घरेलू हिंसा मानवाधिकार का मुद्दा है और किसी भी देश के विकास के लिए गंभीर बाधा भी है। साल 1994 के वियना समझौते और बीजिंग डिक्लेरेशन एंड प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन (1995) ने भी इसे स्वीकार किया है। महिलाओं के ख़िलाफ़ सभी तरह के भेदभाव के उन्मूलन पर कन्वेंशन पर संयुक्त राष्ट्र समिति (सीईडीएडब्ल्यू) ने अपनी सामान्य सिफारिश संख्या XII (1989) में सिफारिश की कि सभी देशों को महिलाओं को किसी भी तरह की हिंसा से बचाने के लिए काम करना चाहिए, ख़ासकर परिवार के अंदर होनेवाली हिंसा से।
भारत में भी घरेलू हिंसा को लेकर कोई पूर्ण कानून नहीं था। साल 2005 के अधिनियम से पहले अगर किसी महिला के साथ उसके पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा शारीरिक क्रूरता की जाती थी तो यह भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए के तहत अपराध होता था। इस धारा में शारीरिक के अलावा किसी दूसरी तरह की क्रूरता शामिल नहीं थी। इसीलिए, संयुक्त राष्ट्र की सिफारिश को ध्यान में रखते हुए और संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत दिए गए अधिकारों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसा नागरिक कानून बनाने का प्रस्ताव पेश किया गया, जिसका उद्देश्य महिला को घरेलू हिंसा का सामना करने से बचाना था और समाज में घरेलू हिंसा की घटनाओं को रोकना था।
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घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 26 अक्टूबर 2006 से लागू हुआ। यह एक बहुत ही व्यापक कानून है जो परिवार के अंदर होनेवाली किसी भी तरह की हिंसा के सर्वाइवर्स को प्रभावी सुरक्षा और तत्काल राहत सुनिश्चित करता है। इस अधिनियम में ‘घरेलू हिंसा’ की परिभाषा घरेलू हिंसा पर संयुक्त राष्ट्र के मॉडल के अनुरूप है। सर्वाइवर महिला किसी भी शारीरिक, यौन, मौखिक और भावनात्मक शोषण या आर्थिक शोषण से सुरक्षा की मांग कर सकती है। यह कानून पहली बार महिलाओं के हिंसा मुक्त घर के अधिकार को मान्यता देता है। घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत दी गई मशीनरी को जानने से पहले यह समझना ज़रूरी है कि इस अधिनियम के अनुसार कौन पीड़ित व्यक्ति है और कौन प्रतिवादी?
घरेलू हिंसा अधिनियम के अनुसार एक ‘सर्वाइवर व्यक्ति’, कोई भी महिला हो सकती है, जो किसी भी समय घरेलू संबंध में प्रतिवादी (हिंसा करनेवाले या जिस पर आरोप है) के साथ रहती है या रहती थी और उसने प्रतिवादी पर घरेलू हिंसा का आरोप लगाया है। इस तरह, सभी उम्र की महिलाएं ‘सर्वाइवर महिलाएं’ हो सकती हैं। यह अधिनियम माँओं, बेटियों, पत्नियों, बहनों, लिव-इन पार्टनर को घरेलू हिंसा से बचाता है। ‘कोई भी महिला’ में प्रतिवादी के साथ घरेलू संबंध में रहनेवाली कानूनी रूप से विवाहित, तलाकशुदा, विधवा, अलग रहनेवाली, परित्यक्त या एकल महिलाएं भी शामिल हैं।
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घरेलू हिंसा अधिनियम के अनुसार एक ‘सर्वाइवर व्यक्ति’, कोई भी महिला हो सकती है, जो किसी भी समय घरेलू संबंध में प्रतिवादी (हिंसा करनेवाले या जिस पर आरोप है) के साथ रहती है या रहती थी और उसने प्रतिवादी पर घरेलू हिंसा का आरोप लगाया है। इस तरह, सभी उम्र की महिलाएं ‘सर्वाइवर महिलाएं’ हो सकती हैं।
घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत किसके खिलाफ शिकायत दर्ज की जा सकती है?
अधिनियम के तहत ‘प्रतिवादी’ कोई भी व्यक्ति हो सकता है जो सर्वाइवर व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध में है या था और जिसके खिलाफ सर्वाइवर व्यक्ति ने इस अधिनियम के तहत कोई राहत मांगी है। घरेलू अधिनियम के तहत एक पीड़ित महिला घर की अन्य महिला सदस्य के खिलाफ और गैर-वयस्कों के खिलाफ भी शिकायत दर्ज करा सकती है। साल 2016 में हीरल पी. हरसोरा और अन्य बनाम कुसुम एन. हरसोरा और अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि साल 2005 के अधिनियम के अंतर्गत एक सर्वाइवर महिला घर की अन्य महिला सदस्यों (जिन्होंने उसके साथ हिंसा की है) के खिलाफ भी शिकायत कर सकती है। आरोपी केवल वयस्क पुरुष हो ऐसा ज़रूरी नहीं है। कोर्ट ने इस वाद में माना कि एक व्यथित सास अपनी बहू के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती है जहां वह बहू द्वारा घरेलू हिंसा का सामना कर रही है।
घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत प्रदान की गई मशीनरी
घरेलू हिंसा को शुरू से ही घर के अंदर की बात कहकर दबाया जाता रहा है। लेकिन अब समय बदल रहा है और बदलाव की ज़रूरत भी है। घरेलू हिंसा के खिलाफ चुप रहना कहीं से भी सही नहीं है। हमारे कानून ने साल 2005 अधिनियम में एक तंत्र बनाया है जिसके द्वारा हिंसा की शिकायत दर्ज की जा सकती है और और सर्वाइवर को मदद मिल सकती है।
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घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज करवाना
एक महिला के रूप में, अगर आपके साथ घरेलू हिंसा की गई है या अगर आप यह जानती हैं कि किसी के साथ घरेलू हिंसा की गई है या की जा रही है या होने की संभावना है, तो आप उसके खिलाफ शिकायत दर्ज करने के लिए अपने निकटतम पुलिस स्टेशन जा सकती हैं, या इसकी सूचना फ़ोन पर दे सकती हैं, जिसे प्राथमिक सूचना रिपोर्ट के रूप में जाना जाता है।
ड्यूटी पर तैनात पुलिस आपकी शिकायत को अस्वीकार नहीं कर सकती है और इसे दर्ज करने के लिए बाध्य है। अगर, पुलिस आपको बताए कि वह घटना उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आती है, तो उन्हें जीरो-एफआईआर दर्ज करने के लिए कहें। जीरो-एफआईआर का मतलब है कि किसी भी पुलिस थाने में प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है (चाहे घटना स्थल/क्षेत्राधिकार कुछ भी हो) और बाद में उसे उपयुक्त पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित किया जा सकता है। दूसरे के साथ हुई हिंसा की सूचना देने पर आपका नाम और पता भी गुप्त रखा जा सकता है।
संतोष बख्शी बनाम पंजाब राज्य के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि पुलिस को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत की गई शिकायत को गंभीरता से लेना चाहिए और पुलिस यह रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं कर सकती है कि परिवार के सदस्यों से पूछताछ और जांच के बाद कोई मामला नहीं बनता। न्यायालय ने कहा कि पुलिस न केवल परिवार के सदस्यों से बल्कि पड़ोसियों, दोस्तों से भी उचित सत्यापन, जांच और पूछताछ करे। इस तरह की जांच के बाद, जांच एजेंसी एक निश्चित राय बना सकती है और रिपोर्ट दाखिल कर सकती है, लेकिन यह अदालत को तय करना है कि अधिनियम के किसी भी प्रावधान के तहत किसी अपराध के लिए संज्ञान लिया जाए या नहीं। राजस्थान हाई कोर्ट के अनुसार विदेशी महिलाएं जो अपने पार्टनर द्वारा भारत में घरेलू हिंसा की शिकार हैं, वे भारत में शिकायत दर्ज कर सकती हैं। हाई कोर्ट ने कहा था कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 न केवल इस देश के हर नागरिक को बल्कि उस व्यक्ति को भी सुरक्षा देता है जो देश का नागरिक नहीं हो सकता है।
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पुलिस के अलावा सर्वाइवर व्यक्ति घरेलू हिंसा की शिकायत के साथ संरक्षण अधिकारी (पीओ) या सेवा प्रदाता (महिलाओं के अधिकारों और हितों की रक्षा के उद्देश्य से काम करने वाले कानून के तहत पंजीकृत कोई भी स्वैच्छिक संघ) (एसपी) से संपर्क कर सकते हैं, जिसे घरेलू घटना रिपोर्ट (डीआईआर) में दर्ज किया जाना है। इसके बाद इसकी प्रतियां संबंधित मजिस्ट्रेट, स्थानीय पुलिस स्टेशन और सेवा प्रदाता (एस.पी.) को भेजी जाती हैं।
ऐसी महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में संरक्षण अधिकारी, एक पुलिस अधिकारी, सेवा प्रदाताओं, या एक मजिस्ट्रेट द्वारा सूचित किया जाएगा। घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत सर्वाइवर्स को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं:
- ऐसी महिलाओं को सुरक्षा आदेश, आर्थिक राहत, कस्टडी आर्डर, निवास आदेश, मुआवज़ा आदेश के रूप में राहत प्राप्त करने के लिए आवेदन करने का अधिकार है।
- उन्हें उपलब्ध सेवा प्रदाताओं द्वारा दी जानेवाली सेवा का उपयोग करने का भी अधिकार है।
- उन्हें सुरक्षा अधिकारियों द्वारा दी जानेवाली सेवाओं का उपयोग करने का भी अधिकार है।
- उन्हें कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत मुफ्त कानूनी सेवाओं का अधिकार है।
- उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत आपराधिक मामला दर्ज करने का भी अधिकार है।
संरक्षण अधिकारी द्वारा घरेलू घटना की रिपोर्ट बनाना
घरेलू हिंसा की शिकायत मिलने पर, संरक्षण अधिकारी को मजिस्ट्रेट को घरेलू हिंसा की घटना की रिपोर्ट देनी चाहिए। अगर सर्वाइवर महिला सुरक्षा चाहती है तो इस रिपोर्ट में सुरक्षा आदेश के लिए राहत का भी दावा किया जाना चाहिए। ऐसे मजिस्ट्रेट (जिन्हें रिपोर्ट की जाती है) प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट होंगे जो उस क्षेत्र में अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर रहे हैं जहां:
- सर्वाइवर व्यक्ति अस्थायी रूप से रहता है
- प्रतिवादी निवास करता है, या
- वह स्थान जहां कथित तौर पर घरेलू हिंसा हुई थी।
रिपोर्ट की प्रतियां उस पुलिस थाने के प्रभारी पुलिस अधिकारी को भी भेजी जानी चाहिए जहां स्थानीय सीमा के भीतर घरेलू हिंसा कथित रूप से हुई थी। इसके अलावा, यह सुनिश्चित करना सुरक्षा अधिकारियों का कर्तव्य है कि सर्वाइवर व्यक्ति को उसके अधिकारों के रूप में उल्लिखित सभी लाभ मिले और वह उस क्षेत्र में उपस्थित सेवा प्रदाताओं, आश्रय गृहों और चिकित्सा सुविधाओं की एक सूची बनाए रखे।
मजिस्ट्रेट के पास आवेदन
एक बार सर्वाइवर महिला द्वारा, या सर्वाइवर महिला के आधार पर किसी ओर द्वारा या किसी संरक्षण अधिकारी की ओर से मजिस्ट्रेट के पास एक आवेदन दायर करने के बाद, मजिस्ट्रेट पहली सुनवाई की तारीख तय करेगा। ऐसी तारीख आमतौर पर मजिस्ट्रेट द्वारा आवेदन प्राप्त होने की तारीख से तीन दिनों से अधिक नहीं होती है। साथ ही मजिस्ट्रेट पहली सुनवाई से 60 दिनों के भीतर किए गए आवेदन का निस्तारण करने का प्रयास करेंगे।
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प्रतिवादी को नोटिस
एक बार मजिस्ट्रेट द्वारा पहली सुनवाई की तारीख तय कर दिए जाने के बाद, संरक्षण अधिकारी को एक नोटिस दिया जाएगा जो सूचना देने वाले और मजिस्ट्रेट द्वारा निर्धारित किसी अन्य व्यक्ति को सूचित करेगा। यह संरक्षण अधिकारी द्वारा प्राप्ति की तारीख से 2 दिनों के भीतर किया जाएगा।
आदेश देना
अगर दोनों पक्षों को सुनने के बाद, मजिस्ट्रेट संतुष्ट है कि घरेलू हिंसा हुई है, तो मजिस्ट्रेट इन आदेशों को पारित कर सकता है:
- सुरक्षा आदेश
- आर्थिक राहत
- हिरासत आदेश
- नुकसान की भरपाई
- निवास स्थान का आदेश (निवास स्थान के आदेश के अंतर्गत अगर पीड़ित महिला अलग घर में रहना चाहती है तो मजिस्ट्रेट अलग घर का आदेश दे सकता है या फिर दूसरी स्थिति में साझे घर में ही रहने का आदेश दे सकता है।
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तस्वीर साभार: The Wire