रिया अच्छी भी होती है। कुछ लोगों की बहुत गंदी भी होती है। कुछ नंबर मांगते हैं। कुछ दोस्ती का ऑफर देते हैं। लेकिन मैंने भी साइकोलॉजी की क्लास ली है। लोगों के हाव-भाव से बहुत सी बातों का अंदाजा लगा लेती हूं। सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग भी ली है इसलिए अब खुद को किसी भी परिस्थिति के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार रखती हूं। मुझे समझ आ गया है कि ज्यादातर मर्द औरतों को पैर की जूती समझते हैं। यही वजह है कि अब मुझे इतना नफरत हो गया कि किसी मर्द पर एक हद से ज्यादा विश्वास नहीं करती।”

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“एक बार एक पैसेंजर ने बोला मैम एक बात बोलूं। मैंने कहा- दो बात बोलिए। उसने कहा- आप गाड़ी चला रही हो मुझे बहुत शर्म आ रही है। मैंने बोला- सर शर्म किस बात की। आपको तो गर्व होना चाहिए मेरे ऊपर। हम आपके कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। आपको तो मुझे शाबाशी देनी चाहिए। लेकिन अगर अब भी आपको शर्म आ रही है तो आप राइड कैंसल कर सकते हैं।”

सरकारी योजना ने दिलाई पहचान

1 अप्रैल को दिल्ली सरकार ने ‘मिशन परिवर्तन’ के तहत महिलाओं को हेवी मोटर वीकल चलाने की ट्रेनिंग देने संबंधी एक कार्यक्रम की शुरुआत की। यह कार्यक्रम परिवहन विभाग की एक बड़ी पहल का हिस्सा है। इसके तहत सार्वजनिक परिवहन में महिला सुरक्षा को बढ़ावा देना और दिल्ली में डीटीसी/क्लस्टर बसें चलाने के लिए महिला ड्राइवरों को शामिल करना सुनिश्चित किया गया है। 38 महिला उम्मीदवारों के पहले बैच के प्रशिक्षण का उद्घाटन परिवहन मंत्री कैलाश गहलोत द्वारा सोसाइटी फॉर ड्राइविंग ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट, बुराड़ी में किया गया था। निर्मला देवी इसी बैच का हिस्सा थीं। अब इनकी ट्रेनिंग पूरी हो चुकी है। जल्द ये दिल्ली की सड़कों पर सरकारी बसें चलाती नज़र आएंगी।

ट्रेनिंग मैनेजर राकेश के साथ निर्मला

निर्मला को बस चलाने का प्रशिक्षण देने वाले ट्रेनिंग मैनेजर राकेश के मुताबिक, निर्मला अपने बैच की सबसे शानदार ड्राइवर हैं। ट्रेनिंग के लिए मिलने वाले कुल 60 अंकों में से निर्मला को 55 अंक प्राप्त हुए हैं। निर्मला देवी अपने शौक और सपनों की सूची लंबा कर रही हैं। वह बताती हैं, “मुझे लॉन्ग रूट पर जाना पसंद है। रात में गाड़ी चलाना पसंद है। सवारी लेकर मैं जयपुर, वाराणसी, हरिद्वार जा चुकी हूं। और भी दूर-दूर जाना चाहती हूं।”

अपने भविष्य की योजनाओं और परिस्थितियों से मिले दर्शन को उवाचते हुए निर्मला कहती हैं, “अब मैं हिम्मत नहीं हारने वाली। किसी मर्द के कहने से किसी औरत का चरित्र खराब नहीं हो जाता है। ये समाज ही मर्दवादी है। ये सब सदियों से चला आ रहा है। राम ने सीता को बदनाम कर के छोड़ दिया। जब भगवान ही मर्दवादी हैं तो इन आम लोगों को क्या ही कहा जाएं। अपने पति के लिए खुद को पत्थर घोषित करते हुए वह बताती हैं, 6 साल से अब मेरा पति के साथ कोई संबंध नहीं है। अगर औरत का दिल पत्थर बन जाता है तो कोई माई का लाल दुनिया में पैदा नहीं हुआ जो उसे मोम बना दें। मेरा चित्त उसके प्रति फट गया है। मेरे लिए न मेरे पति की जीने की खुशी हैं न मरने का गम है। इतना जख्म दिया है कि उसके मरने के बाद मेरे आंख से पानी नहीं निकलेगा।” 

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सभी तस्वीरें श्वेता द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं।

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